March 28, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय ११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ग्यारहवाँ अध्याय मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण श्रीशुकदेवजी कहते हैं — भगवन्मय प्रह्लादजी के साधुसमाज में सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिर को बड़ा आनन्द हुआ । उन्होंने नारदजी से और भी पूछा ॥ १ ॥ युधिष्ठिरजी ने कहा — भगवन् ! अब मैं वर्ण और आश्रमों के सदाचार के साथ मनुष्यों के सनातनधर्म का श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परम पुरुष भगवान् की प्राप्ति होती है ॥ २ ॥ आप स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी के पुत्र हैं और नारदजी ! आपकी तपस्या, योग एवं समाधि के कारण वे अपने दूसरे पुत्रों की अपेक्षा आपका अधिक सम्मान भी करते हैं ॥ ३ ॥ आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्म के गुप्त-से-गुप्त रहस्य को जैसा यथार्थरूप से जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते ॥ ४ ॥ नारदजी ने कहा — युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं । वहीं प्रभु चराचर जगत् के कल्याण के लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्ति के द्वारा अपने अंश से अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं । उन नारायण भगवान् को नमस्कार करके उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन धर्म का मैं वर्णन करता हूँ ॥ ५-६ ॥ युधिष्ठिर ! सर्ववेदस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जाननेवाले महर्षियों की स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो, वह कर्म धर्म के मूल हैं ॥ ७ ॥ युधिष्ठिर ! धर्म के ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं — सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धरि सांसारिक भौगों की चेष्टा से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल उलटा ही होता है —ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण के नाम-गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्म-समर्पण यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है । इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ ८-१२ ॥ धर्मराज ! जिनके वंश में अखण्डरूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं । जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजों के लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है ॥ १३ ॥ अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना — ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं । क्षत्रिय को दान नहीं लेना चाहिये । प्रजा की रक्षा करनेवाले क्षत्रिय का जीवन-निर्वाह ब्राह्मण के सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदि के द्वारा होता है ॥ १४ ॥ वैश्य को सर्वदा ब्राह्मण वंश का अनुयायी रहकर गोरक्षा, कृषि एवं व्यापार के द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये । शूद्र का धर्म है द्विजातियों की सेवा । उसकी जीविका का निर्वाह उसका स्वामी करता है ॥ १५ ॥ ब्राह्मण के जीवन-निर्वाह के साधन चार प्रकार के हैं — वार्ता, शालीन, यायावर और शिलोञ्छन । इनमें से पीछे-पीछे की वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं ॥ १६ ॥ निम्नवर्ण का पुरुष बिना आपत्तिकाल के उत्तम वक्र वृत्तियों का अवलम्बन न करे । क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मण को शेष पाँचों वृत्तियों का अवलम्बन ले सकता है । आपत्तिकाल में सभी सब वृत्तियों को स्वीकार कर सकते हैं ॥ १७ ॥ ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत — इनमें से किसी भी वृत्ति का आश्रय ले, परन्तु श्वानवृत्ति का अवलम्बन कभी न करे ॥ १८ ॥ बाजार र्मे पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतों में पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर ‘शिलोञ्छ’ वृत्ति से जीविका-निर्वाह करना ‘ऋत’ हैं । बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित (शालीन) वृत्ति के द्वारा जीवन-निर्वाह करना ‘अमृत’ हैं । नित्य माँगकर लाना अर्थात् ‘यायावर’ वृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करना ‘मृत’ है । कृषि आदि के द्वारा ‘वार्ता वृत्ति से जीवन-निर्वाह करना ‘प्रमृत’ है ॥ १९ ॥ वाणिज्य ‘सत्यानृत’ हैं और निम्नवर्ण की सेवा करना श्वानवृत्ति है । ब्राह्मण और क्षत्रिय को इस अन्तिम निन्दित वृत्ति का कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये । क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय हैं ॥ २० ॥ शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायणता और सत्य — ये ब्राह्मण के लक्षण हैं ॥ २१ ॥ युद्ध में उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजा की रक्षा करना — ये क्षत्रिय के लक्षण हैं ॥ २२ ॥ देवता, गुरु और भगवान् के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम-इन तीनों पुरुषार्थों की रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता — ये वैश्य के लक्षण हैं ॥ २३ ॥ उच्च वर्गों के सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामी की निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रों से रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ ब्राह्मण की रक्षा करना — ये शूद्र के लक्षण हैं ॥ २४ ॥ पति की सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पति के सम्बन्धियों को प्रसन्न रखना और सर्वदा पति के नियमों की रक्षा करना — ये पति को ही ईश्वर माननेवाली पतिव्रता स्त्रियों के धर्म हैं ॥ २५ ॥ साध्वी स्त्री को चाहिये कि झाड़ने-बुहारने, लीपने तथा चौक पूरने आदि से घर को और मनोहर वस्त्राभूषण से अपने शरीर को अलङ्कृत रक्खे । सामग्रियों को साफ-सुथरी रक्खे ॥ २६ ॥ अपने पतिदेव की छोटी-बड़ी इच्छाओं को समय के अनुसार पूर्ण करे । विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनों से प्रेमपूर्वक पतिदेव की सेवा करे ॥ २७ ॥ जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तु के लिये ललचावे नहीं । सभी कार्यों में चतुर एवं धर्मज्ञ हो । सत्य और प्रिय बोले । अपने कर्तव्य में सावधान रहे । पवित्रता और प्रेम से परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे ॥ २८ ॥ जो लक्ष्मीजी के समान पतिपरायणा होकर अपने पति की उसे साक्षात् भगवान् का स्वरूप समझकर सेवा करती हैं, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोक में भगवत्सारूप्य को प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मीजी के समान उनके साथ आनन्दित होती है ॥ २९ ॥ युधिष्ठिर ! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते-उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तवसायी वर्णसङ्कर जातियों की वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परा से उनके यहाँ चली आयी हैं ॥ ३० ॥ वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्रायः मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है । वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है ॥ ३१ ॥ जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है ॥ ३२ ॥ महाराज ! जिस प्रकार बार-बार बोने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है । और उसमें अङ्कुर आना बंद हो जाता हैं, यहाँ तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओं का खजाना है, विषयों का अत्यन्त सेवन करने से स्वयं ही ऊब जाता है । परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता । जैसे एक-एक बूंद घी डालने से आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह बुझ जाती है ॥ ३३-३४ ॥ जिस पुरुष के वर्ण को बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये ॥ ३५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे एकादशोध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related