श्रीमद्भागवतमहापुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय १३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
तेरहवाँ अध्याय
यतिधर्म का निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

नारदजी कहते हैं — धर्मराज ! यदि वानप्रस्थी में ब्रह्मविचार का सामर्थ्य हो, तो शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँव में एक ही रात ठहरने का नियम लेकर पृथ्वी पर विचरण करे ॥ १ ॥ यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अङ्ग ढक जायें और जब तक कोई आपत्ति न आवे, तब तक दण्ड तथा अपने आश्रम के चिह्नों के सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करे ॥ २ ॥ संन्यासी को चाहिये कि वह समस्त प्राणियों का हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसी का आश्रय न लेकर अपने-आपमें ही रमे एवं अकेला ही विचरे ॥ ३ ॥

इस सम्पूर्ण विश्व को कार्य और कारण से अतीत परमात्मा में अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत् में ब्रह्मस्वरूप अपने आत्मा को परिपूर्ण देखे ॥ ४ ॥ आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरण की सन्धि में अपने स्वरूप का अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया हैं, वस्तुतः कुछ नहीं —ऐसा समझे ॥ ५ ॥ न तो शरीर को अवश्य होनेवाली मृत्यु का अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवन का । केवल समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और नाश के कारण काल की प्रतीक्षा करता रहे ॥ ६ ॥ असत्य-अनात्म वस्तु का प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों से प्रीति न करे । अपने जीवन-निर्वाह के लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवाद के लिये कोई तर्क न करे और संसार में किसी का पक्ष न ले ॥ ७ ॥ शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत-से ग्रन्थों का अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामों का आरम्भ न करे ॥ ८ ॥ शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासी के लिये किसी आश्रम का बन्धन धर्म का कारण नहीं है । वह अपने आश्रम के चिह्नों को धारण करे, चाहे छोड़ दें ॥ ९ ॥ उसके पास कोई आश्रम का चिह्न न हो, परन्तु वह आत्मानुसन्धान में मग्न हो । हो तो अत्यन्त विचारशील, परन्तु जान पड़े पागल और बालक की तरह । वह अत्यन्त प्रतिभाशील होने पर भी साधारण मनुष्यों की दृष्टि से ऐसा जान पड़े मानो कोई गुंगा है ॥ १० ॥

युधिष्ठिर ! इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं । वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद ॥ ११ ॥ एक बार भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लादजी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदय की बात जानने की इच्छा से लोकों में विचरण कर रहे थे । उन्होंने देखा कि सह्य पर्वत की तलहटी में कावेरी नदी के तट पर पृथ्वी पर ही एक मुनि पड़े हुए हैं । उनके शरीर की निर्मल ज्योति अङ्गों के धूल-धूसरित होने के कारण ढकी हुई थी ॥ १२-१३ ॥ उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदि के चिह्नों से लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं ॥ १४ ॥ भगवान् के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजी ने अपने सिर से उनके चरण का स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जानने की इच्छा से यह प्रश्न किया ॥ १५ ॥

‘भगवन् ! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषों के समान हृष्ट-पुष्ट है । संसार का यह नियम है कि उद्योग करनेवालों को धन मिलता है, धनवालों को ही भोग प्राप्त होता हैं और भोगियों का ही शरीर हष्ट-पुष्ट होता है । और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता ॥ १६ ॥ भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पड़े रहते हैं । इसलिये आपके पास धन है नहीं । फिर आपको भोग कहाँ से प्राप्त होंगे ? ब्राह्मणदेवता ! बिना भोग के ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुनने योग्य हो, तो अवश्य बतलाइये ॥ १७ ॥ आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं । आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं । ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण हैं ?’ ॥ १८ ॥

नारदजी कहते हैं — धर्मराज ! जब प्रह्लादजी ने महामुनि दत्तात्रेयजी से इस प्रकार प्रश्न किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणी के वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले ॥ १९ ॥

दत्तात्रेयजी ने कहा — दैत्यराज ! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं । मनुष्यों को कर्मों की प्रवृत्ति और उनको निवृत्ति का क्या फल मिलता हैं, यह बात तुम अपनी ज्ञानदृष्टि से जानते ही हो ॥ २० ॥ तुम्हारी अनन्य भक्ति के कारण देवाधिदेव भगवान् नारायण सदा तुम्हारे हृदय में विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञान को नष्ट करते रहते हैं ॥ २१ ॥ तो भी प्रह्लाद ! मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ । क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियों को तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये ॥ २३ ॥

प्रह्लादजी ! तृष्णा एक ऐसी वस्तु हैं, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती । उसीके कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है । तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला ॥ २३ ॥ कर्मों के कारण अनेकों योनियों में भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्ययोनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानवदेह की भी प्राप्ति का द्वार हैं — इसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करे तो पशु-पक्षी आदि की योनि, निवृत्त हो जायें तो मोक्ष और दोनों प्रकार के कर्म किये जायें तो फिर मनुष्य-योनि की ही प्राप्ति हो सकती है ॥ २४ ॥ परन्तु मैं देखता हूँ कि संसार के स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता ही हैं — वे और भी दुःख में पड़ जाते हैं । इसीलिये मैं कर्मों से उपरत हो गया हूँ ॥ २५ ॥

सुख ही आत्मा का स्वरूप है । समस्त चेष्टाओं की निवृत्ति ही उसका शरीर — उसके प्रकाशित होने का स्थान है । इसलिये समस्त भोगों को मनोराज्यमात्र समझकर मैं अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ ॥ २६ ॥ मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ अर्थात् वास्तविक सुख को, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैत को सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयङ्कर और विचित्र जन्म और मृत्युओं में भटकता रहता है ॥ २७ ॥ जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समझनेवाला पुरुष आत्मा को छोड़कर विषयों की ओर दौड़ता है ॥ २८ ॥ प्रह्लादजी ! शरीर आदि तो प्रारब्ध के अधीन हैं । उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दुःख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता । उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं ॥ २९ ॥ मनुष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक आदि दुःखों से आक्रान्त ही रहता है । मरणशील तो हैं ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्ट से कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ हैं ? ॥ ३० ॥ लोभी और इन्द्रियों के वश में रहनेवाले धनियों का दुःख तो मैं देखता ही रहता हूँ । भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती । सब पर उनका सन्देह बना रहता है ॥ ३१ ॥ जो जीवन और धन के लोभी हैं ये राजा, चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और काल से, यहाँ तक कि कहीं मैं भूल न कर बैठूँ. अधिक न खर्च कर दूँ — इस आशङ्का से अपने-आपसे भी सदा डरते रहते हैं ॥ ३३ ॥

इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और श्रम आदि का शिकार होना पड़ता है — उस धन और जीवन की स्पृहा का त्याग कर दे ॥ ३३ ॥ इस लोक में मेरे सबसे बड़े गुरु हैं — अजगर और मधुमक्खी । उनकी शिक्षा से हमें वैराग्य और सन्तोष की प्राप्ति हुई है ॥ ३४ ॥ मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठा करती हैं, वैसे ही लोग बड़े कष्ट से धन-सञ्चय करते हैं; परन्तु दुसरा ही कोई उस धन-राशि के स्वामी को मारकर उसे छीन लेता है । इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगों से विरक्त ही रहना चाहिये ॥ ३५ ॥ मैं अजगर के समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश जो कुछ मिल जाता है, उसमें सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ नहीं मिलता, तो बहुत दिनों तक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता हूँ ॥ ३६ ॥ कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरस–बेस्वाद, और कभी अनेकों गुण से युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन ॥ ३७ ॥ कभी बड़ी श्रद्धा से प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमान के साथ और किसी-किसी समय अपने-आप ही मिल जाने पर कभी दिन में, कभी रात में और कभी एक बार भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ ॥ ३८ ॥

मैं अपने प्रारब्ध के भोग में ही सन्तुष्ट रहता हूँ । इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ-जैसा भी वस्त्र मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ ॥ ३९ ॥ कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राख के ढेर पर ही पड़ा रहता हूँ, तो कभी दूसरों की इच्छा से महलों में पलँगों और गद्दों पर सो लेता हूँ ॥ ४० ॥ दैत्यराज ! कभी नहा-धोकर, शरीर में चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलों के हार और गहने पहन रथ, हाथी और घोड़े पर चढ़कर चलता हूँ, तो कभी पिशाच समान बिलकुल नंग-धडंग विचरता हूँ ॥ ४१ ॥ मनुष्यों के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं । अतः न तो मैं किसी की निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही । मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मा से एकता चाहता हूँ ॥ ४२ ॥

सत्य का अनुसन्धान करनेवाले मनुष्य को चाहिये कि जो नाना प्रकार के पदार्थ और उनके भेद-विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उनको चित्तवृत्ति में हवन कर दे । चित्तवृत्ति को इन पदार्थों के सम्बन्ध में विविध भ्रम उत्पन्न करनेवाले मन में, मन को सात्त्विक अहङ्कार में और सात्त्विक अहङ्कार को महत्तत्त्व के द्वारा माया में हवन कर दें । इस प्रकार ये सब भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे । इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार के द्वारा आत्मस्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय ॥ ४३-४४ ॥ प्रह्लादजी ! मेरी यह आत्मकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्र से परे की वस्तु है । तुम भगवान् के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया हैं ॥ ४५ ॥

नारदजी कहते हैं — महाराज ! प्रह्लादजी ने दत्तात्रेय मुनि से परमहंसों के इस धर्म का श्रवण करके उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान किया ॥ ४६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे त्रयोदशोध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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