श्रीमद्भागवतमहापुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय १५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
पंद्रहवाँ अध्याय
गृहस्थों के लिये मोक्षधर्म का वर्णन

नारदजी कहते हैं — युधिष्ठिर ! कुछ ब्राह्मणों की निष्ठा कर्म में, कुछ की तपस्या में, कुछ की वेदों के स्वाध्याय और प्रवचन में, कुछ आत्मज्ञान के सम्पादन तथा कुछ को योग में होती है ॥ १ ॥ गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजा के अवसर पर अपने कर्म का अक्षय फल प्राप्त करने के लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुष को ही हव्य-कव्य का दान करें । यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदि को यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ॥ २ ॥ देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये । अत्यन्त धनी होने पर भी श्राद्धकर्म में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये ॥ ३ ॥ क्योकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनों को देने से और विस्तार करने से देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते ॥ ४ ॥ देश और काल के प्राप्त होने पर ऋषि-मुनियों के भोजन करने योग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान् को भोग लगाकर श्रद्धा से विधिपूर्वक योग्य पात्र को देना चाहिये । वह समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ॥ ५ ॥ देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने आपको भी अन्न का विभाजन करने के समय परमात्मस्वरूप ही देखे ॥ ६ ॥

धर्म का मर्म जाननेवाला पुरुष श्राद्ध में मांस का अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे ख़ाय; क्योंकि पितरों को ऋषि-मुनियों के योग्य हविष्यान्न से जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी पशु-हिंसा से नहीं होती ॥ ७ ॥ जो लोग सद्धर्मपालन की अभिलाषा रखते हैं, उनके लिये इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणी को मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाय ॥ ८ ॥ इसीसे कोई-कोई यज्ञ-तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी ज्ञान के द्वारा प्रज्वलित आत्मसंयमरूप अग्नि में इन कर्ममय यज्ञों का हवन कर देते हैं और बाह्म कर्म-कलापों से उपरत हो जाते हैं ॥ ९ ॥ जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञों से यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं, वे सोचने लगते हैं कि यह अपने प्राणों का पोषण करनेवाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा ॥ १० ॥ इसलिये धर्मज्ञ मनुष्य को यही उचित हैं कि प्रतिदिन प्रारब्ध के द्वारा प्राप्त मुनिजनोचित हविष्यान्न से ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म को तथा उसी से सर्वदा सन्तुष्ट रहे ॥ ११ ॥

अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं — विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल । धर्मज्ञ पुरुष अधर्म के समान ही इनका भी त्याग कर दे ॥ १२ ॥ जिस कार्य को धर्मबुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पड़े, वह ‘विधर्म हैं । किसी अन्य के द्वारा अन्य पुरुष के लिये उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’ है । पाखण्ड या दम्भ का नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है । शास्त्र के वचनों का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना ‘छल” हैं ॥ १३ ॥ मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है, वह ‘आभास’ है । अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते ॥ १४ ॥

धर्मात्मा पुरुष निर्धन होने पर भी धर्म के लिये अथवा शरीर-निर्वाह के लिये धन प्राप्त करने की चेष्टा न करे । क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकार की चेष्टा किये अजगर की जीविका चलती ही हैं, वैसे ही निवृत्तिपरायण पुरुष की निवृत्ति ही उसकी जीविका का निर्वाह कर देती है ॥ १५ ॥ जो सुख अपनी आत्मा में रमण करनेवाले निष्क्रिय सन्तोषी पुरुष को मिलता है, वह उस मनुष्य को भला कैसे मिल सकता हैं, जो कामना और लोभ से धन के लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है ॥ १६ ॥ जैसे पैरों में जूता पहनकर चलनेवाले को कंकड़ और काँटों से कोई डर नहीं होता — वैसे ही जिसके मन में सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख-ही-सुख है, दुःख है ही नहीं ॥ १७ ॥ युधिष्ठिर ! न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्र से ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवन का निर्वाह नहीं कर लेता । अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के फेर में पड़कर यह बेचारा घर की चौकसी करनेवाले कुत्ते के समान हो जाता है ॥ १८ ॥

जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं हैं, इन्द्रियों की लोलुपता के कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है ॥ १९ ॥ भूख और प्यास मिट जाने पर खाने-पीने की कामना का अन्त हो जाता हैं । क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है । परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को जीत ले और भोग ले, तब भी लोभ का अन्त नहीं होता ॥ २० ॥ अनेक विषयों के ज्ञाता, शङ्काओ का समाधान करके चित्त में शास्त्रोक्त अर्थ को बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओं के सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोष के कारण गिर जाते हैं ॥ २१ ॥

धर्मराज ! सङ्कल्पों के परित्याग से काम को, कामनाओं के त्याग से क्रोध, संसारी लोग जिसे ‘अर्थ’ कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभ को और तत्त्व के विचार से भय को जीत लेना चाहिये ॥ २२ ॥ अध्यात्म-विद्या से शोक और मोह पर, संतों की उपासना से दम्भ पर, मौन के द्वारा योग के विघ्नों पर और शरीर-प्राण आदि को निश्चेष्ट करके हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये ॥ २३ ॥ आधिभौतिक दुःख को दया के द्वारा, आधिदैविक वेदना को समाधि के द्वारा और आध्यात्मिक दुःख को योगबल से एवं निद्रा को सात्विक भोजन, स्थान, सङ्ग आदि के सेवन से जीत लेना चाहिये ॥ २४ ॥ सत्वगुण के द्वारा रजोगुण एवं तमोगुण पर और उपरति के द्वारा सत्त्वगुण पर विजय प्राप्त करनी चाहिये । श्रीगुरुदेव की भक्ति के द्वारा साधक इन सभी दोषों पर सुगमता से विजय प्राप्त कर सकता है ॥ २५ ॥ हृदय में ज्ञान का दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही हैं । जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथी के स्नान के समान व्यर्थ है ॥ २६ ॥ बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलों का अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुष के अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेव के रूप में प्रकट हैं । इन्हें लोग भ्रम से मनुष्य मानते हैं ॥ २७ ॥

शास्त्रों में जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर — इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा पाँच इन्द्रिय और मन — ये छः वश में हो जायँ । ऐसा होने पर भी यदि उन नियमों के द्वारा भगवान् के ध्यान-चिन्तन आदि की प्राप्ति नहीं होती तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये ॥ २८ ॥ जैसे खेती, व्यापार आदि और उनके फल भी योग-साधना के फल भगवत्प्राप्ति या मुक्ति को नहीं दे सकते — वैसे ही दुष्ट पुरुष के श्रौत-स्मार्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते. प्रत्युत उल्टा फल देते हैं ॥ २९ ॥

जो पुरुष अपने मन पर विजय प्राप्त करने के लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रह का त्याग करके संन्यास ग्रहण करे । एकान्त में अकेला ही रहे और भिक्षा-वृत्ति से शरीर-निर्वाहमात्र के लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ॥ ३० ॥ युधिष्ठिर ! पवित्र और समान भूमि पर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर-भाव से समान और सुखकर आसन से उसपर बैठकर ॐ-कार का जप करे ॥ ३१ ॥ जबतक मन सङ्कल्प-विकल्पों को छोड़ न दे, तबतक नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचक द्वारा प्राण तथा अपान की गति को रोके ॥ ३२ ॥ काम की चोट से घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह वहाँ-वहाँ से उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदय रोके ॥ ३३ ॥ जब साधक निरन्तर इस प्रकार का अभ्यास करता है, तब ईंधन के बिना जैसे अग्नि बुझ जाती हैं, वैसे ही थोड़े समय में उसका चित्त शान्त हो जाता है ॥ ३४ ॥ इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृतियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्द के संस्पर्श में मग्न हो जाता है और फिर उसका कभी उत्थान नहीं होता ॥ ३५ ॥

जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और काम के मूल कारण गृहस्थाश्रम का परित्याग कर देता है और फिर उन्हीं का सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुए को खानेवाला कुत्ता ही है ॥ ३६ ॥ जिन्होंने अपने शरीर को अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था — वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं ॥ ३७ ॥ कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँव में रहनेवाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रिय लोलुप संन्यासी — ये चारों आश्रम के कलङ्क हैं और व्यर्थ ही आश्रमों का ढोंग करते हैं । भगवान् की माया से विमोहित उन मूढ़ों पर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये ॥ ३८-३९ ॥ आत्मज्ञान के द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी हैं और जिसने अपने आत्मा को परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषय की इच्छा और किस भोक्ता की तृप्ति के लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीर का पोषण करेगा ? ॥ ४० ॥

उपनिषदों में कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियों घोड़े हैं, इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान् के द्वारा निर्मित बाँधने की विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है । ॐ कार ही उस रथी का धनुष हैं, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है । (इस ॐ कार के द्वारा अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिये) ॥ ४१-४२ ॥ राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, छल, हिंसा, दुसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद — ये सब, और ऐसे ही जीवों के और भी बहुत-से शत्रु हैं । उनमें रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक हैं, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्त्वगुणप्रधान ही होती हैं ॥ ४३-४४ ॥ यह मनुष्य-शरीररूप रथ जब तक अपने वश में है और इसके इन्द्रिय मन आदि सारे साधन अच्छी दशा में विद्यमान हैं, तभी तक श्रीगुरुदेव चरणकमलों की सेवा-पूजा से शान धरायी हुई ज्ञान की तीखी तलवार लेकर भगवान् के आश्रय से इन शत्रुओं का नाश करके अपने स्वराज्य-सिंहासन पर विराजमान हो जाय और फिर अत्यन्त शान्तभाव से इस शरीर का भी परित्याग कर दे ॥ ४५ ॥ नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जाने पर ये इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बुद्धिरूप सारथि रथ के स्वामी जीव को उल्टे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे । वे डाकू सारथि और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्यु से अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसार के कुएँ में गिरा देंगे ॥ ४६ ॥

वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं — एक तो वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर ले जाते हैं — प्रवृत्तिपरक, और दूसरे वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर से लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कार के योग्य बना देते हैं — निवृत्तिपरक । प्रवृत्तिपरक कर्ममार्ग से बार-बार जन्म-मृत्यु की प्राप्ति होती हैं और निवृत्तिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्ग के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती हैं ॥ ४७ ॥ श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म ‘इष्ट’ कहलाते हैं और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना ‘पूर्त्तकर्म’ हैं । ये सभी प्रवृतिपरक कर्म हैं और सकामभाव से युक्त होने पर अशान्ति के ही कारण बनते हैं ॥ ४८-४९ ॥ प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरने पर चरु-पुरोड़ाशादि यज्ञसम्बन्धी द्रव्यों के सूक्ष्मभाग से बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओं के पास जाता है । फिर क्रमशः रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के अभिमानी देवताओं के पास जाकर चन्द्रलोक में पहुँचता है । वहाँ से भोग समाप्त होने पर अमावस्या के चन्द्रमा के समान क्षीण होकर वृष्टि द्वारा क्रमशः ओषधि, लता, अन्न और वीर्य के रूप में परिणत होकर पितृयान मार्ग से पुनः संसार में ही जन्म लेता हैं ॥ ५०-५१ ॥

युधिष्ठर ! गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको ‘द्विज’ कहते हैं । (उनमें से कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्ग का. अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जानेवाले निवृत्तिमार्ग का।) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट, पूर्त आदि कर्मों से होनेवाले समस्त यज्ञों के विषयों का ज्ञान करानेवाले इन्द्रियों में हवन कर देता हैं ॥ ५२ ॥ इन्द्रियों को दर्शनादि-सङ्कल्परूप मन में, वैकारिक मन को परावाणी में और परावाणी को वर्णसमुदाय में, वर्णसमुदाय को ‘अ उ म्’ इन तीन स्वरों के रूप में रहनेवाले ॐ कार में, ॐ कार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में, नाद को सूत्रात्मारूप प्राण में तथा प्राण को ब्रह्म में लीन कर देता हैं ॥ ५३ ॥ वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायङ्काल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायण के अभिमानी देवताओं के पास जाकर ब्रह्मलोक में पहुंचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक ‘विश्व’ अपनी स्थूल उपाधि को सूक्ष्म में लीन करके सूक्ष्मोपाधिक ‘तेजस’ हो जाता है । फिर सूक्ष्म उपाधि को कारण में लय करके कारणोपाधिक ‘प्राज्ञ रूप से स्थित होता है, फिर सबके साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूप में कारणोपाधि का लय करके तुरीय’ रूप से स्थित होता है । इस प्रकार दृश्यों का लय हो जाने पर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है । यही मोक्षपद है ॥ ५४ ॥

इसे ‘देवयान’ मार्ग कहते हैं । इस मार्ग से जानेवाला आत्मोपासक संसार की और से निवृत्त होकर क्रमशः एक से दुसरे देवता के पास होता हुआ ब्रह्मलोक में जाकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । वह प्रवृत्तिमार्ग के समान फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता ॥ ५५ ॥

ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं । जो शास्त्रीय दृष्टि से इन्हें तत्त्वतः जान लेता है, वह शरीर में स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ ५६ ॥ पैदा होनेवाले शरीरों के पहले भी कारणरूप से और उनका अन्त हो जाने पर भी उनकी अवधिरूप से जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूप से बाहर और भोक्तारूप से भीतर हैं तथा ऊँच और नीच, जानना और जानने का विषय, वाणी और वाणी का विषय, अन्धकार और प्रकाश आदि वस्तुओं के रूप में जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है । इसी से मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ५७ ॥ दर्पण आदि में दीख पड़ने वाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्ति से बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व ही नहीं, फिर भी वस्तु के रूप में तो वह दीखता ही है । वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा दीखनेवाला वस्तुओं का भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभव से असम्भव होने के कारण वस्तुतः न होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ॥ ५८ ॥ पृथ्वी आदि पञ्चभूतों से इस शरीर का निर्माण नहीं हुआ है । वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो न तो वह उन पञ्चभूतों का सङ्घात हैं और न विकार या परिणाम ही । क्योंकि यह अपने अवयवों से न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ॥ ५९ ॥

इसी प्रकार शरीर के कारणरूप पञ्चभूत भी अवयवी होने के कारण अपने अवयवों — सूक्ष्मभूतों से भिन्न नहीं हैं, अवयवरूप ही है । जब बहुत खोज-बीन करने पर भी अवयवों के अतिरिक्त अवयवी का अस्तित्व नहीं मिलता — वह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असल्य ही है ॥ ६० ॥ जब तक अज्ञान के कारण एक ही परमतत्त्व में अनेक वस्तुओं के भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तब तक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्न में भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं के अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेध के शास्त्र रहते हैं — वैसे ही जबतक इन भिन्नताओं के अस्तित्व का मोह बना हुआ है, तब तक यहाँ भी विधि-निषेध के शास्त्र हैं ही ॥ ६१ ॥

जो विचारशील पुरुष स्वानुभूति से आत्मा के त्रिविध अद्वैत का साक्षात्कार करते हैं वे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्य के भेद रूप स्वप्न को मिटा देते हैं । ये अद्वैत तीन प्रकार के हैं — भावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत ॥ ६२ ॥ जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है । क्योंकि भेद तो वास्तव में है नहीं । इस प्रकार सबकी एकता का विचार ‘भावाद्वैत’ है ॥ ६३ ॥ युधिष्ठिर ! मन, वाणी और शरीर से होनेवाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मा में ही हो रहे हैं, उसमें अध्यस्त हैं — इस भाव से समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ‘क्रियाद्वैत’ है ॥ ६४ ॥ स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसार के अन्य समस्त प्राणियों के तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही हैं, उनमें अपने और पराये का भेद नहीं हैं — इस प्रकार का विचार ‘द्रव्याद्वैत’ है ॥ ६५ ॥

युधिष्ठिर ! जिस पुरुष के लिये जिस द्रव्य को जिस समय जिस उपाय से जिससे ग्रहण करना शास्त्रज्ञा के विरुद्ध न हो, उसे उससे अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकाल को छोड़कर इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ॥ ६६ ॥ महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेद में कहे हुए इन कर्मों के तथा अन्यान्य स्वकर्मों के अनुष्ठान से घर में रहते हुए भी श्रीकृष्ण की गति को प्राप्त करता है ॥ ६७ ॥ युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा और सहायता से बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियों से पार हो गये हो और उन्हीं के चरणकमलों की सेवासे समस्त भूमण्डल को जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं ॥ ६८ ॥

पूर्वजन्म में इसके पहले के महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था । मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वों मे मेरा बड़ा सम्मान था ॥ ६९ ॥ मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी । मेरे शरीर मॅ से सुगन्धि निकला करती और देखने में मैं बुहत अच्छा लगता । स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमाद में ही रहता । मैं अत्यन्त विलासी था ॥ ७० ॥ एक बार देवताओं के यहाँ ज्ञानसत्र हुआ । उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे । भगवान् की लीला का गान करने के लिये उन लोगों ने गन्धर्व और अप्सराओं को बुलाया ॥ ७१ ॥ मैं जानता था कि वह संतों का समाज है और वहाँ भगवान् की लीला का हीं गान होता है । फिर भी मैं स्त्रियो के साथ लौकिक गीतों का गान करता हुआ उन्मत्त की तरह वहाँ जा पहुँचा । देवताओं ने देखा कि यह तो हमलोगों का अनादर कर रहा हैं । उन्होंने अपनी शक्ति से मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हम लोगों की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’ ॥ ७२ ॥ उनके शाप से मैं दासी का पुत्र हुआ; किन्तु उस शूद्र जन्म में किये हुए महात्माओं के सत्सङ्ग और सेवा-शुश्रूषा के प्रभाव से मैं दूसरे जन्म में ब्रह्माजी का पुत्र हुआ ॥ ७३ ॥ संतों की अवहेलना और सेवा का यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है । संत-सेवा से ही भगवान् प्रसन्न होते हैं । मैंने तुम्हें गृहस्थ का पापनाशक धर्म बतला दिया । इस धर्म के आचरण से गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियों को मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ७४ ॥

युधिष्ठिर ! इस मनुष्यलोक में तुम लोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घर में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्य का रूप धारण करके गुप्तरूप से निवास करते हैं । इसीसे सारे संसार को पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करने के लिये चारों ओर से तुम्हारे पास आया करते हैं ॥ ‘७५ ॥ बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूंढते रहते हैं, जो माया के लेश से रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं — वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ॥ ७६ ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’ — इस रूप में उनका वर्णन नहीं कर सके । फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं । हम मौन, भक्ति और संयम के द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं । कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हम पर प्रसन्न हों ॥ ७७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! देवर्षि नारद का यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिर को अत्यन्त आनन्द हुआ । उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की ॥ १८ ॥ देवर्षि नारद भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर से विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये । भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है, यह सुनकर युधिष्ठिर के आश्चर्य की सीमा न रही ॥ ७९ ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्ष-पुत्रियों के वंश का अलग-अलग वर्णन सुनाया । उन्हीं के वंश में देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचर की सृष्टि हुई है ॥ ८० ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे पञ्चदशोध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् सप्तमः स्कन्धः शुभं भूयात् ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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