Print Friendly, PDF & Email

श्रीमद्भागवतमहापुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय २
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
दूसरा अध्याय
हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

नारदजी ने कहा — युधिष्ठिर ! जब भगवान् ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तब भाई के इस प्रकार मारे जाने पर हिरण्यकशिपु रोष से जल-भुन गया और शोक से सन्तप्त हो उठा ॥ १ ॥ वह क्रोध से काँपता हुआ अपने दाँतों से बार-बार होठ चबाने लगा । क्रोध से दहकती हुई आँखो की आग के धुएँ से धूमिल हुए आकाश की ओर देखता हुआ वह कहने लगा ॥ २ ॥ उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलनेवाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहों के कारण उसका मुँह देखा न जाता था । भरी सभा में त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचिति, पुलोमा और शकुन आदि को सम्बोधन करके कहा — ‘दैत्यो और दानवो ! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो ॥ ३-५ ॥

तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओं ने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाई को विष्णु से मरवा डाला है । यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनों के प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओं ने उसे अपने पक्ष में कर लिया है ॥ ६ ॥ यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था । परन्तु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से च्युत हो गया है । बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर हो जाता है । उसका चित्त स्थिर नहीं हैं ॥ ७ ॥ अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट डालूंगा और उसके खुन की धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा । तब कहीं मेरे हृदय की पीड़ा शान्त होगी ॥ ८ ॥ उस मायावी शत्रु के नष्ट होने पर, पेड़ की जड़ कट जाने पर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायेंगे । क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है ॥ ९ ॥ इसलिये तुम लोग इसी समय पृथ्वी पर जाओ । आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की बहुत बढ़ती हो गयी है । वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहें हों, उन सबको मार डालो ॥ १० ॥ विष्णु की जड़ है द्विजातियों का धर्म-कर्म क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं । देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्म का वही परम आश्रय है ॥ ११ ॥ जहाँ-जहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो, उजाड़ डालो’ ॥ १२ ॥

दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं । दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसके अनुसार जनता का नाश करने लगे ॥ १३ ॥ उन्होंने नगर, गाँव, गौओं के रहने के स्थान, बगीचे, खेत, टहलने के स्थान, ऋषियों के आश्रम, रत्न आदि की खाने, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले ॥ १४ ॥ कुछ दैत्यों ने खोदने के शस्त्रों से बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरों ने कुल्हाड़ियों से फले-फुले, हरे-भरे पेड़ काट डाले । कुछ दैत्यों ने जलती हुई लकड़ियों से लोगों के घर जला दिये ॥ १५ ॥ इस प्रकार दैत्यों ने निरीह प्रजा का बड़ा उत्पीड़न किया । उस समय देवता लोग स्वर्ग छोड़कर छिपे रूप से पृथ्वी में विचरण करते थे ॥ १६ ॥

युधिष्ठिर ! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दुःख हुआ था । जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रिया से छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मनु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी ॥ १७-१८ ॥ उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणी से समझाते हुए कहा ॥ १९ ॥

हिरण्यकशिपु ने कहा — मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो ! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये । वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है ॥ २० ॥ देवि ! जैसे प्याऊ पर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परन्तु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देर के लिये ही होता है वैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं ॥ २१ ॥ वास्तव में आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है । वह अपनी अविद्या से ही देह आदि की सृष्टि करके भोग के साधन सूक्ष्मशरीर को स्वीकार करता है ॥ २२ ॥ जैसे हिलते हुए पानी के साथ उसमें प्रतिबिम्बित होनेवाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है, कल्याणी ! वैसे ही विषयों के कारण मन भटकने लगता हैं और वास्तव में निर्विकार होने पर भी उसी के समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है । उसका स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा ज्ञान पड़ता है ॥ २३-२४ ॥ सब प्रकार से शरीररहित आत्मा को शरीर समझ लेना — यही तो अज्ञान है । इससे प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुड़ना होता है । इसीसे कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता हैं ॥ २५ ॥ जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकार के शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेक की विस्मृति-सबका कारण यह अज्ञान ही है ॥ २६ ॥ इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं । वह इतिहास मरे हुए मनुष्य के सम्बन्धियों के साथ यमराज की बातचीत है । तुमलोग ध्यान से उसे सुनो ॥ २७ ॥

उशीनर देश में एक बड़ा यशस्वी राजा था । उसका नाम था सुयज्ञ । लड़ाई में शत्रुओं ने उसे मार डाला । उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये ॥ २८ ॥ उसका जड़ाऊ कवच छिन्न-भिन्न हो गया था । गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयी थीं । बाणों की मार से कलेजा फट गया था । शरीर खून से लथपथ था । बाल बिखर गये थे । आँखें धँस गयी थी । क्रोध के मारे दाँतों से उसके होठ दबे हुए थे । कमल के समान मुख धूल से ढक गया था । युद्ध में उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं ॥ २९-३० ॥ रानियों को दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेश की यह दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ । वे ‘हा नाथ ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयी ।’ यों कहकर बार-बार जोर से छाती पीटती हुई अपने स्वामी के चरणों के पास गिर पड़ीं ॥ ३१ ॥ वे जोर-जोर से इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुङ्कम से मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओं ने प्रियतम के पादपद्म पखार दिये । उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये । वे करुण-क्रन्दन के साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्यों के हृदय में शोक का संचार हो जाता था ॥ ३२ ॥

‘हाय ! विधाता बड़ा क्रूर है । स्वामिन् ! उसीने आज आपको हमारी आँखों से ओझल कर दिया । पहले तो आप समस्त देशवासियों के जीवनदाता थे । आज उसीने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं ॥ ३३ ॥ पतिदेव ! आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवा को भी बड़ी करके मानते थे । हाय ! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी । हम आपके चरणों की चेरी हैं । वीरवर ! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चलने की हमें भी आज्ञा दीजिये ॥ ३४ ॥ वे अपने पति की लाश पकड़कर इसी प्रकार विलाप करती रहीं । उस मुर्दे को वहाँ से दाह के लिये जाने देने की उनकी इच्छा नहीं होती थी । इतने में ही सूर्यास्त हो गया ॥ ३५ ॥ उस समय उशीनर राजा के सम्बन्धियों ने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालक के वेष में आये और उन्होंने उन लोगों से कहा — ॥ ३६ ॥

यमराज बोले — बड़े आश्चर्य की बात है ! ये लोग तों मुझसे सयाने हैं । बराबर लोगों का मरना-जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं । अरे ! यह मनुष्य जहाँ से
आया था, वहीं चला गया । इन लोगों को भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है । फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं ? ॥ ३७ ॥ हम तो तुमसे लाखगुने अच्छे हैं, परम घन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बाप ने हमें छोड़ दिया है । हमारे शरीर में पर्याप्त बल भी नहीं हैं, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है । भेड़िये आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते । जिसने गर्भ में रक्षा की थी, वहीं इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है ॥ ३८ ॥ देवियो ! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौज से इस जगत् को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है — उस प्रभु का यह एक खिलौनामात्र है । वह इस चराचर जगत् को दण्ड या पुरस्कार देने में समर्थ है ॥ ३९ ॥ भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है । परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होने पर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है । जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परंतु दैव के विपरीत होने पर घर में सुरक्षित रहने पर भी मर जाता है ॥ ४० ॥

रानियो ! सभी प्राणियों की मृत्यु अपने पूर्वजन्मों की कर्मवासना के अनुसार समय पर होती है और उसके अनुसार उनका जन्म भी होता है । परन्तु आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहने पर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मों से अछूता ही रहता है ॥ ४१ ॥ जैसे मनुष्य अपने मकान को अपने से अलग और मिट्टी का समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टी का है । मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है । जैसे बुलबुले आदि पानी के विकार, घड़े आदि मिट्टी के विकार और गहने आदि स्वर्ण के विकार समय पर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनों के विकार से बना हुआ यह शरीर भी समय पर बन-बिगड़ जाता हैं ॥ ४२ ॥ जैसे काठ में रहनेवाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देह में रहने पर भी वायु का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहने पर भी किसी के दोष-गुण से लिप्त नहीं होता-वैसे ही समस्त देहेन्द्रियो में रहनेवाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निर्लिप्त हैं ॥ ४३ ॥

मूर्खो ! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नाम का शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है । तुमलोग इसीको देखते थे । इसमें जो सुननेवाला और बोलनेवाला था, वह तो कभी किसी को नहीं दिखायी पड़ता था । फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों ? ॥ ४४ ॥ (तुम्हारी यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोलने या सुननेवाला था, सो निकल गया’ मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता हैं।) शरीर में सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होने पर भी बोलने या सुननेवाला नहीं है; क्योंकि वह जड़ है । देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है ॥ ४५ ॥ यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक हैं — फिर भी पञ्चभूत, इन्द्रिय और मन से युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने विवेकबल से मुक्त भी हो जाता हैं । वास्तव में वह इन सबसे अलग है ॥ ४६ ॥

जबतक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन — इन सत्रह तत्वों से बने हुए लिङ्गशरीर से युक्त रहता है, तभी तक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण ही माया से होनेवाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं ॥ ४७ ॥ प्रकृति के गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओं को सत्य समझना अथवा कहना झूठ-मूठ का दुराग्रह है । मनोरथ के समय की कल्पित और स्वप्न समय की दीख पड़नेवाली वस्तुओं के समान इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या हैं ॥ ४८ ॥ इसलिये शरीर और आत्मा का तत्व जाननेवाले पुरुष न तो अनित्य शरीर के लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्मा के लिये ही । परन्तु ज्ञान की दृढ़ता न होने के कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ॥ ४५ ॥

किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था । वह बहेलिया क्या था, विधाता ने मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था । जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिड़ियों को फँसा लेता ॥ ५० ॥ एक दिन उसने कुलिङ्ग पक्षी के एक जोड़े को चारा चुगते देखा । उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फंसा लिया ॥ ५१ ॥ कालवश वह जाल के फंदों में फँस गयी । नर पक्षी को अपनी मादा की विपत्ति को देखकर बड़ा दुःख हुआ । वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेह से उस बेचारी के लिये विलाप करने लगा ॥ ५२ ॥ उसने कहा — ‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है; परन्तु है वह बड़ा निर्दयी । यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से छटपटा रही है । इसे लेकर वह करेगा क्या ॥ ५३ ॥ उसकी मौज हो तो मुझे ले जाय । इसके बिना में अपना यह अधूरा विधुर जीवन, जो दीनता और दुःख से भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा ॥ ५४ ॥ अभी मेरे अभागे बच्चों के पर भी नहीं जमे हैं । स्त्री के मर जाने पर उन मातृहीन बच्चों को मैं कैसे पालूँगा ? ओह ! घोंसले में वे अपनी माँ की बाट देख रहे होंगे’ ॥ ५५ ॥ इस तरह वह पक्षी वहुत-सा विलाप करने लगा । अपनी सहचरी के वियोग से वह आतुर हो रहा था । आँसुओं के मारे उसका गला रुँध गया था । तब तक काल की प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया ॥ ५६ ॥ मूर्ख रानियो ! तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है । तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो ! यदि तुमलोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी ॥ ५७ ॥

हिरण्यकशिपु ने कहा — उस छोटे-से बालक की ऐसी ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये । उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दुःख अनित्य एवं मिथ्या हैं ॥ ५८ ॥ यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये । भाई-बन्धुओं ने भी सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की ॥ ५९ ॥ इसलिये तुमलोग भी अपने लिये या किसी दुसरे के लिये शोक मत करो । इस संसार में कौन आत्मा है और कौन अपने से भिन्न ? क्या अपना है और क्या पराया ? प्राणियों को अज्ञान के कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि का और कोई कारण नहीं है ॥ ६० ॥

नारदजी ने कहा — युधिष्ठिर ! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मा में लगा दिया ॥ ६१ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.