March 25, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय ६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय छठा अध्याय प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश प्रह्लादजी ने कहा — मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ हैं । इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है । परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाय; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान् की प्राप्ति करानेवाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये ॥ १ ॥ इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान् के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है । क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियों के स्वामी, सुहद्, प्रियतम और आत्मा हैं ॥ २ ॥ भाइयो ! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो-जीव चाहे जिस योनि में रहे — प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करने पर भी दुःख मिलता है ॥ ३ ॥ इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है । क्योंकि स्वयं मिलनेवाली वस्तु के लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गंवाना है । जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान् के परम कल्याण-स्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती ॥ ४ ॥ हमारे सिर पर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं । इसलिये यह शरीर — जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है — जबतक रोग-शोकादिग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये ॥ ५ ॥ मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है । जिन्होंने अपनी इन्द्रियाँ को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है । क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण-अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं ॥ ६ ॥ बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूद में लग जाते हैं । इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता । जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती ॥ ७ ॥ रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु । उसमें कभी न पूरी होनेवाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखनेवाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता । इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है ॥ ८ ॥ दैत्यबालको ! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँसे हुए अपने आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके ॥ ९ ॥ जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वाञ्छनीय है — उस धन की तृष्णा को भला, कौन त्याग सकता है ॥ १० ॥ जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेमभरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रों के नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चुका हैं — भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ ११ ॥ जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुल-परम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला, उन्हें कैसे छोड़ सकता हैं ॥ १२ ॥ जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मोह की कोई सीमा नहीं हैं वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है ॥ १३ ॥ यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है । और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा हैं । भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है । यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है, परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं । फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता । कितनी विडम्बना है ! कुटुम्ब की ममता के फेर में पड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धन के चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है ॥ १४-१५ ॥ भाइयो ! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता है — कभी भगवद्भजन नहीं करता वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती । क्योंकि अपने-पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तमः प्रधान गति प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ जो कामिनियों के मनोरञ्जन का सामान उनका क्रीडामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब-चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो-किसी भी प्रकार से अपना उद्धार नहीं कर सकता ॥ १७ ॥ इसलिये, भाइयो ! तुमलोग विषयासक्त दैत्यों का सङ्ग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करो । क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं ॥ १८ ॥ मित्रो ! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता । क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ता के रूप में स्वयंसिद्ध वस्तु हैं ॥ १९ ॥ ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोटे-बड़े समस्त प्राणियों में, पञ्चभूतों से बनी हुई वस्तुओं में, पञ्चभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं । वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं ॥ २०-२१ ॥ वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूप में भी हैं । सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर भी द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक रूप में उनका निर्वचन किया जाता है । वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है ॥ २२ ॥ वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं । गुणमयी सृष्टि करनेवाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है । इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं ॥ २३ ॥ इसलिये तुमलोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो । प्रेम से उनकी भलाई करो । इसीसे भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ २४ ॥ आदिनारायण अनन्त भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती ? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती हैं — वे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलनेवाले हैं । जब हम श्रीभगवान् के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है ॥ २५ ॥ यों शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम — इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है । आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधन — ये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय है; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ । अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ॥ २६ ॥ यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगों को बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है । इसे पहले नर-नारायण ने नारदजी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान् के अनन्यप्रेमी एवं अकिञ्चन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है ॥ २७ ॥ यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है । इसे मैंने भगवान् का दर्शन करानेवाले देवर्षि नारदजी के मुंह से ही पहले-पहल सुना था ॥ २८ ॥ प्रहादजी के सहपाठियों ने पूछा — प्रह्लादजी ! इन दोनों गुरु-पुत्रों को छोड़कर और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम । ये ही हम सब बालकों के शासक हैं ॥ २९ ॥ तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे, जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो । तुम्हारा महात्मा नारदजी से मिलना कुछ असङ्गत-सा जान पड़ता है । प्रियवर ! यदि इस विषय में विश्वास दिलानेवाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शङ्का मिटा दो ॥ ३० ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related