श्रीमद्भागवतमहापुराण – सप्तम स्कन्ध – अध्याय ७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सातवाँ अध्याय
प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारदजी के उपदेश का वर्णन

नारदजी कहते हैं — युधिष्ठिर ! जब दैत्यबालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजी को मेरी बात का स्मरण हो आया । कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा ॥ १ ॥

प्रह्लादजी ने कहा — जब हमारे पिताजी तपस्या करने के लिये मन्दराचल पर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया ॥ २ ॥ वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सतानेवाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया ॥ ३ ॥ जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा । वे उनका सामना नहीं कर सके । मार खाकर, स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामान की कुछ भी चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये ॥ ४-५ ॥ अपनी जीत चाहनेवाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी । यहाँतक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधू को भी बन्दी बना लिया ॥ ६ ॥ मेरी माँ भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे । दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी माँ को देख लिया ॥ ७ ॥ उन्होंने कहा — “देवराज ! यह निरपराध है । इसे ले जाना उचित नहीं । महाभाग ! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो । इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो !’ ॥ ८ ॥

इन्द्र ने कहा — इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है । प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जाने पर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूंगा ॥ ९ ॥

नारदजी ने कहा — ‘इसके गर्भ में भगवान् का साक्षात परम प्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है । तुममें उसको मारने की शक्ति नहीं हैं ॥ १० ॥

देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया । और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त हैं, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये ॥ ११ ॥ इसके बाद देवर्षि नारदजी मेरी माता को अपने आश्रम पर लिवा गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि — ‘बेटी ! जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहीं रहो’ ॥ १२ ॥ जो आज्ञा’ कहकर यह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रम पर ही रहने लगी और तब तक रही, जब तक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये ॥ १३ ॥ मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मङ्गलकामना से और इच्छित समय पर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारदजी की सेवा-शुश्रूषा करती रही ॥ १४ ॥

देवर्षि नारदजी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं । उन्होंने मेरी माँ को भागवतधर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञान दोनों का उपदेश किया । उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझ पर भी थी ॥ १५ ॥ बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परन्तु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई ॥ १६ ॥ यदि तुमलोग मेरी इस बात पर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है । क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे ही समान शुद्ध हो सकती है ॥ १७ ॥ जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते, ठहरते, बढ़ते, पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं — वैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश — ये छः भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते है, आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है ॥ १८ ॥ आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं-प्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरणरहित है ॥ १९ ॥ ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं । इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जाननेवाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे ॥ २० ॥

जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि जाननेवाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्म-तत्त्व को जाननेवाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्मपद का साक्षात्कार कर लेता है ॥ २१ ॥ आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्राएँ — इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है । उनके तीन गुण हैं — सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह — दस इन्द्रियाँ, एक मन और पञ्चमहाभूत । इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है ॥ २२ ॥ इन सबका समुदाय ही देह है । यह दो प्रकार का हैं — स्थावर और जङ्गम । इसमें अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का यह आत्मा नहीं है — इस प्रकार बाध करते हुए आत्मा को ढूँढना चाहिये ॥ २३ ॥ आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक् । इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलय पर विचार करना चाहिये । उतावली नहीं ‘ करनी चाहिये ॥ २४ ॥

जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति — ये तीनों बुद्धि की वृत्तियाँ हैं । इन वृत्तियों का जिसके द्वारा अनुभव होता हैं — वहीं सबसे अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है ॥ २५ ॥ जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलनेवाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने ॥ २६ ॥ गुणों और कर्मों के कारण होनेवाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है । यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है । फिर भी स्वप्न के समान जीव को इसकी प्रतीति हो रही हैं ॥ २७ ॥

इसलिये तुमलोगों को सबसे पहले इन गुणों के अनुसार होनेवाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये । इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है । इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं ॥ २८ ॥ यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परन्तु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान् में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाय, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है । यह बात स्वयं भगवान् ने कही है ॥ २९ ॥ गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान् को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्सङ्ग भगवान् की आराधना, उनकी कथा-वार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर-मूर्ति आदिका दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान् में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ॥ ३०-३१ ॥

सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं — ऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे ॥ ३२ ॥ काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर — इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान् की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती हैं ॥ ३३ ॥ जब भगवान् के लीला शरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता हैं, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह सङ्कोच छोड़कर जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता हैं; जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और सङ्कोच छोड़कर ‘हरे ! जगत्पते !! नारायण !!!’ कहकर पुकारने लगता है — तब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार—भगवन्मय हो जाता है । उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेता है ॥ ३४-३६ ॥

इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जानेवाले जीव के लिये भगवान् की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देनेवाली है । इसी वस्तु को कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूप में पहचानते हैं । इसलिये मित्रो ! तुमलोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान् का भजन करो ॥ ३७ ॥ असुरकुमारो ! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान् का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है । वे समानरूप से समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं । उनको छोड़कर भोगसामग्री इकट्ठी करने के लिये भटकना — राम ! राम ! कितनी मूर्खता है ॥ ३८ ॥ अरे भाई ! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोगसामग्रियाँ इस क्षणभङ्गर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं । वे स्वयं ही क्षणभङ्गर हैं ॥ ३९ ॥ जैसे इस लोक की सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञों से प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक – एक दूसरे से छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं । इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं । निर्दोष है केवल परमात्मा । न किसने उनमें दोष देखा हैं और न सुना है; अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिये अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिये ॥ ४० ॥

इसके सिवा अपने को बड़ा विद्वान् माननेवाला पुरूष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार बहुत-से कर्म करता है, उस उद्देश्य की प्राप्ति तो दूर रही-उलटा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सन्देह मिलता है ॥ ४१ ॥ कर्म में प्रवृत्त होने के दो ही उद्देश्य होते हैं — सुख पाना और दुःख से छूटना । परन्तु जो पहले कामना न होने के कारण सुख में निमग्न रहता था, उसे ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दुःख हीं भोगना पड़ता है ॥ ४२ ॥ मनुष्य इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया-स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान् है । कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछड़ जाता है ॥ ४३ ॥ जब शरीर की ही यह दशा हैं — तब इससे अलग रहनेवाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी-घोड़े, मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलानेवाली तो बात ही क्या हैं ॥ ४४ ॥ ये तुच्छ विषय शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं । ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थ के समान, परन्तु हैं वास्तव में अनर्थरूप ही आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्द का महान् समुद्र है । उसके लिये इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता है ? ॥ ४५ ॥

भाइयो ! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगता है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है ॥ ४६ ॥ यह जीव सूक्ष्मशरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है । इस प्रकार कर्मों से शरीर और शरीर को कर्मों की परम्परा चल पड़ती है । और ऐसा होता है अविवेक के कारण ॥ ४७ ॥ इसलिये निष्काम भाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये । अर्थ, धर्म और काम सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते ॥ ४८ ॥ भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं । वे अपने ही बनाये हुए पञ्चभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं ॥ ४९ ॥ देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व–कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है ॥ ५० ॥

दैत्यबालको ! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है । भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं । और सब तो विडम्बनामात्र है ॥ ५१-५२ ॥ इसलिये दानव-बन्धुओं ! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो ॥ ५३ ॥ भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियों, शूद्र, गोपालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं ॥ ५४ ॥ इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे । उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन ॥ ५५ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे सप्तमोध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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