श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय ५
ॐ गणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार

सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! पिता के वन चले जानेपर एक दिन धुन्धुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा — ‘बता, धन कहाँ रखा है ? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी) से खबर लूँगा’ ।। १ ।। उसकी इस धमकी से डरकर और पुत्र के उपद्रवों से दुखी होकर वह रात्रि के समय कुएँ में जा गिरी और इसीसे उसकी मृत्यु हो गयी ॥ २ ॥ योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्रा के लिये निकल गये । उन्हें इन घटनाओं से कोई सुख या दुःख नहीं होता था; क्योंकि उनका न कोई मित्र था न शत्रु ॥३॥

धुन्धुकारी पाँच वेश्याओं के साथ घर में रहने लगा । उनके लिये भोग-सामग्री जुटाने की चिन्ता ने उसकी बुद्धि नष्ट कर दी और वह नाना प्रकार के अत्यन्त क्रूर कर्म करने लगा ।। ४ ।। एक दिन उन कुलटाओं ने उससे बहुत-से गहने माँगे । वह तो काम से अंधा हो रहा था, मौत की उसे कभी याद नहीं आती थी । बस, उन्हें जुटाने के लिये वह घर से निकल पड़ा ।। ५ ।। वह जहाँ-तहाँ से बहुत-सा धन चुराकर घर लौट आया तथा उन्हें कुछ सुन्दर वस्त्र और आभूषण लाकर दिये ।। ६ ।। चोरी का बहुत माल देखकर रात्रि के समय स्त्रियों ने विचार किया कि यह नित्य ही चोरी करता है, इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ लेगा ।। ७ ।। राजा यह सारा धन छीनकर इसे निश्चय हो प्राणदण्ड देगा । जब एक दिन इसे मरना ही है, तब हम ही धन की रक्षा के लिये गुप्तरूप से इसको क्यों न मार डालें ।। ८ ॥ इसे मारकर हम इसका माल-मता लेकर जहां-कहीं चली जायेंगी । ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारी को रस्सियों से कस दिया और उसके गले में फाँसी लगाकर उसे मारने का प्रयत्न किया । इससे जब वह जल्दी न मरा, तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई ।। ९-१० ।। तब उन्होंने उसके मुखपर बहुत-से दहकते अँगारे डाले; इससे वह अग्नि लपटों से बहुत छटपटाकर मर गया ।। ११ ॥ उन्होंने उसके शरीर को एक गड्ढे में डालकर गाड़ दिया । सच है, स्त्रियाँ प्रायः बड़ी दुःसाहसी होती है । उनके इस कृत्य को किसी को भी पता न चला ।। १२ ।। लोगों के पूछने पर कह देती थीं कि ‘हमारे प्रियतम पैसे के लोभ से अबकी बार कहीं दूर चले गये हैं, इसी वर्ष के अंदर लौट आयेंगे ॥ १३ ।। बुद्धिमान् पुरुष को दुष्टा स्त्रियों का कभी विश्वास न करना चाहिये । जो मूर्ख इनका विश्वास करता हैं, उसे दुःखी होना पड़ता है ॥ १४ ॥ इनकी वाणी तो अमृत के समान कामियों के हृदय में रस का सञ्चार करती हैं । किन्तु हृदय छुरे की घार के समान तीक्ष्ण होता है । भला, इन स्त्रियों का कौन प्यारा है ? ॥ १५॥

वे कुलटाएँ धुन्धुकारी की सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँ से चम्पत हो गयीं; उनके ऐसे न जाने कितने पति थे और धुन्धुकारी अपने कुकर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ ॥ १६ ॥ वह बवंडर के रूप में सर्वदा दसों दिशाओं में भटकता रहता था तथा शीत-घाम से सन्तप्त और भूख-प्यास से व्याकुल होने के कारण ‘हा दैव! हा देव !’ चिल्लाता रहता था । परन्तु उसे कहीं भी कोई आश्रय न मिला । कुछ काल बीतने पर गोकर्ण ने भी लोगों के मुख से धुन्धुकारी की मृत्यु का समाचार सुना ।। १७-१८ ॥ तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसका गयाजी में श्राद्ध किया; और भी जहाँ-जहाँ वे जाते थे, उसका श्राद्ध अवश्य करते थे ॥ १९ ॥

इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्णजी अपने नगर में आये और रात्रि के समय दूसरों की दृष्टि से बचकर सीधे अपने घर आँगन में सोने के लिये पहुँचे ॥ २० ।। वहाँ अपने भाई को सोया देख आधी रात के समय धुन्धुकारी ने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया ॥ २१ ।। वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्नि का रूप धारण करता । अन्त में वह मनुष्य के आकार में प्रकट हुआ ॥ २२ ॥ ये विपरीत अवस्थाएँ देखकर गोकर्ण ने निश्चय किया कि यह कोई दुर्गति को प्राप्त हुआ जीव है । तब उन्होंने उससे धैर्यपूर्वक पूछा ॥ २३॥

गोकर्ण ने कहा — तू कौन है ? रात्रि के समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है ? तेरी यह दशा कैसे हुई ? हमें बता तो सही— तू प्रेत है, पिशाच है अथवा कोई राक्षस हे ? ॥ २४ ॥

सूतजी कहते हैं — गोकर्ण के इस प्रकार पूछने पर वह बार-बार जोर-जोर से रोने लगा । उसमें बोलने की शक्ति नहीं थी, इसलिये उसने केवल संकेतमात्र किया ॥ २५ ॥ तब गोकर्ण ने अञ्जलि में जल लेकर उसे अभिमन्त्रित करके उसपर छिड़का । इससे उसके पापों का कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा ।। २६ ।।

प्रेत बोला — ‘मैं तुम्हारा भाई हूँ । मेरा नाम है धुन्धुकारी । मैंने अपने ही दोष से अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया ॥ २७ ॥ मेरे कुकर्मों की गिनती नहीं की जा सकती । मैं तो महान् अज्ञान में चक्कर काट रहा था । इसीसे मैंने लोगों की बड़ी हिंसा की । अन्त में कुलटा स्त्रियों ने मुझे तड़पा-तड़पाकर मार डाला ॥ २८ ॥ इससे अब प्रेत-योनि में पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ । अब दैववश कर्मफल का उदय होने से में केवल वायुभक्षण करके जी रहा हूँ ॥ २९ ॥ भाई ! तुम दया के समुद्र हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनि से छुड़ाओ ।’ गोकर्ण ने धुन्धुकारी की सारी बातें सुनीं और तब उससे बोले ॥ ३० ॥

गोकर्ण ने कहा — भाई ! मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है-मैंने तुम्हारे लिये विधिपूर्वक गयाजी में पिण्डदान किया, फिर भी तुम प्रेतयोनि से मुक्त कैसे नहीं हुए ? ॥ ३१ ।। यदि गया-श्राद्ध से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई, तब इसका और कोई उपाय ही नहीं है । अच्छा, तुम सब बात खोलकर कहो— मुझे अब क्या करना चाहिये ? ॥ ३२ ।।

प्रेत ने कहा — मेरी मुक्ति सैकड़ों गया-श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती । अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो ।। ३३ ॥

प्रेत की यह बात सुनकर गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ । वे कहने लगे— ‘यदि सैकड़ों गया-श्राद्धों से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है ॥ ३४ ॥ अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो; में विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिये कोई दूसरा उपाय करूंगा” ॥ ३५ ॥

गोकर्ण की आज्ञा पाकर धुन्धुकारी वहाँ से अपने स्थानपर चला आया । इधर गोकर्ण ने रातभर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा ।। ३६ ॥ प्रातःकाल उनको आया देख लोग प्रेम से उनसे मिलने आये । तब गोकर्ण ने रात में जो कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह सब उन्हें सुना दिया ।। ३७ ।। उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और वेदज्ञ थे. उन्होंने भी अनेकों शास्त्रों को उलट-पलटकर देखा; तो भी उसकी मुक्ति का कोई उपाय न मिला ।। ३८ ॥ तब सबने यही निश्चय किया कि इस विश्व में सूर्यनारायण जो आज्ञा करें, वही करना चाहिये । अतः गोकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया ।। ३९ ॥ उन्होंने स्तुति की — ‘भगवन् ! आप सारे संसार के साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ । आप मुझे कृपा करके धुन्धुकारी की मुक्ति का साधन बताइये ।’ गोकर्ण की यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दों में कहा — ‘श्रीमद्भागवत से मुक्ति हो सकती हैं, इसलिये तुम उसका सप्ताह-पारायण करो ।’ सूर्य का यह धर्ममय वचन वहाँ सभीने सुना ।। ४०-४१ ॥ तब सबने यही कहा कि ‘प्रयत्नपूर्वक यही करो, है भी यह साधन बहुत सरल ।’ अतः गोकर्णजी भी तदनुसार निश्चय करके कथा सुनाने के लिये तैयार हो गये ॥ ४२ ॥

देश और गाँवो से अनेकों लोग कथा सुनने के लिये आये । बहुत-से लँगड़े-लूले, अंधे, बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापों की निवृत्ति के उद्देश्य से वहाँ आ पहुँचे ।। ४३॥ इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो गयीं कि उसे देखकर देवताओं को भी आश्चर्य होता था । जब गोकर्णजी व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर बैठने के लिये स्थान ढूँढ़ने लगा । इतने में ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात ‘गाँठ के बाँस पर पड़ी ।। ४४-४५ ।। उसीके नीचे के छिद्र में घुसकर वह कथा सुनने के लिये बैठ गया । वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था, इसलिये बाँस में घुस गया ।। ४६ ॥ | गोकर्णजी ने एक वैष्णव ब्राह्मण को मुख्य श्रोता बनाया और प्रथमस्कन्ध से ही स्पष्ट स्वर में कथा सुनानी आरम्भ कर दी ।। ४७ ।।

सायंकाल में जब कथा को विश्राम दिया गया, तब एक बड़ी विचित्र बात हुई । वहाँ सभासदों के देखते-देखते उस बाँस की एक गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गयीं ।। ४८ ॥ इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकाल में दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी ॥ ४९ ।। इस प्रकार सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर धुन्धुकारी बारहों स्कन्धों के सुनने से पवित्र होकर प्रेतयोनि से मुक्त हो गया और दिव्यरूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ । उसका मेघ के समान श्याम शरीर पीताम्बर और तुलसी की मालाओं से सुशोभित था तथा सिर पर मनोहर मुकुट और कानों में कमनीय कुण्डल झिलमिला रहे थे ।। ५०-५१ ॥ उसने तुरंत अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम करके कहा — ‘भाई ! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया ।। ५२ ।। यह प्रेतपीड़ा का नाश करनेवाली श्रीमद्भागवत कथा धन्य है तथा श्रीकृष्णचन्द्र धाम की प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताह-पारायण भी धन्य है ! ।। ५३ ।। जब सप्ताहश्रवण का योग लगता है, तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवत की कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी ॥ ५४ ॥ जिस प्रकार आग गीली-सूखी, छोटी-बड़ी-सब तरह की लकड़ियों को जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताह-श्रवण मन, वचन और कर्म द्वारा किये हुए नये-पुराने, छोटे-बड़े सभी प्रकार के पापों को भस्म कर देता है ॥ ५५॥

विद्वानों ने देवताओं की सभा में कहा है कि जो लोग इस भारतवर्ष में श्रीमद्भागवत की कथा नहीं सुनते, उनका जन्म वृथा ही है ॥ ५६ ।। भला, मोहपूर्वक लालन-पालन करके यदि इस अनित्य शरीर को हृष्ट-पुष्ट और बलवान् भी बना लिया तो भी श्रीमद्भागवत की कथा सुने बिना इससे क्या लाभ हुआ ? ।। ५७ ॥ अस्थियाँ ही इस शरीर के आधारस्तम्भ हैं, नस-नाडी रूप रस्सियों से यह बँधा हुआ है, ऊपर से इसपर मांस और रक्त थोपकर इसे चर्म से मँढ़ दिया गया है । इसके प्रत्येक अङ्ग में दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह मल-मूत्र का भाण्ड ही ॥ ५८ ॥ वृद्धावस्था और शोक के कारण यह परिणाम में दुःखमय ही है, रोगों का तो घर ही ठहरा । यह निरन्तर किसी-न-किसी कामना से पीड़ित रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती । इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है । इसके रोम-रोम में दोष भरे हुए हैं और नष्ट होने में इसे एक क्षण भी नहीं लगता ।। ५९ ॥ अन्त में यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं । कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्नि में जला दिया जाता है तो भस्म की ढेरी हो जाता है । ये तीन ही इसकी गतियाँ बतायी गयी हैं । ऐसे अस्थिर शरीर से मनुष्य अविनाशी फल देनेवाला काम क्यों नहीं बना लेता ? ॥ ६० ॥ जो अन्न प्रातःकाल पकाया जाता है, वह सायंकाल तक बिगड़ जाता है, फिर उसीके रस से पुष्ट हुए शरीर की नित्यता कैसी ॥ ६१ ।।

इस लोक में सप्ताहश्रवण करने से भगवान् की शीघ्र ही प्राप्ति हो सकती है । अतः सब प्रकार के दोषों की निवृत्ति के लिये एकमात्र यहीं साधन है ।। ६२ ।। जो लोग भागवत की कथा से वञ्चित हैं, वे तो जल में बुदबुदे और जीवों में मच्छरों के समान केवल मरने के लिये ही पैदा होते हैं ।। ६३ ॥ भला, जिसके प्रभाव से जड़ और सूखे हुए बाँस की गाँठं फट सकती है, उस भागवतकथा का श्रवण करने से चित्त की गाँठों का खुल जाना कौन बड़ी बात है ॥ ६४ ।। सप्ताह-श्रवण करने से मनुष्य के हृदय की गाँठ खुल जाती हैं, उसके समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं ।। ६५ ॥ यह भागवतकथारूप तीर्थ संसार के कीचड़ को धोने में बड़ा ही पटु हैं । विद्वानों का कथन है कि जब यह हृदय में स्थित हो जाता हैं, तब मनुष्य की मुक्ति निश्चित ही समझनी चाहिये ।। ६६ ।।

जिस समय धुन्धुकारी ये सब बातें कह रहा था, जिसके लिये वैकुण्ठवासी पार्षदों के सहित एक विमान उतरा; उससे सब ओर मण्डलाकार प्रकाश फैल रहा था ॥ ६७ ॥ सब लोगों के सामने ही धुन्धुकारी उस विमान पर चढ़ गया । तब उस विमान पर आये हुए पार्षदों को देखकर उनसे गोकर्ण ने यह बात कही ।। ६८ ॥

गोकर्ण ने पूछा — भगवान् के प्रिय पार्षदो ! यहाँ तो हमारे अनेकों शुद्धहृदय श्रोतागण हैं, उन सबके लिये आपलोग एक साथ बहुत-से विमान क्यों नहीं लाये ? हम देखते हैं कि यहाँ सभी ने समानरूप से कथा सुनी है, फिर फल में इस प्रकार का भेद क्यों हुआ, यह बताइये ।। ६९-७० ।।

भगवान् के सेवकों ने कहा — हे मानद ! इस फलभेद का कारण इनके श्रवण का भेद ही है । यह ठीक हैं कि श्रवण तो सबने समानरूप से ही किया है, किन्तु इसके जैसा मनन नहीं किया । इसीसे एक साथ भजन करनेपर भी उसके फल में भेद रहा ॥ ७१ ।। इस प्रेत ने सात दिनों तक निराहार रहकर श्रवण किया था, तथा सुने हुए विषय का स्थिरचित्त से यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था ।। ७२ ॥ जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है । इसी प्रकार ध्यान न देने से श्रवण का, संदेह से मल का और चित्त के इधर-उधर भटकते रहने से जप में भी कोई फल नहीं होता ।। ७३ ॥ वैष्णवहीन देश, अपात्र को कराया हुआ श्राद्ध का भोजन, अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान एवं आचारहीन कुल — इन सबका नाश हो जाता है ॥ ७४ ।। गुरुवचनों में विश्वास, दीनता का भाव, मन के दोषों पर विजय और कथा में चित्त की एकाग्रता इत्यादि नियमों का यदि पालन किया जाय तो श्रवण का यथार्थ फल मिलता है । यदि ये श्रोता फिर से श्रीमद्भागवत की कथा सुनें तो निश्चय ही सबको वैकुण्ठ की प्राप्ति होगी ।। ७५-७६ ॥ और गोकर्णजी ! आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोकधाम में ले जायेंगे । यों कहकर वे सब पार्षद हरिकीर्तन करते वैकुण्ठलोक को चले गये ॥ ७ ॥

श्रावण मास में गोकर्णजी ने फिर उसी प्रकार सप्ताहक्रम से कथा कही और उन श्रोताओं ने उसे फिर सुना ।। ७८ ॥ नारदजी ! इस कथा की समाप्तिपर जो कुछ हुआ, वह सुनिये ।। ७९ ॥ वहाँ भक्तों से भरे हुए विमानों के साथ भगवान् प्रकट हुए । सब ओर से खूब जय-जयकार और नमस्कार की ध्वनियाँ होने लगीं ॥ ८० ॥ भगवान् स्वयं हर्षित होकर अपने पाञ्चजन्य शङ्ख की ध्वनि करने लगे और उन्होंने गोकर्ण को हृदय से लगाकर अपने ही समान बना लिया ॥ ८१ ।। उन्होंने क्षणभर में ही अन्य सब श्रोताओं को भी मेघ के समान श्यामवर्ण, रेशमी पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलादि से विभूषित कर दिया ।। ८२ ॥ उस गाँव में कुते और चाण्डाल पर्यन्त जितने भी जीव थे, वे सभी गोकर्णजी की कृपा से विमानों पर चढ़ा लिये गये ॥ ८३ ॥ तथा जहाँ योगिजन जाते हैं, उस भगवद्धाम में वे भेज दिये गये । इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण कथाश्रवण से प्रसन्न होकर गोकर्णजी को साथ ले अपने ग्वालबालों के प्रिय गोलोकधाम में चले गये ।। ८४ ॥ पूर्वकाल में जैसे अयोध्यावासी भगवान् और श्रीराम के साथ साकेतधाम सिधारे थे, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण उन सबको योगिदुर्लभ गोलोकधाम को ले गये ॥ ८५ ॥ जिस लोक में सूर्य, चन्द्रमा और सिद्धों की भी कभी गति नहीं हो सकती, उसमें वे श्रीमद्भागवत श्रवण करने से चले गये ॥ ८६ ॥

नारदजी ! सप्ताहयज्ञ के द्वारा कथा-श्रवण करने से जैसा उज्ज्वल फल संचित होता है, उसके विषय में हम आपसे क्या कहें ? अजी ! जिन्होंने अपने कर्णपुट से गोकर्णजी की कथा के एक अक्षर का भी पान किया था, वे फिर माता के गर्भ में नहीं आये ॥ ८७ ॥ जिस गति को लोग वायु, जल या पते खाकर शरीर सुखाने से, बहुत कालतक घोर तपस्या करने से और योगाभ्यास से भी नहीं पा सकते, उसे वे सप्ताहश्रवण से सहज में ही प्राप्त कर लेते हैं ।। ८८ ॥ इस परम पवित्र इतिहास का पाठ चित्रकूटपर विराजमान मुनीश्वर शाण्डिल्य भी ब्रह्मानन्द में मग्न होकर करते रहते हैं ॥ ८९ ॥ यह कथा बड़ी ही पवित्र है । एक बार के श्रवण से ही समस्त पापराशि को भस्म कर देती है । यदि इसका श्राद्ध के समय पाठ किया जाय, तो इससे पितृगणों को बड़ी तृप्ति होती है और नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं ॥ १० ॥

॥ श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये गोकर्णमोक्षवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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6. श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय १
7. श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय २
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