Print Friendly, PDF & Email

॥ श्रीराधास्तोत्रं ब्रह्मेशशेषादिकृतम् ॥
॥ अथ ब्रह्मेशशेषादिकृतम् श्रीराधास्तोत्रम् ॥

॥ ब्राह्मोवाच ॥

षष्टिवर्षसहस्राणि दिव्यानि परमेश्वरि ।
पुष्करे च तपस्तप्तं पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ १ ॥

त्वत्पादपद्ममधुरमधुलुब्धेन चेतसा ।
मधुव्रतेन लोभेन प्रेरितेन मया सति ॥ २ ॥

तथापि न मया लब्धं त्वद्पादपदमीप्सितम् ।
न दृष्टमपि स्वप्नेऽपि जाता वागशरीरिणी ॥ ३ ॥

वाराहे भारते वर्षे पुण्ये वृन्दावने वने ।
सिद्धाश्रमे गणेशस्य पादपद्मं च द्रक्ष्यसि ॥ ४ ॥

राधामाधवयोर्दास्यं कुतो विषयिणस्तव ।
निवर्तस्व महाभाग परमेतत् सुदुर्लभम् ॥ ५ ॥

इति श्रुत्वा निवृत्तोऽहं तपसे भग्नमानसः ।
परिपुर्णं तदधुना वाञ्छितं तपसः फलम् ॥ ६ ॥

॥ श्रीमहादेव उवाच ॥

पद्मैः पद्मार्चितं पादपद्मं यस्य सुदुर्लभम् ।
ध्यायन्ते ध्याननिष्टाश्च शश्वद् ब्रह्मादयः सुराः ॥ ७ ॥
मुनयो मनवश्चैव सिद्धाः सन्तश्च योगिनः ।
द्रष्टुं नैव क्षमाः स्वप्ने भवती तस्य वक्षसि ॥ ८ ॥

॥ अनन्त उवाच ॥

वेदाश्च वेदमाता च पुराणानि च सुव्रते ।
अहं सरस्वती सन्तः स्तोतुं नालं च सन्ततम् ॥ ९ ॥
अस्माकं स्तवने यस्य भ्रभङ्गश्च सुदुर्लभभः ।
तवैव भर्त्सने भीतश्चावयोरन्तरं हरिः ॥ १० ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते ब्रहोशशेषादिकृतं श्रीराधास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
(श्रीकृष्णजन्मखण्ड १२३। ९८–१०७)

ब्रह्मा बोले — परमेश्वरि ! मेरा चित्त तुम्हारे पादपद्म के मधुर मधु में लुब्ध हो गया था; अतः उस मधुव्रत के लोभ से प्रेरित होकर मैंने पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में स्थित पुष्कर तीर्थ में जाकर साठ हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या की; तथापि तुम्हारा अभीष्ट चरणकमल मुझे प्राप्त नहीं हुआ । यहाँतक कि मुझे स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं हुआ । तब उस समय यों आकाशवाणी हुई — ‘ब्रह्मन् ! वाराहकल्प में भारतवर्ष में वृन्दावन नामक पुण्यवन में स्थित सिद्धाश्रम’ में तुम्हें गणेश के चरणकमल का दर्शन होगा । तुम तो विषयी हो, अतः तुम्हें राधा-माधव की दासता कहाँ से प्राप्त होगी ? इसलिये महाभाग ! तुम उससे निवृत्त हो जाओ; क्योंकि वह परम दुर्लभ है । यो सुनकर मेरा मन टूट गया और मैं उस तपस्या से विरत हो गया । पर उस तपस्या के फलस्वरूप मेरा वह मनोरथ आज परिपूर्ण हो गया ।

श्रीमहादेवजी ने कहा — देवि ! ब्रह्मा आदि देवता, मुनिगण, मनु, सिद्ध, संत और योगीलोग ध्याननिष्ठ हो जिनके चरणकमल का, जो पद्मा द्वारा कमल-पुष्पों से समर्थित एवं अत्यन्त दुर्लभ है, निरन्तर ध्यान करते रहते हैं; परंतु स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं कर पाते, तुम उन्हीं के वक्षः-स्थल पर वास करनेवाली हो ।

अनन्त बोले — सुव्रते ! वेद, वेदमाता, पुराण, मैं ( शेषनाग ), सरस्वती और संतगण तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं ।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.