October 5, 2015 | Leave a comment श्रीविष्णुकृतं गणेश स्तोत्रम् नारायण उवाच अथ विष्णुः सभामध्ये सम्पूज्य तं गणेश्वरम् । तुष्टाव परया भक्तया सर्वविघ्नविनाशकम् ।।१ श्रीविष्णुरुवाच ईश त्वां स्तोतुमिच्छामि ब्रह्मज्योतिः सनातनम् । निरुपितुमशक्तोऽहमनुरुपमनीहकम् ।।२ प्रवरं सर्वदेवानां सिद्धानां योगिनां गुरुम् । सर्वस्वरुपं सर्वेशं ज्ञानराशिस्वरुपिणम् ।।३ अव्यक्तमक्षरं नित्यं सत्यमात्मस्वरुपिणम् । वायुतुल्यातिनिर्लिप्तं चाक्षतं सर्वसाक्षिणम् ।।४ संसारार्णवपारे च मायापोते सुदुर्लभे । कर्णधारस्वरुपं च भक्तानुग्रहकारकम् ।।५ वरं वरेण्यं वरदं वरदानामपीश्वरम् । सिद्धं सिद्धिस्वरुपं च सिद्धिदं सिद्धिसाधनम् ।।६ ध्यानातिरिक्तं ध्येयं च ध्यानासाध्यं च धार्मिकम् । धर्मस्वरुपं धर्मज्ञं धर्माधर्मफलप्रदम् ।।७ बीजं संसारवृक्षाणामङ्कुरं च तदाश्रयम् । स्त्रीपुन्नपुंसकानां च रुपमेतदतीन्द्रियम् ।।८ सर्वाद्यमग्रपूज्यं च सर्वपूज्यं गुणार्णवम् । स्वेच्छया सगुणं ब्रह्म निर्गुणं चापि स्वेच्छया ।।९ स्वयं प्रकृतिरुपं च प्राकृतं प्रकृतेः परम् । त्वां स्तोतुमक्षमोऽनन्तः सहस्त्रवदनेन च ।।१० न क्षमः पञ्चवक्त्रश्च न क्षमश्चतुराननः । सरस्वती न शक्ता च न शक्तोऽहं तव स्तुतौ ।। न शक्ताश्च चतुर्वेदाः के वा ते वेदवादिनः ।।११ इत्येवं स्तवनं कृत्वा सुरेशं सुरसंसदि । सुरेशश्च सुरैः सार्द्धं विरराम रमापतिः ।।१२ इदं विष्णुकृतं स्तोत्रं गणेशस्य च यः पठेत् । सायंप्रातश्च मध्याह्ने भक्तियुक्तः समाहितः ।।१३ तद्विघ्ननिघ्नं कुरुते विघ्नेशः सततं मुने । वर्धते सर्वकल्याणं कल्याणजनकः सदा ।।१४ यात्राकाले पठित्वा तु यो याति भक्तिपूर्वकम् । तस्य सर्वाभीष्टसिद्धिर्भवत्येव न संशयः ।।१५ तेन दृष्टं दुःस्वप्नं सुस्वप्नमुपजायते । कदापि न भवेत्तस्य ग्रहपीडा च दारूणा ।।१६ भवेद् विनाशः शत्रूणां बन्धूनां च विवर्धनम् । शश्वद्विघ्न-विनाशश्च शश्वत् सम्पद्विवर्धनम् ।।१७ स्थिरा भवेद् गृहे लक्ष्मीः पुत्रपौत्रविवर्धनी । सर्वैश्वर्यमिह प्राप्य ह्यन्ते विष्णुपदं लभेत् ।।१८ फलं चापि च तीर्थानां यज्ञानां यद् भवेद् ध्रुवम् । महतां सर्वदानानां श्रीगणशेप्रसादतः ।।१९ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे श्रीविष्णुकृतं गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ (गणपतिखण्ड १३। ४०-५८) भावार्थ – श्रीनारायणजी कहते हैं – नारद ! तदनन्तर उस सभा के बीच विष्णु परमभक्तिपूर्वक सम्पूर्ण विघ्नों के विनाशक उन गणेश्वर की भलीभाँति पूजा करके उनकी स्तुति करने लगे । श्रीविष्णु ने कहा – ईश ! मैं सनातन ब्रह्म-ज्योतिःस्वरुप आपका स्तवन करना चाहता हूँ, परन्तु आपके अनुरुप निरुपण करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ; क्योंकि आप इच्छा-रहित, सम्पूर्ण देवों में श्रेष्ठ, सिद्धों और योगियों के गुरु, सर्व-स्वरुप, सर्वेश्वर, ज्ञानराशि-स्वरुप, अव्यक्त, अविनाशी, नित्य, सत्य, आत्म-स्वरुप, वायु के समान अत्यन्त निर्लेप, क्षतरहित, सबके साक्षी, संसार-सागर से पार होने के लिये परम दुर्लभ मायारुपी नौका के कर्णधार-स्वरुप, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले, श्रेष्ठ, वरणीय, वरदाता, वरदानियों के भी ईश्वर, सिद्ध, सिद्धि-स्वरुप, सिद्धिदाता, सिद्धि के साधन, ध्यान के अतिरिक्त ध्येय, ध्यान द्वारा असाध्य, धार्मिक, धर्म-स्वरुप, धर्म के ज्ञाता, धर्म और अधर्म का फल प्रदान करने वाले, संसार-वृक्ष के बीज, अंकुर और उसके आश्रय, स्त्री-पुरुष और नपुंसक के स्वरुप में विराजमान तथा इनकी इन्द्रियों से परे, सबके आदि, अग्र-पूज्य, सर्व-पूज्य, गुण के सागर, स्वेच्छा से सगुण ब्रह्म तथा स्वेच्छा से ही निर्गुण ब्रह्म का रुप धारण करने वाले, स्वयं प्रकृतिरुप और प्रकृति से परे प्राकृतरुप हैं । शेष अपने सहस्त्रों मुखों से भी आपकी स्तुति करने में असमर्थ है । आपके स्तवन में न पञ्चमुख महेश्वर समर्थ है, न चतुर्मुख ब्रह्मा ही; न सरस्वती की शक्ति है और न मैं ही कर सकता हूँ । न चारों वेदों की ही शक्ति है, फिर उन वेदवादियों की क्या गणना ? इस प्रकार देवसभा में देवताओं के साथ सुरेश्वर गणेश की स्तुति करके सुराधीश रमापति मौन हो गये । मुने ! जो मनुष्य एकाग्रचित्त हो भक्तिभाव से प्रातः, मध्याह्न और सायं-काल इस विष्णुकृत गणेश-स्तोत्र का सतत पाठ करता है, विघ्नेश्वर उसके समस्त विघ्नों का विनाश कर देते हैं, सदा उसके सब कल्याणों की वृद्धि होती है और वह स्वयं कल्याण-जनक हो जाता है । जो यात्राकाल में भक्तिपूर्वक इसका पाठ करके यात्रा करता है, निस्संदेह उसकी सभी अभीप्सित कामनाएँ सिद्ध हो जाती है । उसके द्वारा देखा गया दुःस्वप्न सुस्वप्न में परिणत हो जाता है । उसे कभी दारूण ग्रहपीड़ा नहीं भोगनी पड़ती । उसके शत्रुओं का विनाश और बन्धुओं का विशेष उत्कर्ष होता है । निरन्तर विघ्नों का क्षय और सदा सम्पत्ति की वृद्धि होती रहती है । उसके घर में पुत्र-पोत्रों को बढ़ाने वाली लक्ष्मी स्थिर रुप से वास करती है । वह इस लोक में सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का भागी होकर अन्त में विष्णु-पद को प्राप्त हो जाता है । तीर्थों, यज्ञों और सम्पूर्ण महादानों से जो फल मिलता है, वह उसे श्रीगणेश की कृपा से प्राप्त हो जाता है – यह ध्रुव-सत्य है । Related