July 18, 2019 | Leave a comment ॥ श्रीशिवापराधक्षमापणस्तोत्रम् अथवा शिवापराधभञ्जनस्तोत्रम् ॥ आदौ कर्मप्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदाः । यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ १ ॥ बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिताः जन्तवो मां तुदन्ति । नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शङ्करं न स्मरामि क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ २ ॥ प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पञ्चभिर्मर्मसन्धौ दष्टो नष्टोऽविवेकः सुतधनयुवतिस्वादुसौख्ये निषण्णः । शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ३ ॥ वार्द्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढहीनं च दीनम् । मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ४ ॥ नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गेऽसुसारे । ज्ञातो धर्मे विचारः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ५ ॥ स्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधौ नाहृतं गाङ्गतोयं पूजार्थं वा कदाचिद्बहुतरगहनात्खण्डबिल्वीदलानि । नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धधूपैः त्वदर्थं क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ६ ॥ दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिङ्गं नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः । धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ७ ॥ ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो हव्यं ते लक्षसङ्ख्यैर्हुतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः । नो तप्तं गाङ्गतीरे व्रतजपनियमैः रुद्रजाप्यैर्न वेदैः क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ८ ॥ स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुण्डले (कुम्भके) सूक्ष्ममार्गे शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपेऽपराख्ये । लिङ्गज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शङ्करं न स्मरामि क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ ९ ॥ नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित् । उन्मन्याऽवस्थया त्वां विगतकलिमलं शङ्करं न स्मरामि क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ॥ १० ॥ चन्द्रोद्भासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शङ्करे सर्पैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे । दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥ ११ ॥ किं वाऽनेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् । ज्ञात्वैतत्क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज मन श्रीपार्वतीवल्लभम् ॥ १२ ॥ आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः । लक्ष्मीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवितं तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥ १३ ॥ करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम् । विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्ष्मस्व शिव शिव करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥ १४ ॥ ॥ इति श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत शिवापराधक्षमापणस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ हिन्दी भावार्थः- पहले कर्मप्रसंग से किया हुआ पाप मुझे माता की कुक्षि में ला बिठाता है, फिर उस अपवित्र विष्ठा-मूत्र के बीच जठराग्नि खुब संतप्त करता है । वहाँ जो-जो दु:ख निरन्तर व्यथित करते रहते हैं, उन्हें कौन कह सकता है ? हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ १ ॥ बाल्यावस्था में दुःख की अधिकता रहती थी, शरीर मल-मूत्र से लिथड़ा रहता था और निरन्तर स्तनपान की लालसा रहती थी; इन्द्रियों में कोई कार्य करने की सामर्थ्य न थी; शैवी माया से उत्पन्न हुए नाना जन्तु मुझे काटते थे; नाना रोगादि दुःखों के कारण मैं रोता ही रहता था, (उस समय भी) मुझसे शंकर का स्मरण नहीं बना, इसलिये हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ २ ॥ जब मैं युवा-अवस्था में आकर प्रौढ हुआ तो पाँच विषयरूपी सर्पों ने मेरे मर्मस्थानों में डँसा, जिससे मेरा विवेक नष्ट हो गया और मैं धन, स्त्री और संतान के सुख भोगने में लग गया । उस समय भी आपके चिन्तन को भूलकर मेरा हृदय बड़े घमण्ड और अभिमान से भर गया । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ ३ ॥ वृद्धावस्था में भी, जब इन्द्रियों की गति शिथिल हो गयी है, बुद्धि मन्द पड़ गयी है और आधिदैविकादि तापों, पापों, रोगों और वियोगों से शरीर जर्जरित हो गया है, मेरा मन मिथ्या मोह और अभिलाषाओं से दुर्बल और दीन होकर (आप) श्रीमहादेवजी के चिन्तन से शून्य ही भ्रम रहा है । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ ४ ॥ पद-पद पर अति गहन प्रायश्चित्तों से व्याप्त होने के कारण मुझसे तो स्मार्तकर्म भी नहीं हो सकते, फिर जो द्विजकुल के लिये साररूप में विहित हैं, उन ब्रह्मप्राप्ति के मार्गस्वरूप पूर्णतः प्रमाणित श्रौतकर्मो की तो बात ही क्या है ? धर्म में आस्था नहीं है और श्रवण-मनन के विषय में विचार ही नहीं होता, निदिध्यासन (ध्यान) भी कैसे किया जाय ? अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ ५ ॥ प्रातःकाल स्नान करके आपका अभिषेक करने के लिये मैं गंगाजल लेकर प्रस्तुत नहीं हुआ, न कभी आपकी पूजा के लिये वन से बिल्वपत्र ही लाया और न आपके लिये तालाब में खिले हुए कमलों की माला तथा गन्ध-पुष्प ही लाकर अर्पण किये । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ ६ ॥ मधु, घृत, दधि और शर्करायुक्त दूध (पंचामृत)-से मैंने आपके लिंग को स्नान नहीं कराया; चन्दन आदि से अनुलेपन नहीं किया; धतूरे के खिले हुए फूलों, धूप, दीप, कपूर तथा नाना रसों से युक्त नैवेद्यों द्वारा पूजन भी नहीं किया । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो! ॥ ७ ॥ मैंने चित में शिव नामक आपका स्मरण करके ब्राह्मणों को प्रचुर धन नहीं दिया, न आपके एक लक्ष बीजमन्त्र द्वारा अग्नि में आहुतियाँ दी और न व्रत एवं जप के नियम से तथा रुद्रजाप और वेदविधि से गंगातट पर कोई साधना ही की । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ ८ ॥ जिस सूक्ष्ममार्गप्राप्य सहस्रदल कमल में पहुँचकर प्राणसमूह प्रणवनाद में लीन हो जाते हैं और जहाँ जाकर वेद के वाक्यार्थ तथा तात्पर्यभूत पूर्णतया आविर्भूत ज्योतिरूप शान्त परमतत्त्व में लीन हो जाता है, उस कमल में स्थित होकर मैं सर्वान्तर्यामी कल्याणकारी आपका स्मरण नहीं करता हूँ । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ ९ ॥ नग्न, निःसंग, शुद्ध और त्रिगुणातीत होकर, मोहान्धकार का ध्वंस कर तथा नासिकाग्र में दृष्टि स्थिरकर मैंने (आप) शंकर के गुणों को जानकर कभी आपका दर्शन नहीं किया और न उन्मनी-अवस्था से कलिमलरहित आप कल्याणस्वरूप का स्मरण ही करता हूँ । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शिव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ! ॥ १० ॥ चन्द्रकला से जिनका ललाट-प्रदेश उदभासित हो रहा है, जो कन्दर्पदर्पहारी हैं, गंगाधर हैं, कल्याणस्वरूप हैं, सर्पों से जिनके कण्ठ और कर्ण भूषित हैं, नेत्रों से अग्नि प्रकट हो रहा है, हस्तिचर्म की जिनकी कन्था है तथा जो त्रिलोकी के सार हैं, उन शिव में मोक्ष के लिये अपनी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों को लगा दे और कर्मों से क्या प्रयोजन है ? ॥ ११ ॥ इस धन, घोड़े, हाथी और राज्यादि की प्राप्ति से क्या ? पुत्र, स्त्री, मित्र, पशु, देह और घर से क्या ? इनको क्षणभंगुर जानकर रे मन ! दूर ही से त्याग दे और अविलम्ब आत्मानुभव के लिये गुरुवचनानुसार पार्वतीवल्लभ श्रीशंकर का भजन कर ॥ १२ ॥ देखते-देखते आयु नित्य नष्ट हो रही है; यौवन प्रतिदिन क्षीण हो रहा है; बीते हुए दिन फिर लौटकर नहीं आते; काल सम्पूर्ण जगत् को खा रहा है । लक्ष्मी जल की तरंगमाला के समान चपल है; जीवन बिजली के समान चंचल है; अतः हे शरणागतवत्सल शंकर ! मुझ शरणागत की अब तुम रक्षा करो ! रक्षा करो ! ॥ १३ ॥ हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णों से, नेत्रों से अथवा मन से भी जो अपराध किये हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको हे करुणासागर महादेव शम्भो ! क्षमा कीजिये । आपकी जय हो, जय हो ॥ १४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीमच्छंकराचार्यविरचित श्रीशिवापराधक्षमापनस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥ Related