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श्रीशुकदेवजी को नमस्कार

यं प्रव्रजन्तमनुपतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥
(१ । २ । २)
जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे — ‘बेटा ! बेटा !’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया । ऐसे सबके हृदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को में नमस्कार करता हूँ ।

य: स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक-मध्यात्मदीपमतितितोर्षतां तमोऽन्धम् ।
संसारिणां करुणयाऽऽह पुराणगुह्यं तं व्याससूनुसुपयामि गुरुं मुनीनाम् ॥
(१ । २ । ३)
यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय-रहस्यात्मक पुराण है । यह भगवत्स्वरूप का अनुभव करानेवाला और समस्त वेदों का सार है । संसार में फंसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये आध्यात्मिक तत्वों को प्रकाशित करनेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है । वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके
बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्रीशुकदेवजी ने इसका वर्णन किया है । मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ ।

स्वसुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावो-
ऽप्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम् ।
व्यतनुत कृपया यस्त्तत्त्वदीपं पुराणं
तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि ॥
(१२ । १२ । ६८)
श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्द में ही निमग्न थे । इस अखण्ड अद्वैत स्थिति से उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी । फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर की मधुमयी, मंगलमयी मनोहारिणी लीलाओं ने उनकी वृत्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत् के प्राणियोंपर कृपा करके भगवत्तत्व को प्रकाशित करनेवाले इस महापुराण का विस्तार किया । मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी के चरणों में नमस्कार करता हूँ ।

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