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श्रीसंग्राम-विजया विद्या
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीसंग्राम-विजया-विद्यायाः श्रीईश्वर ऋषिः । उष्णिक् छन्दः । श्रीचामुण्डा देवता, सर्व-कार्येषु जयार्थे, शत्रु-नाशार्थे वा जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीईश्वर ऋषये नमः शिरसि । उष्णिक् छन्दसे नमः मुखे । श्रीचामुण्डा देवतायै नमः हृदि, सर्व-कार्येषु जयार्थे, शत्रु-नाशार्थे वा जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।

षडङ्ग-न्यास – कर-न्यास –  अंग-न्यास –
ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ ह्रः  करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्

ध्यानः-
अष्टा-विंश-भुजा चण्डी, असि-खेटक-धृक्-करौ । गदा-मुण्ड-युतौ चान्यौ शर-चाप-धरौ परौ ।।
मुष्टि-मुद्-गर-संयुक्तौ, शंख-खड्ग-युतौ परौ । ध्वज-वज्र-युतौ चान्यौ, स-चक्र-परशु-परौ ।।
डमरु-दर्पणाढ्यौ च, शक्ति-कुन्त-धरौ परौ । हलेन मुसलेनाढ्यौ, पाश-तोमर-संयुतौ ।।
ढक्का-पणव-संयुतौ, अभय-स्वस्तिकान्वितौ । तर्जनी च वर-मुद्रा-युतां ध्यायेच्छ्रीचामुण्डाम् ।।
इति ध्यात्वा, मानसोपचारैः सम्पूज्य, माला-मन्त्रं जपेत् । यथा –
श्रीईश्वर उवाच – संग्राम-विजयां विद्यां, पद-मालां वदाम्यहम् ।
ॐ ह्रीं चामुण्डे, श्मशान-वासिनी, खट्वांग-कपाल-हस्ते, महा-प्रेत-समारुढ़े, महा-विमान-समाकुले, काल-रात्रि, महा-गण-परिवृते, महा-मुखे, बहु-भुजे, घण्टा-डमरु-किंकिणी-अट्टाट्टहासे ! किलि-किलि, ॐ हूं फट् । दंष्ट्रा-घोरान्धकारिणि, नाद-शब्द-बहुले, गज-चर्म-प्रावृत-शरीरे, मांस-दिग्धे, लेलिहानोग्र-जिह्वे, महा-राक्षसि, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले, भीमा-ट्टाट्टहासे, स्फुरद्-विद्युत्-प्रभे ! चल-चल ! ॐ चकोर-नेत्रे ! चिलि-चिलि । ॐ भीं भ्रुकुटी-मिखि, हुंकार-भय-त्रासनि, कपाल-मालावेष्टित-जटा-मुकुट-शशांक-धारिणि, अट्टाट्टहासे ! किलि-किलि । ॐ हूं दंष्ट्रा-घोरान्धकारिणि, सर्व-विघ्न-विनाशिनि ! इदं कर्म साधय-साधय । ॐ शीघ्रं कुरु-कुरु ॐ फट् । ॐ अंकुशेन शमय प्रवेशय । ॐ रंग रंग, कम्पय-कम्पय । ॐ चालय । ॐ रुधिर-मांस-पद्य-प्रिये ! हन-हन । ॐ कुट्ट-कुट्ट, ॐ छिन्द, ॐ मारय, ॐ अनुक्रमय, ॐ वज्र शरीरं पातय । ॐ त्रैलोक्य-गतं दुष्टमदुष्टं वा, गृहीतम-गृहीतं वा, आवेशय । ॐ नृत्य, ॐ वन्द । ॐ कोटराक्षि, ऊर्ध्व-केशि, उलूक-वदने, करंकिणि, ॐ करंक-माला-धारिणि ! दह, ॐ पच-पच । ॐ गृह्ण । ॐ मण्डल-मधऽये प्रवेशय । ॐ किं विलम्बसि ? ब्रह्म-सत्येन विष्णु-सत्येन रुद्र-सत्येन ऋषि-सत्येन आवेशय । ॐ किलि-किलि, ॐ खिलि-खिलि, विलि-विलि । ॐ विकृत-रुप धारिणि, कृष्ण-भुजंग-वेष्टित-शरीरे, सर्व-ग्रहा-वेशनि, प्रलम्बौष्ठिनि, भ्रू-भंग-लग्न-नासिके, विकट-मुखि, कपिल-जटे, ब्राह्मि ! भञ्ज । ॐ ज्वाला-मुखि ! स्वन । ॐ पातय । ॐ रक्ताक्षि ! घूर्णय, भूमिं पातय । ॐ शिरो गृह्ण, चक्षुर्मीलय । ॐ हस्त-पादौ गृह्ण, मुद्रां स्फोटय । ॐ फट्, ॐ विदारय, ॐ त्रिशूलेन छेदय छेदय । ॐ वज्रेण हन-हन । ॐ दण्डेन ताडय-ताडय । ॐ चक्रेण छेदय-छेदय । ॐ शक्त्या भेदय । ॐ दंष्ट्र्या कीलय । ॐ कर्णिकया पाटय । ॐ अंकुशेन गृह्ण । ॐ शिरोऽक्षि-ज्वरमैकाहिकं द्वयाहिकं त्र्याहिकं चातुर्थिकं, डाकिनी-स्कन्द-ग्रहान् मुञ्च-मुञ्च । ॐ पच, ॐ उत्सादय, ॐ भूमिं पातय, ॐ गृह्ण । ॐ ब्रह्माणि ! एहि । ॐ माहेश्वरि ! एहि । ॐ कौमारि ! एहि । ॐ वैष्णवी ! एहि । ॐ वाराहि ! एहि । ॐ ऐन्द्रि ! एहि । ॐ चामुण्डे ! एहि । ॐ रेवति ! एहि । ॐ आकाश-गामिनि ! एहि । ॐ हिमवच्चारिणि ! एहि । ॐ रुरु-मर्दिनि, असुर-क्षयंकरि, आकाश-गामिनि ! पाशेन बन्ध-बन्ध, अंकुशेन कट-कट, समयं तिष्ठ । ॐ मण्डलं प्रवेशय । ॐ गृह्ण, ॐ मुखं बन्ध, ॐ चक्षुर्बन्ध, हस्त-पादौ च बन्ध, दुष्ट-ग्रहान्, ॐ दिशो बन्ध, ॐ विदिशो बन्ध, अधस्ताद् बन्ध, ऊर्ध्व-बन्ध । ॐ भस्मना पानीयेन वा मृत्तिकया सर्षपैर्वा सर्वान् आवेशय । ॐ पातय । ॐ चामुण्डे ! किलि-किलि । ॐ विच्चे हुँ फट् स्वाहा ।।
पद-माला-जयाख्येयं, सर्व-कर्म-प्रसाधिका । सर्वदा होम-जप्याद्यैः पाठाद्यैश्च रणे जयः ।।
।।इति श्री आदि-अग्नि-पुराणे युद्ध-जयार्णवे श्रीसंग्राम-विजया-विद्या-माला-मन्त्रम्।।

विधिः- ग्रह-पीड़ा, सिर और आँख के रोगों व ज्वरों से ग्रस्त व्यक्ति को विद्या से तीन, पाँच या सात बार अभिमन्त्रित जल से छींटे मारें या भस्म, मिट्टी अथवा सरसों मारें । माला-मन्त्र से अभिमन्त्रित राई (लाल सरसों), श्मशान की राख अभिमन्त्रित कर शत्रु को मारें या उसके घर में फेंके, तो वह परास्त हो, त्रस्त हो । अभिचार-नाश के लिये पाठ करें । एक या तीन पाठ से अभिचार नष्ट होता है । नित्य पाठ करने वाला कभी भी अभिचार से पीड़ित नहीं हो सकता । अभिचार का नाश या विपरित-चालन स्वतः होता रहता है । कुछ अतिरिक्त करने की आवश्यकता ही नहीं होती ।
विशेषः- वैसे तो नित्य-पाठ ही फल-दायक होता है, किन्तु यदि अयुत (दस हजार) पाठ का पुरश्चरण कर लिया जाय, तो ब्रह्मास्त्र-वत् कार्य-सिद्धि होती है । जिस कार्य के लिए संकल्प करके एक हजार पाठ कर लिए जायें, वह कार्य होता ही है । मारण, उच्चाटन तथा शन्ति-पुष्टि आदि सब काम पाठ मात्र से होते हैं, कर्मानुसार हवन से भी अभीष्ट सिद्धि होती है ।

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