॥ श्री गायत्री कवचम् ॥
॥याज्ञवल्क्य उवाचः॥

स्वामिन् सर्व-जगन्नाथ संशयोऽस्ति महान्मम् । चतुः षष्टि-कलानां च पातकानां तद्वद् ॥१ ॥
मुच्यते केन पुण्येन ब्रहा-रूपं कथं भवेत् । देहश्च देवता-रूपं मन्त्र-रूपं विशेषतः ॥२ ॥
क्रमतः श्रोतुमिच्छामि कवचं विधि-पूर्वकम् ।
॥ब्रह्मोवाचः॥
विनियोगः- “ॐ अस्य श्री गायत्री-कवचस्य ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामाथर्वाणिच्छन्दांसि पर-ब्रह्म-स्वरूपिणी गायत्री देवता भूः बीजम् भुवः शक्तिः स्वः कीलकम् श्रीगायत्री प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः- ॐ ब्रह्म-विष्णु-रुद्र ऋषिभ्यो नमः शिरसि। ऋग्यजुः सामाथर्वाणिच्छन्दोभ्यो नमः मुखे। पर-ब्रह्म-स्वरूपिणी गायत्री देवता नमः हृदि। भूः बीजाय नमः गुह्ये। भुवः शक्तये नमः पादयोः। स्वः कीलकाय नमः नाभौ। विनियोगाय नः: सर्वाङ्गे।
करन्यासः- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुरित्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ भूर्भुवः स्वः वरेण्यं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ भूर्भुवः स्वः भर्गो-देवस्य मध्यमाभ्यां नमः। ॐ भूर्भुवः स्वः धीमह्यनामिकाभ्यां नमः। ॐ भूर्भुवः स्वः धियो यो नः कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भूर्भुवः स्वः प्रचोदयात् करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
षडङ्गन्यासः- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुरिति हृदयाय नमः। ॐ भूर्भुवः स्वः वरेण्यमिति शिरसे स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः भर्गो-देवस्येति शिखायै वष्ट्। ॐ भूर्भुवः स्वः धीमहीति कवचाय हुम्। ॐ भूर्भुवः स्वः धियो यो नः इति नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भूर्भुवः स्वः प्रचोदयादिति अस्त्राय फट्।
इति न्यासं कृत्वाकरौ बद्ध्वा प्रार्थयेत्। तथा च –
वर्णास्त्रां कुण्डिका हस्तां शुद्ध-निर्मल-ज्योतिषीम् । सर्वतत्त्वमयीं वन्दे गायत्रीं वेदमातरम् ॥१ ॥
इति सम्प्रार्थ्य ध्यानं कुर्यात् –
॥ ध्यान ॥
मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील-धवलच्छायैर्मुखै-स्त्रीक्षणैर्युक्तामिन्दु निबद्ध-रत्न-मुकुटां तत्त्वार्थ वर्णात्मिकाम् ।
गायत्रीं वरदाऽभयांकुशकशां शूलं कपालं गुणं, शङ्खं चक्रमथारविन्द-युगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥
॥ मूल पाठ ॥
ॐ गायत्री पूर्वतः पातु सावित्री पातु दक्षिणे ।
ब्रह्मविद्या च मे पश्चादुत्तरे मां सरस्वती ॥१ ॥
पावकीं में दिशं रक्षेत्पावकोज्ज्वल शालिनी ।
यातुधानीं दिशं रक्षेद्यातुधान गणार्दिनी ॥२ ॥
पावमानी-दिशं रक्षेत्पवमान-विलासिनी ।
दिशं रौद्रीमवतु में रुद्राणी रुद्र-रूपिणी ॥३ ॥
उर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ।
एवं दश-दिशो रक्षेत्सर्वतो भुवनेश्वरी ॥४ ॥
ब्रह्मास्त्र स्मरणादेव वाचां सिद्धः प्रजायते ।
ब्रह्मदण्डश्च में पातु सर्व-शस्त्रास्त्र-भक्षकः ॥५ ॥
ब्रह्म-शीर्षस्तथा पातु शत्रूणां वधकारकः ।
सप्तव्याहृतयः पातु सर्वदा (स सदा) बिन्दु-संयुताः ॥६ ॥
वेदमाता च मां पातु सरहस्या सदैवता ।
देवीसूक्तं सदा पातु सहस्त्राक्षर-देवता ॥७ ॥
चतुःषष्टिकला विद्या दिव्याद्यां पातु देवता ।
बीजशक्तिश्च मे पातु पातु विक्रम-देवता ॥८ ॥
तत्पदं पातु मे पादौ जङ्घे मे सवितुः पदम् ।
वरेण्यं कटिदेशं तु नाभिं भर्गस्तथैव च ॥९ ॥
देवस्य मे तु हृदयं धीमहीति गलं तथा ।
धियो मे पातु जिह्वायां यः पदं पातु लोचने ॥१० ॥
ललाटे नः पदं पातु मूर्द्धानं मे प्रचोदयात् ।
तद्वर्णः पातु मूर्द्धानं सकारः पातु भालकम् ॥११ ॥
चक्षुषी मे विकारस्तु श्रोत्रं रक्षेत्तु-कारकः ।
नासा-पुटे वकारो मे रेकारस्तु (रेकास्तु) कपोलयोः ॥१२ ॥
णिकारस्त्वधरोष्ठे च यकारस्तूर्ध्व ओष्ठके । (णिकारस्त्वधरोष्ठ च यंकारस्त्वधरोष्ठ)
आस्यमध्ये भकारस्तुर्गोकारस्तु कपोलयोः ॥१३ ॥
देकारः कण्ठदेशे च वकारः स्कन्धदेशयोः ।
स्यकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो वाम-हस्तके ॥१४ ॥
मकारो हृदयं रक्षेद्धिकारो जठरं तथा । धिकारो नाभिदेशं च योकारस्तु कटिद्वयम् ॥१५ ॥
गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू मे नः पदाक्षरम् ।
प्रकारो जानुनी रक्षेच्चोकारो जङ्घदेशयोः ॥१६ ॥
दकारो गुल्फदेशं तु यात्कारः पादयुग्मकम् ।
जातवेदेति गायत्री त्र्यम्बकेति दशाक्षरा ॥१७ ॥
सर्वतः सर्वदा पातु आपोज्योतीति षोडशी ।
इदं तु कवचं दिव्यं बाधा-शत विनाशकम् ॥१८ ॥
॥ फल-श्रुति ॥
चतुः षष्ठि-कला-विद्या सकलैश्वर्यसिद्धिदम् ।
जपारम्भे च हृदयं जपान्ते कवचं पठेत् ॥१९ ॥
स्त्री-गो-ब्राह्मण-मित्रादि द्रोहाद्यखिल पातकैः ।
मुच्यते सर्व-पापेभ्यः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥२० ॥
पुष्पाञ्जलिं च गायत्र्या मूलेनैव पठेत्सकृत् ।
शत-साहस्र-वर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥२१ ॥
भूर्ज-पत्रे लिखित्वै तत् स्वकण्ठे धारयेद्यदि ।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारयेद् बुधः ॥२२ ॥
त्रैलोक्यं क्षोभयेत्सर्वं त्रैलोक्यं दहति क्षणात् ।
पुत्रवान् धनवान् श्रीमान्नाना-विद्या-निधिर्भवेत् ॥२३ ॥
ब्रह्मास्त्रादीनि सर्वाणि तदङ्गस्पर्शनात्ततः ।
भवन्ति तस्य तुल्यानि किमन्यत्कथयामि ते ॥२४ ॥
अभिमन्त्रित-गायत्री-कवचं मानसं पठेत् ।
तज्जलं पिबतो नित्यं पुरश्चर्या-फलं भवेत् ॥२५ ॥
लघुसामान्यकं मन्त्रं महामन्त्रं तथैव च ।
यो वेत्ति धारणां युञ्जञ्जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥२६ ॥
सप्त व्याहृदयो विप्रे सप्तावस्थाः प्रकीर्तिताः ।
सप्तजीवशता नित्यं व्याहृती अग्निरूपिणी ॥२७ ॥
प्रणवे नित्य-युक्तस्य व्याहृतीषु च सप्तसु ।
सर्वेषामेव पापानां सङ्कटे समुपस्थिते ॥२८ ॥
शतं सहस्रमभ्यर्च्य गायत्री पावनं महत् ।
दश-शतमष्टोत्तरशतं गायत्री पावनं महत् ॥२९ ॥
भक्तिमान्यो (भक्तियुक्तो) भवेद्विप्रः सन्ध्या-कर्म-समाचरेत् ।
कालेकाले तु कर्त्तव्यं (प्रकर्तव्यं) सिद्धिर्भवति नान्यथा ॥३० ॥
प्रणवं पूर्वमुद्धृत्य भूर्भुवः स्वस्तथैव च ।
तुर्यं सहैव गयत्री जप एवमुदाहृतम् ॥३१ ॥
तुरीय-पाद-मुत्सृज्य गायत्रीं च जपेद्विजः ।
स मूढो नरकं याति काल-सूत्रमधोगतिः ॥३२ ॥
मन्त्रादौ जननं (पाशबीजं) प्रोक्तं मन्त्रान्ते मृतसूतकम् (मृतसूत्रकम्)
उभयोर्दोषनिर्मुक्तं गायत्री सफला भवेत् ॥३३ ॥
मन्त्रादौ पाश-बीजं च मन्त्रान्ते कुश-बीजकम् ।
मन्त्र-मध्ये तु या माया गायत्री सफला भवेत् ॥३४ ॥
वाचिकस्त्वहमेव स्यादुपांशु शतमुच्यते ।
सहस्रं मानसं प्रोक्तं त्रिविधं जपलक्षणम् ॥३५ ॥
अक्ष-मालां च मुद्रां च गुरोरपि न दर्शयेत् ।
जपं चाक्षस्वरूपेणानामिका-मध्य-पर्वणि ॥३६ ॥
अनामा मध्यमा (मध्यया) हीना कनिष्ठादिक्रमेण तु ।
तर्जनी-मूल-पर्यन्तं गायत्री-जप-लक्षणम् ॥३७ ॥
पर्वभिस्तु जपेदेवमन्यत्र नियमः स्मृतम् ।
गायत्री वेदमूलत्वाद्वेदः पर्वसु गीयते ॥३८ ॥
दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेनैव पराकृतम् (पुरा कृतम्) ।
त्रियुगं तु सहस्राणि गायत्री हन्ति किल्बिषम् ॥३९ ॥
प्रातः कालेषु कर्तव्यं सिद्धिं विप्रो य इच्छति ।
नादालये समाधिश्च सन्ध्यायां समुपासते ॥४० ॥
अङ्गुल्यग्रेण यज्जप्तं यज्जप्तं मेरु-लङ्घने ।
असङ्ख्यया च यज्जप्तं तज्जप्तं निष्फलं भवेत् ॥४१ ॥
विना वस्त्रं प्रकुर्वीत गायत्री निष्फला भवेत् ।
वस्त्र-पुच्छं न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः ॥४२ ॥
गायत्रीं तु परित्यज्य अन्य मन्त्रमुपासते ।
सिद्धान्नं च परित्यज्य भिक्षामटति दुर्मतिः ॥४३ ॥
ऋषिश्छन्दो देवताख्या बीजं-शक्तिश्च कीलकम् ।
नियोगं न च जानाति गायत्री निष्फला भवेत् ॥४४ ॥
वर्ण-मुद्रा-ध्यान पदमावाहन विसर्जनम् ।
दीपं चक्रं न जानाति गायत्री निष्फला भवेत् ॥४५ ॥
शक्तिर्न्यासस्तथा स्थानं मन्त्र-सम्बोधनं परम् ।
त्रिविधं यो न जानाति गायत्री तस्य निष्फला भवेत् ॥४६ ॥
पञ्चोपचारकाश्चैव होम-द्रव्यं तथैव च ।
पञ्चाङ्गं च विना नित्यं गायत्री निष्फला भवेत् ॥४७ ॥
मन्त्र-सिद्धिर्भवेज्जातु विश्वामित्रेण भाषितम् ।
व्यासो वाचस्पतिर्जीवस्तुता देवी तपःस्मृतौ ॥४८ ॥
सहस्रं जप्ता सा देवी ह्युपपातक-नाशिनी ।
लक्ष-जाप्ये तथा तच्च महा-पातक-नाशिनी ॥४९ ॥
कोटिजाप्येन राजेन्द्र यदिच्छति तदाप्नुयात् ।
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ।
शिष्येभ्यो भक्ति युक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ॥५० ॥
॥ ॐ तत्सत् श्रीमद्वसिष्ठसंहितोक्तं महात्म्यसहितं गायत्री कवचं ॥
इस कवच में श्लोक ३१ से ३४ अन्य प्रयोग विधि है।
उपरोक्त कवच में ब्रह्माजी ने १८ वें श्लोक से अन्त तक कवच के महात्म्य तथा फल आदि का वर्णन किया है जिसका भावार्थ इस प्रकार है —
यह दिव्य कवच सैकड़ों बाधाओं को नष्ट करने वाला है। चौंसठ कलाओं और विद्याओं तथा समस्त ऐश्वर्य की सिद्धि देने वाला है । जो साधक जप के प्रारम्भ में हृदय तथा अन्त में कवच का पाठ करता है वह स्त्री, गो, ब्राह्मण, मित्र आदि के द्रोह आदि समस्त पापों से छूट कर ब्रह्म को प्राप्त करता है । पुष्पाञ्जलि को मूल गायत्री के साथ ही पढ़ना चाहिये । ऐसा करने से साधक एक लाख वर्षों की पूजा का फल प्राप्त करता है । जो साधक भोजपत्र पर इस गायत्री मन्त्र को लिखकर शिखा में, दाहिने हाथ में या कण्ठ में धारण करता है वह तीनों लोकों को कँपा देता है तथा तत्क्षण तीनों लोकों को भस्म कर सकता है। वह पुत्रवान्, धनवान्, श्रीमान् तथा अनेक विद्याओं का निधि बन जाता है। ब्रह्मास्त्र आदि सब अस्त्र उस साधक के शरीर से स्पर्श करते ही उसके तुल्य हो जाते हैं, और अधिक मैं तुमसे क्या कहूं ।
जो साधक अभिमन्त्रित गायत्री कवच का मानस-पाठ करता है और नित्य उसका जल पीता है उसे गायत्री पुरश्चरण का फल मिलता है। लघु, सामान्य और महामन्त्र की धारणा को जो साधक जानता है, वह जीवनमुक्त कहा जाता है। हे विप्र, सात व्याहृतियाँ और सात अवस्थाएँ बतायी गयी हैं। सप्तजीवशता व्याहृती सदा अग्निरूपिणी कही गयी है। जो साधक प्रणव अर्थात् (ॐ) तथा व्याहृति (भू, भुवः स्वः) नित्य लगा रखता है वह सभी पापों के समूह के उपस्थित होने पर सौ या हजार बार या एक सौ आठ बार इसका जप करके विध्न से छूट जाता है। जो विप्र भक्तिमान् है उसे सन्ध्या नित्य करनी चाहिये । निर्धारित समय पर उसे जप आदि कर्म करना चाहिये तभी सिद्धि प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं।
जप में पहले प्रणव का उच्चारण करके भू, भुवः, स्व: का उच्चारण करना चाहिये । इसके बाद चौथे चरण के साथ गायत्री का जप करना चाहिये। जो द्विज चौथे चरण को छोड़कर गायत्री का जप करता है वह मूढ कालसूत्र नामक नरक को जाता है। मन्त्र के आदि में जननदोष होता है तथा मन्त्र के अन्त में मृतसूतक दोष होता है। इन दोनों दोषों से रहित गायत्री मन्त्र का ही जप सफल होता है। जिस गायत्री मन्त्र के प्रारम्भ में पाश बीज तथा मन्त्र के अन्त में कुश बीज और मध्य में माया होती है वह गायत्री सफल होती है। वाचिक जप दसगुना, उपांशु जप सौगुना तथा मानस जप हजार गुना फल वाला होता है । इस प्रकार तीन तरह का जप होता है। रुद्राक्ष की माला तथा मुद्रा किसी को न दिखाये । रुद्राक्ष स्वरूप अनामिका अङ्गुली के पर्वों पर मध्यमा को छोड़कर कनिष्ठिका के क्रम से तर्जनी के मूल पर्व तक गायत्री का जप करना चाहिये । अङ्गुली के पर्वों से इस प्रकार मन्त्र का जप करे। अन्यत्र यह नियम कहा गया है । गायत्री वेद का मूल है इस कारण वेद पर्वों पर गाये जाते हैं इसलिए गायत्री मन्त्र भी अंगुलियों के पर्वों पर जपा जाता है।
गायत्री का दश बार जप करने से साधक इस जन्म के पापों से छूट जाता है। सौ बार जप करने से पूर्वजन्म के पाप से छूट जाता है और एक हजार गायत्री जप से तीनों युगों में किये पाप से छूट जाता है। जो विप्र सिद्धि चाहता है, उसे प्रातः काल जप करना चाहिये । सायंकाल शिवालय में समाधि लगानी चाहिये । अङ्गुली के अग्रभाग से जो जप किया जाता है और मेरु के लङ्घन पर जो जप किया जाता है तथा बिना गणना के जो जप किया जाता है वह सब जप निष्फल होता है। बिना वस्त्र के गायत्री निष्फल होती है। जो साधक वस्त्रपुच्छ को नहीं जानता उसका परिश्रम व्यर्थ होता है । जो साधक गायत्री को छोड़कर अन्य मन्त्र का जप करता है वह दुर्मति प्राप्त अन्न को छोड़कर इधर-उधर भिक्षा मांगता है। जो ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति, कीलक तथा नियोग नहीं जानता उसके लिए गायत्री निष्फल है। जो साधक वर्ण, मुद्रा, ध्यान, पद, आवाहन, विसर्जन तथा दीपचक्र नहीं जानता उसके लिए गायत्री निष्फल है। शक्तिन्यास, स्थान तथा मन्त्रसम्बोधन इन तीनों को जो नहीं जानता उसके लिए गायत्री निष्फल है। पाँचो उपचार, होमद्रव्य तथा पञ्चांग के बिना गायत्री सदा निष्फल रहती हैं।
व्यास और बृहस्पति को तप द्वारा स्मृति में गायत्री जागृत हुई। वह गायत्री देवी एक हजार जप करने पर उपपातकों को नष्ट करने वाली होती है। एक लाख जप करने पर वह महापापों को नष्ट करती है । हे राजेन्द्र ! एक करोड़ जप करने के बाद साधक जो चाहता है वह पा सकता है। इस गायत्री मन्त्र को दूसरे के शिष्यों को नहीं देना चाहिये । जो भक्त नहीं हैं उन्हें तो विशेष रूप से नहीं देना चाहिये। अपने भक्तियुक्त शिष्यों को इसे देना चाहिये । अन्यथा करने से साधक को मृत्यु का ग्रास होना पड़ेगा।
॥ इति वसिष्ठसंहिता में गायत्री कवच सम्पूर्ण ॥

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