September 23, 2015 | Leave a comment श्री तारा वन्दना ॐ श्री तारायै नमः जटा पिंगला बद्ध-नागाधिराजा, प्रभा स्वर्ण-बालार्क-बाला हिरण्या । प्रतीची दिशा मेरु-रा तरण्या ।। नदी चोलना पावना कल्पना में, कली प्रस्फुटी पद्म वादी नदी में, जगी प्रात-काले प्रभा सूर्य-कन्या ।। दया-सागरा उग्र-ताश्वेता सु-रम्या । विराजें उसी पुष्प पे उग्र-तारा, करे कर्त्तरी खड्ग वामे सु-धन्या ।। दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।। लिए नव्य नीलोत्पली सव्य-हस्ते, करे खप्परा भाव-गुह्या न गम्या । गले मुण्ड-माला महा-अस्थि माला, तु ही बाव निस्तार तारा तरण्या ।। दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।। जटा पिंगला सूर्य की रश्मियों-सी, हरण्या सु-गर्भा क्षुधा-क्रान्त-जन्या । महा-आतुरा रक्त-प्यासी विक्षुब्धा, खड़ी उग्र-तारा महा-क्षुब्ध-शून्या ।। दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।। जटा-जटू-जूटा महा-काल-कूटा, सभी हस्त में सर्प नागाभि-रण्या । महा-कष्ट-आपत्ति-नाशो भवानी, दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।। प्रभा स्वर्ण-बालार्क-बाला हिरण्या ।। दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।। उठी काल-कूटी महा-ज्वाल तूने, शिवाक्षोम्य को भाल-गंगा छिपाया । मिटे कण्ठ की दग्ध ज्वाला असह्य, बिठा अंक में दुग्ध तूने पिलाया ।। मिटे नील-तारा अविद्यादि माया ।। उसी प्राण-पी को रखे पाँव नीचे, खड़ी पृंतरे पाँव आगे बढ़ाया । शवारुढ़ हो लाश में प्राण फूँका, तभी शम्भु ने ज्ञआन-चैतन्य पाया ।। मिटे नील-तारा अविद्यादि माया ।। कला-कर्म-हीना अकर्मण्य-दीना, नहीं साधना-शक्ति सामर्थ्य पाया । मिले ज्ञान-विद्या कला-काव्य-धारा, मिटे नील-तारा अविद्यादि माया ।। दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।। महा-क्षोभ को भाल में जो छिपाएँ, वही सिन्धु तारें-तरें बे-सहारा । हरें कष्ट आपत्ति, उत्पात-पीड़ा, महा-घोर-रुपे सदा उग्र-तारा ।। दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।। महा-ज्ञान दो बुद्धि आनन्द-विद्या, कला-काव्य-धारा मिले नील-तारा । कृपा भक्ति दो, मुक्ति दो, मुक्ति-माता, दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।। दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।। Related