Print Friendly, PDF & Email

श्री तारा वन्दना
ॐ श्री तारायै नमः

जटा पिंगला बद्ध-नागाधिराजा,
प्रभा स्वर्ण-बालार्क-बाला हिरण्या ।
प्रतीची दिशा मेरु-रा तरण्या ।।

नदी चोलना पावना कल्पना में,
कली प्रस्फुटी पद्म वादी नदी में,
जगी प्रात-काले प्रभा सूर्य-कन्या ।।
दया-सागरा उग्र-ताश्वेता सु-रम्या ।
विराजें उसी पुष्प पे उग्र-तारा,
करे कर्त्तरी खड्ग वामे सु-धन्या ।।
दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।।
लिए नव्य नीलोत्पली सव्य-हस्ते,
करे खप्परा भाव-गुह्या न गम्या ।
गले मुण्ड-माला महा-अस्थि माला,
तु ही बाव निस्तार तारा तरण्या ।।
दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।।

जटा पिंगला सूर्य की रश्मियों-सी,
हरण्या सु-गर्भा क्षुधा-क्रान्त-जन्या ।
महा-आतुरा रक्त-प्यासी विक्षुब्धा,
खड़ी उग्र-तारा महा-क्षुब्ध-शून्या ।।
दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।।

जटा-जटू-जूटा महा-काल-कूटा,
सभी हस्त में सर्प नागाभि-रण्या ।
महा-कष्ट-आपत्ति-नाशो भवानी,
दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।।
प्रभा स्वर्ण-बालार्क-बाला हिरण्या ।।
दया-सागरा उग्र-तारा तरण्या ।।

उठी काल-कूटी महा-ज्वाल तूने,
शिवाक्षोम्य को भाल-गंगा छिपाया ।
मिटे कण्ठ की दग्ध ज्वाला असह्य,
बिठा अंक में दुग्ध तूने पिलाया ।।
मिटे नील-तारा अविद्यादि माया ।।

उसी प्राण-पी को रखे पाँव नीचे,
खड़ी पृंतरे पाँव आगे बढ़ाया ।
शवारुढ़ हो लाश में प्राण फूँका,
तभी शम्भु ने ज्ञआन-चैतन्य पाया ।।
मिटे नील-तारा अविद्यादि माया ।।

कला-कर्म-हीना अकर्मण्य-दीना,
नहीं साधना-शक्ति सामर्थ्य पाया ।
मिले ज्ञान-विद्या कला-काव्य-धारा,
मिटे नील-तारा अविद्यादि माया ।।
दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।।

महा-क्षोभ को भाल में जो छिपाएँ,
वही सिन्धु तारें-तरें बे-सहारा ।
हरें कष्ट आपत्ति, उत्पात-पीड़ा,
महा-घोर-रुपे सदा उग्र-तारा ।।
दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।।

महा-ज्ञान दो बुद्धि आनन्द-विद्या,
कला-काव्य-धारा मिले नील-तारा ।
कृपा भक्ति दो, मुक्ति दो, मुक्ति-माता,
दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।।
दया-सागरा सिन्धु-संसार-तारा ।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.