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श्री दुर्गा पूजन और श्रीदुर्गा-सप्तशती पाठ का सही क्रम
नवरात्र में माता दुर्गा की प्रसन्नता के लिए श्रीदुर्गा-सप्तशती का पाठ करने का भी विधान है। कतिपय ध्यातव्य नियम इस प्रकार हैं –
१॰ प्रथम दिन घट-स्थापना की जाती है और उसके बाद ही देवी के स्वरुप एवं अन्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है। देवी पूजन में प्रथमतः सभी देवी-देवताओं का षोडशोपचार पूजन किया जाता है। इसमें प्रथम दिन आह्वान, आसन और अर्घ्य देना अनिवार्य होता है, लेकिन इसके बाद शेष आठ दिनों में षोडशोपचार पूजन तो होता है, लेकिन आह्वान, आसन और अर्घ्य विधान नहीं होता है। नवें दिन षोडशोपचार पूजन के साथ-साथ विसर्जन भी करना आवश्यक होता है।mahishasur mardini
२॰ नवरात्र में पूरे नौ दिन तक अखण्ड दीपक जलाए रखना चाहिए और उसकी पूजा सर्वप्रथम करनी चाहिए।
३॰ दुर्गा पूजन में देवी दुर्गा की पूजा सबसे अन्त में होती है। उसके पूर्व भैरव, योगिनी, देवी के आभूषण और खड्ग आदि आयुधों की पूजा करनी चाहिए। देवी जगदम्बा साक्षात् चैतन्य स्वरुपा है, अतः उनका स्पर्श पाने वाली सभी वस्तुएँ स्वतः चैतन्य होती है। यहाँ तक की देवी के हाथ में स्थित कटे हुए मुण्ड और खप्पर में भी चैतन्य माना जाता है।
४॰ नवदुर्गाओं के पूजन में पूरे नौ दिन तक ९ वर्ष से छोटी कन्या को देवी स्वरुप और ११ वर्ष की आयु से छोटे ब्राह्मण को भैरव-स्वरुप मानकर उनका पूजन करना चाहिए और उनके द्वारा उच्छिष्ट भोजन को देवी का प्रसाद मानकर ग्रहण करने के बाद ही भोजन करना चाहिए। अन्तिम दिन दोनों को यथाशक्ति दक्षिणादि देकर विदा करना चाहिए।
५॰ ‘नौच्छिष्टो भोजनोदद्यात’ अर्थात् शास्त्रों के अनुसार उच्छिष्ट भोजन नहीं करना चाहिए। इसलिए शास्त्रों में विधान है कि देवता को चढाए गए प्रसाद को भी उच्छिष्ट होने के कारण पहले स्वयं ग्रहण नहीं करना चाहिए, अपितु किसी भी देवता को चढाए गए प्रसाद का दशांश निकालकर पीपल के वृक्ष के नीचे अथवा किसी चौराहे पर रख देना चाहिए। ये दोनों भी यदि संभव नहीं हो, तो अपने घर के बाहर किसी भी एकान्त स्थान पर रख देना चाहिए, फिर शेष प्रसाद को सम्पूर्ण प्रसाद में मिला लेना चाहिए। घर के बाहर चढाए गए उस भोजन का भक्षण माँ दुर्गा की सेविका ‘उच्छिष्ट-चाण्डालिनी’ करती है।
६॰ दुर्गा सप्तशती का पाठ करते समय निम्नलिखित क्रम का ध्यान रखना चाहिए –
कवच, अर्गला, कीलक, रात्रि-सूक्त, न्यास सहित नवार्ण-मन्त्र का १०८ जप, दुर्गा-सप्तशती के १३ अध्यायों का पाठ, न्यास सहित नवार्ण-मन्त्र का १०८ जप, रहस्य-त्रय (प्राधानिक, वैकृतिक और मूर्ति-रहस्य) का पाठ, क्षमा-प्रार्थना-स्तोत्र तथा जप-समर्पण।
७॰ एक गृह में तीन देवी की प्रतिमाओं की स्थापना एवं पूजन नहीं होना चाहिए।
८॰ देवी के स्थान पर वंश-वाद्य, शहनाई व मधुरी भूलकर भी न बजावें।
९॰ भगवती दुर्गा का आह्वान बिल्व-पत्र, बिल्व-शाखा, त्रिशूल या श्रीफल पर किया जा सकता है, किन्तु दूर्वा का प्रयोग कदापि न करें।
१०॰ लाल-कनेर व अन्य सुगन्धित पुष्प माता को चढाए, सुगन्ध-हीन व विषैले पुष्प कभी न चढाएँ।
११॰ भगवती की प्रतिमा सदैव लाल-कपडे से वेष्टित होती है।
१२॰ भगवती की उत्तराभिमुख स्थापना नहीं करें।
१३॰ देवी प्रतिमा की केवल एक प्रदिक्षिणा ही होती है।
१४॰ देवी पूजनकाल में साधक यम-नियमों का पालन करते हुए निराहार व्रत रखे व पाठ के तत्काल बाद दुग्ध-पान करे तो भगवती शीघ्र प्रसन्न होती है।
१५॰ सम्पूर्ण श्रीदुर्गा-सप्तशती प्रथम-चरित (अध्याय १), मध्यम-चरित (अध्याय २, ३ व ४) एवं उत्तर-चरित (अध्याय ५ से १२) इन तीन भागों में विभक्त है। किसी भी चरित या अध्याय का अधूरा पाठ नहीं करना चाहिए।

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