December 27, 2015 | aspundir | Leave a comment श्री सनकादि सृष्टि के प्रारम्भ में लोकपितामह ब्रह्मा ने विविध लोकों को रचने की इच्छा से तपस्या की । स्रष्टा के उस अखण्ड तप से प्रसन्न होकर विश्वाधार प्रभु ने ‘तप’ अर्थवाले ‘सन’ नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार-इन चार निवृत्ति-परायण ऊर्ध्वरेता मुनियों के रूपमें अवतार ग्रहण किया । ये प्रकट-काल से ही मोक्ष-मार्ग-परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्य-सिद्ध एवं नित्य विरक्त थे । इन नित्य ब्रह्मचारियों से ब्रह्माजी के सृष्टि-विस्तार की आशा पूरी नहीं हो सकी । देवताओं के पूर्वज और लोकस्रष्टा के आद्य मानसपुत्र सनकादि के मन में कहीं किंचित् आसक्ति नहीं थी । वे प्राय: आकाशमार्ग से विचरण किया करते थे । एक बार वे श्रीभगवान् के श्रेष्ठ वैकुण्ठधाम में पहुंचे । वहाँ सभी शुद्ध- मत्वमय चतुर्भुज रूप में रहते हैं । सनकादि भगवद्दर्शन की लालसा से वैकुण्ठ की दुर्लभ दिव्य दर्शनीय वस्तुओं की उपेक्षा करते हुए छठी ड्योढ़ी के आगे बढ़ ही रहे थे कि भगवान् के पार्षद जय और विजय ने उन पँचवर्षीय-से दीखने वाले दिगम्बर तेजस्वी कुमारों की हँसी उड़ाते हुए उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया । भगवद्दर्शन में व्यवधान उत्पन्न होने के कारण सनकादि ने उन्हें दैत्यकुल में जन्म लेने का शाप दे दिया । अपने प्राणप्रिय एवं अभिन्न सनकादि कुमारों के अनादर का संवाद मिलते ही वैकुण्ठनाथ श्रीहरि तत्काल वहाँ पहुँच गये । भगवान् की अद्भुत, अलौकिक एवं दिव्य सौन्दर्यराशि के दर्शन कर सर्वथा विरक्त सनकादि कुमार चकित हो गये । अपलक नेत्रों से प्रभुकी ओर देखने लगे । उनके हृदय में आनन्द-सिन्धु उच्छलित हो रहा था । उन्होंने वनमालाधारी लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णु की स्तुति करते हुए कहा- प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो न: । तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीत: ।। (श्रीमद्भा॰ ३ । १५ । ५०) ‘विपुलकीर्ति प्रभो आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है । आप साक्षात् भगवान् हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हुए हैं । हम आपको प्रणाम करते हैं ।’ ‘ब्राह्मणों की पवित्र चरण-रज को मैं अपने मुकुट पर धारण करता हूँ ।’ श्रीभगवान ने अत्यन्त मधुर वाणी में कहा । ‘जय-विजयने मेरा अभिप्राय न समझकर आप लोगों का अपमान किया है । इस कारण आपने इन्हें दण्ड देकर सर्वथा उचित ही किया है ।’ लोकोद्धारार्थ लोक-पर्यटन करनेवाले, सरलता एवं करुणाकी मूर्ति सनकादि कुमारों ने श्रीभगवान्की सारगर्भित मधुर वाणीको सुनकर उनसे अत्यन्त विनीत स्वरमें कहा- यं वानयोर्दममधीश भवान् विधत्ते वृत्तिं नु वा तदनुमन्महि निर्व्यलीकम् । अस्मासु वा य उचितो ध्रियतां स दण्डो येऽनागसौ वयमयुङक्ष्महि किल्बिषेण ।। (श्रीमद्भा॰ ३ । १६ । २५) ‘सर्वेश्वर ! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझें, वैसा दण्ड दें अथवा पुरस्काररूप में इनकी वृत्ति बढ़ा दें-हम निष्कपटभाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिये हमें ही उचित दण्ड दें । हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है ।’ ‘यह मेरी प्रेरणा से ही हुआ है ।’ श्रीभगवान्ने उन्हें संतुष्ट किया । इसके अनन्तर सनकादिने सर्वाङ्गसुन्दर भगवान् विष्णु और उनके धाम का दर्शन किया और प्रभु की परिक्रमा कर उनका गुणगान करते हुए वे चारों कुमार लौट गये । जय-विजय इनके शाप से तीन जन्मों तक क्रमश: हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष, रावण-कुम्भकर्ण और शिशुपाल-दन्तवक्त्र हुए । एक समय जब भगवान् सूर्य की भांति परमतेजस्वी सनकादि आकाशमार्ग से भगवान् के अंशावतार महाराज पृथु के समीप पहुंचे, तब उन्होंने अपना अहोभाग्य समझते हुए उनकी सविधि पूजा की । उनका पवित्र चरणोदक माथे पर छिड़का और उन्हें सुवर्णके सिंहासनपर बैठाकर बद्धाञ्जलि हो विनयपूर्वक निवेदन किया- अहो आचरितं कि मे मङ्गलं मङगलायना: । यस्य वो दर्शनं ह्यासीद्दुर्दर्शानां च योगिभिः ।। नैव लक्षयते लोको लोकान् पर्यटतोऽपि यान् । यथा सर्वदृशं सर्व आत्मानं येऽस्य हेतवः ।। (श्रीमद्धा० ४ । २२ । ७, ९) ‘मङ्गलमूर्ति मुनीश्वरो ! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं; मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है, जिसके फलस्वरूप मुझे स्वत: आपका दर्शन प्राप्त हुआ । … .इस दृश्य-प्रपू्च के कारण महत्तत्त्वादि यद्यपि सर्वगत हैं, तो भी वे सर्वसाक्षी आत्माको नहीं देख सकते; इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकोंमें विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारी लोग आपको नहीं देख पाते ।’ फिर अपने सौभाग्यकी सराहना करते हुए उन्होंने अत्यन्त आदरपूर्वक कहा- तदहं कृतविश्रम्भ: सुहृदो वस्तपस्विनाम् । सम्पृच्छे भव एतस्मिन् क्षेम: केनाञ्जसा भवेत् ।। ( श्रीमद्भा॰ ४ । २२ । १५) ‘आप संसारानलसे संतप्त जीवोंके परम सुहृद् हैं; इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसारमें मनुष्यका किस प्रकार सुगमतासे कल्याण हो सकता है ?’ भगवान् सनकादिने आदिराज पृथु का ऐसा प्रश्न सुनकर उनकी बुद्धिकी प्रशंसा की और उन्हें विस्तारपूर्वक कल्याणका उपदेश देते हुए कहा- अर्थेन्द्रियार्थाभिध्यानं सर्वार्थापह्नवो नृणात् । भ्रंशितो ज्ञानविज्ञानाद्येनाविशति मुख्यताम् ।। न कुर्यात्कर्हिचित्सङ्गं तमस्तीस्व्रं तितीरिषुः । धर्मार्थकाममोक्षाणां यदत्यन्तविघातकम् ।। कृच्छ्रो महानिह भवार्णवमप्लवेशां षड्वर्गनक्रमसुखेन तितीरषन्ति । तत् त्वं हरेर्भगवतो भजनीयमङ्घ्रिं कृत्वोडुपं व्यसनमुत्तर दुस्तरार्णम् । । ( श्रीमद्धा॰ ४ । २२ । ३३ – ३४, ४०) ‘धन और इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करना मनुष्यके सभी पुरुषार्थोंका नाश करनेवाला है; क्योंकि इनकी चिन्तासे वह ज्ञान और विज्ञानसे भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियोंमें जन्म पाता है । इसलिये जिसे अज्ञानान्धकारसे पार होनेकी इच्छा हो, उस पुरुषको विषयोंमें आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिमें बड़ी बाधक है ।’ ‘जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरोंसे संकुल इस संसार-सागरको योगादि दुष्कर साधनोंसे पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुंचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरिका आश्रय नहीं है । अत: तुम तो भगवान्के आराधनीय चरण-कमलोंको नौका बनाकर अनायास इस दुस्तर दुःख-समुद्र को पार कर लो । भगवान् सनकादिके इस अमृतमय उपदेशसे आप्यायित होकर आदिराज पृथु ने उनकी स्तुति करते हुए पुन : उनकी श्रद्धा – भक्तिपूर्वक सविधि पूजा की । ऋषिगण प्रलयके कारण पहले कल्पका आत्मज्ञान गये थे । श्रीभगवान्ने अपने इस अवतारमें उन्हें यथोचित उपदेश दिया, जिससे उन लोगोंने शीघ्र ही अपने हृदयमें उस तत्त्वका साक्षात्कार कर लिया । सनकादि अपने योगबलसे अथवा ‘हरि: शरणम्’ मन्त्रके जप-प्रभावसे सदा पाँच वर्षके ही कुमार बने रहते हैं । ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्यज्ञान-विशारद, धर्मशास्त्रों के आचार्य तथा मोक्षधर्मके प्रवर्तक हैं । श्रीनारदजीको इन्होंने श्रीमद्भागवत का उपदेश किया था ।’ भगवान् सनत्कुमारने ऋषियोंके तत्त्वज्ञान-सम्बन्धी प्रश्नके उत्तरमें सुविस्तृत उपदेश देते हुए बताया था- नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तप: । नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ।। निवृत्ति: कर्मण: पापात् सततं पुण्यशीलता । सदवृत्ति: समुदाचार: श्रेय एतदनुत्तमम् ।। ( महा०, शान्ति० ३२९ । ६ – ७) ‘विद्याके समान कोई नेत्र नहीं है । सत्यके समान कोई तप नहीं है । रागके समान कोई दु:ख नहीं है और त्यागके समान कोई सुख नहीं है । पापकर्मोंसे दूर रहना, सदा पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करना, श्रेष्ठ पुरुषोंके-से बर्ताव और सदाचारका पालन करना-यही सर्वोत्तम श्रेय (कल्याण) -का साधन है ।’ प्राणिमात्रके सच्चे शुभाकाङक्षी कुमार-चतुष्टय के पावन पद-पद्यों में अनन्त प्रणाम ! Related