July 31, 2015 | aspundir | Leave a comment सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों ? हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्य का आरम्भ करने के पूर्व गणेश जी की पूजा करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि उन्हें विघ्नहर्ता व ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी कहा जाता है। इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं की पूर्ति होती है व विघ्नों का विनाश होता है। वे शीघ्र प्रसन्न होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात् प्रणव रूप हैं। प्रत्येक शुभ कार्य के पूर्व ‘श्री गणेशाय नमः’ का उच्चारण कर उनकी स्तुति में यह मंत्र बोला जाता है – वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभः। निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा।। गणेश जी विद्या के देवता हैं। साधना में उच्चस्तरीय दूरदर्शिता आ जाए, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य की पहचान हो जाए, इसीलिये सभी शुभ कार्यों में गणेश पूजन का विधान बनाया गया है। शास्त्रीय प्रमाणों में पंचदेवों की उपासना सम्पूर्ण कर्मों में प्रख्यात है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ कोश में लिखा है – आदित्यं गणनाथं च देवीं रूद्रं च केशवम्। पंचदैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत्।। पंचदेवों की उपासना का रहस्य पंचभूतों के साथ सम्बन्धित है। पंचभूतों में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश प्रख्यात हैं और इन्हीं के आधिपत्य के कारण से आदित्य, गणनाथ(गणेश), देवी, रूद्र और केशव- ये पंचदेव भी पूजनीय प्रख्यात हैं। एक-एक तत्त्व का एक-एक देवता स्वामी है- आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी। वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः।। क्रम निम्न प्रकार है- महाभूत अधिपति 1. क्षिति (पृथ्वी) शिव 2. अप् (जल) गणेश 3. तेज (अग्नि) शक्ति (महेश्वरी) 4. मरूत् (वायु) सूर्य (अग्नि) 5. व्योम (आकाश) विष्णु भगवान् श्रीशिव पृथ्वी तत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी पार्थिव-पूजा का विधान है। भगवान् विष्णु के आकाश तत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी शब्दों द्वारा स्तुति का विधान है। भगवती देवी के अग्नि तत्त्व का अधिपति होने के कारण उनका अग्निकुण्ड में हवनादि के द्वारा पूजा का विधान है। श्रीगणेश के जलतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा का विधान है; क्योंकि सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले तत्त्व ‘जल’ का अधिपति होने के कारण गणेशजी ही प्रथमपूज्य के अधिकारी होते हैं। मनु का कथन है-‘अप एच ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत्।’ (मनुस्मृति 1। 8) इस प्रमाण से सृष्टि के आदि में एकमात्र वर्तमान जल का अधिपति गणेश हैं। गणेश शब्द का अर्थ है – गणों का स्वामी। हमारे शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और चार अन्तःकरण हैं, इनके पीछे जो शक्तियाँ हैं, उन्हीं को चौदह देवता कहते हैं। इन देवताओं के मूल प्रेरक हैं भगवान् श्रीगणेश। वस्तुतः भगवान् गणपति शब्दब्रह्म अर्थात् ओंकार के प्रतीक हैं, इनकी महत्ता का यह मुख्य कारण है। श्रीगणपत्यथर्वशीर्ष में कहा गया है कि ओंकार का ही व्यक्त स्वरूप गणपति देवता हैं। इसी कारण सभी प्रकार के मंगल कार्यों और देवता-प्रतिष्ठापनाओं के आरम्भ में श्रीगणपति की पूजा की जाती है। जिस प्रकार प्रत्येक मन्त्र के आरम्भ में ओंकार (ॐ) का उच्चारण आवश्यक है, उसी प्रकार प्रत्येक शुभ अवसर पर भगवान् गणपति की पूजा एवं स्मरण अनिवार्य है। यह परम्परा शास्त्रीय है। वैदिक धर्मान्तर्गत समस्त उपासना-सम्प्रदायों ने इस प्राचीन परम्परा को स्वीकार कर इसका अनुसरण किया है। गणेश जी की ही पूजा सबसे पहले क्यों होती है, इसकी पौराणिक कथा इस प्रकार है – पद्मपुराण के अनुसार (सृष्टिखण्ड 61। 1 से 63। 11) – एक दिन व्यासजी के शिष्य महामुनि संजय ने अपने गुरूदेव को प्रणाम करके प्रश्न किया कि गुरूदेव! आप मुझे देवताओं के पूजन का सुनिश्चित क्रम बतलाइये। प्रतिदिन की पूजा में सबसे पहले किसका पूजन करना चाहिये ? तब व्यासजी ने कहा – संजय विघ्नों को दूर करने के लिये सर्वप्रथम गणेशजी की पूजा करनी चाहिये। पूर्वकाल में पार्वती देवी को देवताओं ने अमृत से तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक दिया। मोदक देखकर दोनों बालक (स्कन्द तथा गणेश) माता से माँगने लगे। तब माता ने मोदक के प्रभावों का वर्णन कर कहा कि तुममें से जो धर्माचरण के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसी को मैं यह मोदक दूँगी। माता की ऐसी बात सुनकर स्कन्द मयूर पर आरूढ़ हो मुहूर्तभर में सब तीर्थों की स्न्नान कर लिया। इधर लम्बोदरधारी गणेशजी माता-पिता की परिक्रमा करके पिताजी के सम्मुख खड़े हो गये।तब पार्वतीजी ने कहा- समस्त तीर्थों में किया हुआ स्न्नान, सम्पूर्ण देवताओं को किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब प्रकार के व्रत, मन्त्र, योग और संयम का पालन- ये सभी साधन माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते। इसलिये यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणों से भी बढ़कर है। अतः देवताओं का बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेश को ही अर्पण करती हूँ। माता-पिता की भक्ति के कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञ में सबसे पहले पूजा होगी। तत्पश्चात् महादेवजी बोले- इस गणेश के ही अग्रपूजन से सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हों। लिंगपुराण के अनुसार (105। 15-27) – असुरों से त्रस्त देवतागणों की प्रार्थना पर पार्वतीवल्लभ शिव ने अभिष्ट वर देकर सुर-समुदाय को आश्वस्त किया। कुछ ही समय के पश्चात् सर्वलोकमहेश्वर शिव की सती पत्नी पार्वती के सम्मुख परब्रह्मस्वरूप स्कन्दाग्रज का प्राकट्य हुआ। उक्त सर्वविघ्नेश मोदक-प्रिय गजमुख का जातकर्मादि संस्कार के पश्चात् सर्वदुरितापहारी कल्याणमूर्ति शिव ने अपने पुत्र को उसका कर्तव्य समझाते हुए आशीर्वाद दिया कि ‘……….जो तुम्हारी पूजा किये बिना श्रौत, स्मार्त या लौकिक कल्याणकारक कर्मों का अनुष्ठान करेगा, उसका मंगल भी अमंगल में परिणत हो जायेगा। ……………………. जो लोग फल की कामना से ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र अथवा अन्य देवताओं की भी पूजा करेंगे, किन्तु तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, उन्हें तुम विघ्नों द्वारा बाधा पहुँचाओगे।’ ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार (गणपतिखण्ड) – पूर्वकाल में शुभफलप्रद ‘पुण्यक’ व्रत के प्रभाव से माता पार्वती को गणेशरूप श्रीकृष्ण पुत्ररूप में प्राप्त हुए। श्रीगणेश के प्राकट्योत्सव पर अन्य सुर-समुदाय के साथ शनिदेवजी भी क्षिप्रक्षेमकर शंकरनन्दन के दर्शनार्थ आये हुए थे। किन्तु पत्नी द्वारा दिये गये शाप को यादकर शिशु को नहीं देखा, परन्तु माता पार्वती के बार-बार कहने पर, ज्योंही उन्होनें गणेश की ओर देखा, त्योंही उनका सिर धड़ से पृथक् हो गया। तब भगवान् विष्णु पुष्पभद्रा नदी के अरण्य से एक गजशिशु का मस्तक काटकर लाये और गणेशजी के मस्तक पर लगा दिया। तब भगवान् विष्णु ने श्रेष्ठतम उपहारों से पद्मप्रसन्ननयन गजानन की पूजा की और आशः प्रदान की – सर्वाग्रे तव पूजा च मया दत्ता सुरोत्तम। सर्वपूज्यश्च योगीन्द्रो भव वत्सेत्युवाच तम्।। (गणपतिखं. 13। 2) ‘सुरश्रेष्ठ! मैंने सबसे पहले तुम्हारी पूजा की है, अतः वत्स! तुम सर्वपूज्य तथा योगीन्द्र होओ।’ ब्रह्मवैवर्त पुराण में ही एक अन्य प्रसंगान्तर्गत पुत्रवत्सला पार्वती ने गणेश महिमा का बखान करते हुए परशुराम से कहा – त्वद्विधं लक्षकोटिं च हन्तुं शक्तो गणेश्वरः। जितेन्द्रियाणां प्रवरो नहि हन्ति च मक्षिकाम्।। तेजसा कृष्णतुल्योऽयं कृष्णांश्च गणेश्वरः। देवाश्चान्ये कृष्णकलाः पूजास्य पुरतस्ततः।। (ब्रह्मवैवर्तपु., गणपतिख., 44। 26-27) ‘जितेन्द्रिय पुरूषों में श्रेष्ठ गणेश तुम्हारे-जैसे लाखों-करोड़ों जन्तुओं को मार डालने की शक्ति रखता है; परन्तु वह मक्खी पर भी हाथ नहीं उठाता। श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुआ वह गणेश तेज में श्रीकृष्ण के ही समान है। अन्य देवता श्रीकृष्ण की कलाएँ हैं। इसीसे इसकी अग्रपूजा होती है। स्कन्दपुराण के अनुसार एक माता पार्वती ने विचार किया कि उनका स्वयं का एक सेवक होना चाहिये, जो परम शुभ, कार्यकुशल तथा उनकी आज्ञा का सतत पालन करने में कभी विचलित न हो। इस प्रकार सोचकर त्रिभुवनेश्वरी उमा ने अपने मंगलमय पावनतम शरीर के मैल से एक चेतन पुरूष का निर्माण कर उसे पुत्र कहा तथा उसे द्वारपाल नियुक्त कर स्वयं स्न्नान करने चली गयी। कुछ समय पश्चात् वहाँ भगवान शिव आये तो दण्डधारी गणराज ने उनका प्रवेश वहाँ निषिद्ध कर दिय। जिससे कुपित शिव ने अपने शिवगणों को युद्ध की आज्ञा दी, किन्तु युद्ध में गणराज का अद्भुत पराक्रम को देखकर अन्त में भगवान शिव ने अपना तीक्ष्णतम शूल उन पर फेंका, जिससे गणेश का मस्तक कटकर दूर जा गिरा। पुत्र के शिरश्छेदन से शिवा कुपित हो गयी और विश्व-संहार का संकल्प लिया। भयभीत देवता, ऋषि-महर्षियों की भावपूर्ण स्तुति-प्रार्थना से द्रवित जननी ने उसे पुनः जीवित करने के लिये कहा। तब भगवान शिव के आदेश से देवताओं ने एक गज का सिर काटकर उस बालक को जीवित किया। उस अवसर पर त्रिदेवों ने उन्हें अग्रपूज्यता का वर प्रदान किया और उन्हें सर्वाध्यक्ष-पद पर अभिषिक्त किया। डा. प्रभाकर त्रिवेदी ने पत्रिका कल्याण वर्ष 48 अंक 1 पृष्ठ 140 पर श्रीगणेशजी की अग्रपूजा के रहस्य के सम्बन्ध में दो आध्यात्मिक व्याख्याएँ प्रस्तुत की है, जो मननीय है – (1) ‘गणेश’ शब्द का अर्थ होता है – ‘समुदाय अथवा समुदायों का स्वामी – ‘गणस्य ईशो गणानामीशो वा। ’प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि गणेशजी किस समुदाय के स्वामी हैं ? पौराणिक व्याख्या के अनुसार वे भगवान् शंकर के भृत्यों के स्वामी माने गये हैं। प्रथम – आध्यात्मिक व्याख्या के अनुसार मैं गणेशजी को राग-द्वेषादिरहित शुद्ध मन का प्रतीक मानता हूँ। यह मत प्रायः सभी भारतीय दर्शनों के अनुसार पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पाँच कर्मेन्द्रियाँ – इन दस इन्द्रियों के समुदाय का स्वामी माना जाता है। अतः इस व्याख्या के अनुसार गणेश का अर्थ हुआ – दस इन्द्रियों के समुदाय का स्वामी। ऐसे गणेशजी की अग्रपूजा अर्थात् उपासना का महत्त्व वेदों में भी स्वीकार किया गया है ‘तनमे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ (यजुर्वेद, अ. 34), ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः (ब्रह्मबिन्दु उप. 2)।’ पूर्व उपासना द्वारा मन के शुद्ध एवं समाहित हुए बिना शुद्ध-बुद्धिस्वरूपा पार्वती देवी (अर्थात् ब्रह्मविद्या) का आविर्भाव नहीं हो सकता (केनोप. 3। 12) इससे जगज्जननी माता पार्वती को ब्रह्मविद्यास्वरूपिणी स्वीकार करने का स्वारस्य स्पष्ट हो जाता है, यदि हम नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप आत्मा-ब्रह्म एवं शंकर में कोई भेद न मानें। उपनिषदों एवं गीता आदि में भी इनमें कोई तात्त्विक भेद स्वीकार नहीं किया गया है। माता पार्वती को ब्रह्मविद्या का प्रतीक केनोपनिषद् के यक्षोपाख्यान की व्याख्या में स्वामी शंकराचार्य ने भी माना है। इस प्रकार भगवान् शंकररूपी ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर जीवन का चरम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त करने के लिये ब्रह्मविद्यास्वरूपिणी उमा, पार्वती (केनोपनिषद् की भाषा में ‘हेमवती’) का आविर्भाव आवश्यक है तथा उसके लिये शिवसंकल्प, राग-द्वेषादिरहित शुद्ध मनःस्वरूपी गणेशजी की अग्रपूजा अर्थात् उपासना की आवश्यकता पड़ती है। (2) दूसरी आध्यात्मिक व्याख्या योगपरक है। तन्त्र शास्त्र की मान्यता के अनुसार मेरूदण्ड के भीतर ‘सुषुम्णा’ नाम की एक अत्यन्त सुक्ष्म नाड़ी है, जो गुदा एवं उपस्थ के बीच कुछ ऊपर से होती हुई ब्रह्मरन्ध्र तक चली गयी है। इस नाड़ी के बायें-दायें से होती हुई ‘इडा’ एवं ‘पिंगला’ नाम की दो नाड़ियाँ एक दूसरे से विपरीत दिशा में चलती हुई कुछ स्थानों पर एक दूसरे का व्यतिक्रमण करती है। इन स्थानों को ‘चक्र’ कहते हैं। ये चक्र नीचे से ऊपर तक सात हैं, जिनके नाम हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा एवं सहस्त्रार। इन चक्रों पर ध्यान करते-करते योगियों को विलक्षण रंग-रूप् के विकसित कमल दीख पड़ते हैं। इन कमलों के दलों की संख्या तथा उनका रंग आदि भिन्न-भिन्न होते हैं तथा प्रत्येक दल पर किसी न किसी बीजाक्षर का तथा उस चक्र पर उसके अधिष्ठातृ देवता का जीवन्त दर्शन होता है। उदाहरणार्थ, मूलाधार चक्र का रंग पीला, दलों की संख्या चार तथा उसके अधिष्ठाता देवता स्वयं गणेशजी हैं। जिस तरह श्रीरामचन्द्रजी के मन्दिर में द्वारपर स्थित श्रीहनुमान्-विग्रह के दर्शन-वन्दन के उपरान्त ही श्रीराम विग्रह का दर्शन-वन्दन करना चाहिये, अन्यथा श्रीहनुमान्जी के अतिक्रमण-अपमान के दोष का भागी बनना पड़ेगा; उसी प्रकार पहले मूलाधार चक्र पर श्रीगणेशजी का दर्शन नमस्कार आदि करने के उपरान्त ही आगे बढ़ने का अधिकार प्राप्त होगा। क्रमशः आगे बढ़ते हुए आपको विभिन्न चक्रों पर विभिन्न देवताओं के दर्शन होंगे। इस व्याख्या के अनुसार सर्वप्रथम श्रीगणेशजी का दर्शन एवं नमस्कार आदि के रूप में अग्रपूजा अनिवार्य हो जाती है। Related