October 10, 2015 | aspundir | Leave a comment सर्वोपयोगी अनुभूत साधना इस ‘साधना-क्रम’ में तीन उपासनाएँ है-(१) श्री गायत्री उपासना, (२) श्री दुर्गोपासना एवं (३) श्री बटुक-भैरवोपासना। प्रतिदिन प्रातःकाल और रात्रि-भोजन के पूर्व, निजी आसन पर बैठकर नियमित रुप से निश्वित समय पर इस साधना कप करने से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं एवं सुख-समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। साधना के समय अपने समक्ष एक ‘दीपक’ या अगरबत्ती या दोनों को प्रज्जवलित कर रख लें। साधना का समय और स्थल निश्चित रखें। १॰ श्री गायत्री उपासना (क) आत्म शोधन प्रातःकाल एवं रात्रि में भोजन से पूर्व निश्चित समय पर, शुद्ध होकर, शुद्ध वस्त्र पहनकर, शुद्ध स्थान में पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके बैठे। पूजा-स्थान में अपने सम्मुख पहले से स्थापित ‘पञ्च-पात्र’ के जल में, निम्न मन्त्र से ‘अंकुश-मुद्रा’ द्वारा ‘सूर्य-मण्डल’ से तीर्थों का आवाहन करें- “ॐ गंगे च यमुने चैव, गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे सिन्धु कावेरि! जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।” फिर ‘पञ्च-पात्र’ से बाँए हाथ की हथेली में जल लेकर, निम्न मन्त्र पढ़ते हुए, उस जल को दाएँ हाथ की मध्यमा-अनामिका अँगुलियों से अपने ऊपर छिड़के- “ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।” (ख) आचमन ‘आत्म-शोधन’ करने के बाद ‘पञ्च-पात्र’ से पुनः दाएँ हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करे- “ॐ आत्म-तत्त्वं शोधयामि स्वाहा।” “ॐ विद्या-तत्त्वं शोधयामि स्वाहा।” “ॐ शिव-तत्त्वं शोधयामि स्वाहा।” (ग) माँ गायत्री का ध्यान अब हाथ जोड़कर माँ गायत्री का ध्यान करें- “ॐ मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील-धवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणैः, युक्तामिन्दु-निबद्ध-रत्न-मुकुटां तत्त्वार्थ-वर्णात्मिकाम्। गायत्रीङ वरदाभयांकुश-कशां शूलं कपालं गुणम्, शंखं चक्रमथारविन्द-युगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे।।” अर्थात्- माँ गायत्री पाँच मुखवाली हैं। १॰ मुक्ता अर्थात् मोती जैसा, २॰ विद्रुम अर्थात् मूँगे जैसा, ३॰ हेम अर्थात् सुवर्ण जैसा, ४॰ नील-मणि जैसा और ५॰ धवल। इससे यह बोध होता है कि माँ पञ्व-प्राण-धारिणी है। माँ गायत्री के तीन आँखें हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि माँ त्रि-विद्या वाली है। माँ गायत्री के रत्न-जटित मुकुट पर चन्द्रमा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि माँ ज्योतिर्मयी अमृतवर्षिणी है। माँ गायत्री शब्द-ब्रह्म-स्वरुपा है। नाद महाशक्ति या मनोमयी स्पन्द शक्ति है। (घ) मन्त्र जप ध्यान कर चुकने पर ‘श्रीगायत्री-मन्त्र’ का ११ बार जप करे- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।” अर्थात् ‘ॐ’ में निहित इच्छा-क्रिया-ज्ञान, सृष्टि-स्थिति-संहार, सत-रज-तम आदि शक्तियों को पुष्ट करने वाले और भू-लोक (मृत्यु-लोक), भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) एवं स्वर्लोक (स्वर्ग-लोक) को जीवन्त बनाए रखनेवाले श्री सविता देवता (सूर्य देव) का वह श्रेष्ठ तेज हमारी धियों (मन, बुद्धि, चित् और अहं) को अग्रसर होने को प्रेरित करे। हम उस तेज का ध्यान करते हैं। (ड़) श्रीगायत्री-मन्त्र-जप का समर्पण ११ बार गायत्री मन्त्र का जप कर चुकने पर हाथ जोड़कर जप के फल को माँ गायत्री श्री सविता देवता की प्रसन्नता प्राप्ति हेतु समर्पित करें- “अनेन कृतेन श्रीगायत्री-मन्त्र-जपेन श्री सविता-देवता प्रीयतां नमः।” २॰ श्री दुर्गोपासना श्रीगायत्री-मन्त्र-जप के बाद ‘सप्त-श्लोकी चण्डी’ का विधिवत् पाठ करें- (क) ध्यान ॐ विद्युद्-दाम-सम-प्रभां मृग-पति-स्कन्ध-स्थितां भीषणाम्, कन्याभिः करवाल-खेट-विलसद्-हस्ताभिरासेविताम्। हस्तैश्चक्र-गदाऽसि-खेट-विशिखांश्चापं गुणं तर्जनीम्, विभ्राणामनलात्मिकां शशि-धरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे।।” अर्थात् तेजोरुपा माँ दुर्गा बिजली के सदृश वर्णवाली है। मृगपति अर्थात् सिंह के स्कन्ध या ग्रीवा (गर्दन) पर सवार है। भीषण अ्रथात् डरावनी आकृतिवाली हैं। हाथों में करवाल-खड्ग और ढाल लिए कन्याओं से घिरी हैं। भुजाओं में १॰ चक्र, २॰ गदा, ३॰ खड्ग, ४॰ ढाल, ५॰ शर, ६॰ धनुष, ७॰ गुण (रस्सी या पाश) और ८॰ तर्जनी-मुद्रा (सावधान करनेवाली) रखे हैं। तीन नेत्रोंवाली है। (ख) मानस-पूजन उक्त प्रकार ‘ध्यान’ करने के बाद माँ दुर्गा का मानसिक पूजन करे- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीजगदम्बा-दुर्गा-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीजगदम्बा-दुर्गा-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीजगदम्बा-दुर्गा-प्रीतये घ्रापयामि नमः। ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्रीजगदम्बा-दुर्गा-प्रीतये दर्शयामि नमः। ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीजगदम्बा-दुर्गा-प्रीतये निवेदयामि नमः। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीजगदम्बा-दुर्गा-प्रीतये समर्पयामि नमः। (ग) सप्त-श्लोकी चण्डी मानस-पूजन के बाद सप्त-श्लोकी चण्डी-पाठ करे- ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय, महा-माया प्रयच्छति।।१ ॐ दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि। दारिद्र्य-दुःख-भय-हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।।२ ॐ सर्व-मंगल-मंगल्ये! शिवे! सर्वार्थ-साधिके़! शरण्ये! त्र्यम्बके! गौरि! नारायणि! नमोऽस्तु ते।।३ ॐ शरणागत-दीनार्त -परित्राण -परायणे! सर्वस्यार्ति-हरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।४ ॐ सर्व-स्वरुपे सर्वेशे सर्व-शक्ति-समन्विते। भतेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते।।५ ॐ रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणाम् ह्याश्रयतां प्रयान्ति।।६ ॐ सर्वा-बाधा-प्रशमनं, त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्-वैरि-विनाशनम्।।७ ।।फल-श्रुति।। ॐ य एतत् परमं गुह्यं, सर्व-रक्षा-विशारदम्। देव्याःसम्भाषित-स्तोत्रं, सदा साम्राज्य-दायकम्। श्रृणुयाद् वा पठेद् वापि, पाठयेद् वापि यत्नतः। परिवार-युतो भूत्वा, त्रैलोक्य-विजयी भवेत्। ।।क्षमा-प्रार्थना।। ॐ मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि। यत्-पठितं मया देवि, परिपूर्णं तदस्तु मे।। ।।पाठ-समर्पण।। ॐ गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गृहाणास्मत्-कृतं जपम्। सिद्धिर्मे-भवतु देवि त्वत्-प्रसादान्महेश्वरि।। ३॰ श्रीबटुक उपासना (क) ध्यान वन्दे बालं स्फटिक-सदृशम्, कुन्तलोल्लासि-वक्त्रम्। दिव्याकल्पैर्नव-मणि-मयैः, किंकिणी-नूपुराढ्यैः।। दीप्ताकारं विशद-वदनं, सुप्रसन्नं त्रि-नेत्रम्। हस्ताब्जाभ्यां बटुकमनिशं, शूल-दण्डौ दधानम्।। अर्थात् भगवान् श्रीबटुक-भैरव बालक रुपी हैं। उनकी देह-कान्ति स्फटिक की तरह है। घुँघराले केशों से उनका चेहरा प्रदीप्त है। उनकी कमर और चरणों में नव मणियों के अलंकार जैसे किंकिणी, नूपुर आदि विभूषित हैं। वे उज्जवल रुपवाले, भव्य मुखवाले, प्रसन्न-चित्त और त्रिनेत्र-युक्त हैं। कमल के समान सुन्दर दोनों हाथों में वे शूल और दण्ड धारण किए हुए हैं। भगवान श्रीबटुक-भैरव के इस सात्विक ध्यान से सभी प्रकार की अप-मृत्यु का नाश होता है, आपदाओं का निवारण होता है, आयु की वृद्धि होती है, आरोग्य और मुक्ति-पद लाभ होता है। (ख) मानस-पूजन उक्त प्रकार ‘ध्यान’ करने के बाद श्रीबटुक-भैरव का मानसिक पूजन करे- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये घ्रापयामि नमः। ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये निवेदयामि नमः। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः। (ग) मूल-स्तोत्र ॐ भैरवो भूत-नाथश्च, भूतात्मा भूत-भावनः। क्षेत्रज्ञः क्षेत्र-पालश्च, क्षेत्रदः क्षत्रियो विराट्।।१ श्मशान-वासी मांसाशी, खर्पराशी स्मरान्त-कृत्। रक्तपः पानपः सिद्धः, सिद्धिदः सिद्धि-सेवितः।।२ कंकालः कालः-शमनः, कला-काष्ठा-तनुः कविः। त्रि-नेत्रो बहु-नेत्रश्च, तथा पिंगल-लोचनः।।३ शूल-पाणिः खड्ग-पाणिः, कंकाली धूम्र-लोचनः। अभीरुर्भैरवी-नाथो, भूतपो योगिनी-पतिः।।४ धनदोऽधन-हारी च, धन-वान् प्रतिभागवान्। नागहारो नागकेशो, व्योमकेशः कपाल-भृत्।।५ कालः कपालमाली च, कमनीयः कलानिधिः। त्रि-नेत्रो ज्वलन्नेत्रस्त्रि-शिखी च त्रि-लोक-भृत्।।६ त्रिवृत्त-तनयो डिम्भः शान्तः शान्त-जन-प्रिय। बटुको बटु-वेषश्च, खट्वांग-वर-धारकः।।७ भूताध्यक्षः पशुपतिर्भिक्षुकः परिचारकः। धूर्तो दिगम्बरः शौरिर्हरिणः पाण्डु-लोचनः।।८ प्रशान्तः शान्तिदः शुद्धः शंकर-प्रिय-बान्धवः। अष्ट-मूर्तिर्निधीशश्च, ज्ञान-चक्षुस्तपो-मयः।।९ अष्टाधारः षडाधारः, सर्प-युक्तः शिखी-सखः। भूधरो भूधराधीशो, भूपतिर्भूधरात्मजः।।१० कपाल-धारी मुण्डी च, नाग-यज्ञोपवीत-वान्। जृम्भणो मोहनः स्तम्भी, मारणः क्षोभणस्तथा।।११ शुद्द-नीलाञ्जन-प्रख्य-देहः मुण्ड-विभूषणः। बलि-भुग्बलि-भुङ्-नाथो, बालोबाल-पराक्रम।।१२ सर्वापत्-तारणो दुर्गो, दुष्ट-भूत-निषेवितः। कामीकला-निधिःकान्तः, कामिनी-वश-कृद्वशी।।१३ जगद्-रक्षा-करोऽनन्तो, माया-मन्त्रौषधी-मयः। सर्व-सिद्धि-प्रदो वैद्यः, प्रभ-विष्णुरितीव हि।।१४ ।।फल-श्रुति।। अष्टोत्तर-शतं नाम्नां, भैरवस्य महात्मनः। मया ते कथितं देवि, रहस्य सर्व-कामदम्।।१५ य इदं पठते स्तोत्रं, नामाष्ट-शतमुत्तमम्। न तस्य दुरितं किञ्चिन्न च भूत-भयं तथा।।१६ न शत्रुभ्यो भयं किञ्चित्, प्राप्नुयान्मानवः क्वचिद्। पातकेभ्यो भयं नैव, पठेत् स्तोत्रमतः सुधीः।।१७ मारी-भये राज-भये, तथा चौराग्निजे भये। औत्पातिके भये चैव, तथा दुःस्वप्नजे भये।।१८ बन्धने च महाघोरे, पठेत् स्तोत्रमनन्य-धीः। सर्वं प्रशममायाति, भयं भैरव-कीर्तनात्।।१९ ।।क्षमा-प्रार्थना।। आवाहनङ न जानामि, न जानामि विसर्जनम्। पूजा-कर्म न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर।। मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वर। मया यत्-पूजितं देव परिपूर्णं तदस्तु मे।। श्री बटुक-बलि-मन्त्र १॰ “ॐ ॐ ॐ एह्येहि देवी-पुत्र, श्री मदापद्धुद्धारण-बटुक-भैरव-नाथ, सर्व-विघ्नान् नाशय नाशय, इमं स्तोत्र-पाठ-पूजनं सफलं कुरु कुरु सर्वोपचार-सहितं बलिमिमं गृह्ण गृह्ण स्वाहा, एष बलिर्वं बटुक-भैरवाय नमः।” २॰ “ॐ बलि-दानेन सन्तुष्टो, बटुकः सर्व-सिद्धिदः। रक्षां करोतु मे नित्यं, भूत-वेताल-सेवितः।।” Related