September 18, 2015 | Leave a comment सर्व-कार्य-सिद्धि के लिये “ॐ नमो भगवते सर्वरक्षकाय ह्रीं ॐ मां रक्ष रक्ष सर्वसौभाग्यभाजनं मां कुरु कुरु स्वाहा।” इस मन्त्र का हरिद्रा अथवा तुलसी की माला पर प्रतिदिन १०८ बार जप करना चाहिये और जप के अनन्तर रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड के निम्नलिखित ग्यारहवें दोहे के बाद वाली चौपाई से लेकर उत्तरकाण्ड के चौदहवें दोहे तक पाठ करना चाहिये। चौ॰-प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा, तुरत दिब्य सिंघासन मागा || रबि सम तेज सो बरनि न जाई, बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई || जनकसुता समेत रघुराई, पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई || बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे, नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे || प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा, पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा || सुत बिलोकि हरषीं महतारी, बार बार आरती उतारी || बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे, जाचक सकल अजाचक कीन्हे || सिंघासन पर त्रिभुअन साई, देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं || छं -नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं, नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं || भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते, गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ||१ || श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई, नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई || मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे, अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ||२ || दो -वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस, बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ||१२(क) || भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम, बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ||१२(ख) || प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान, लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ||१२(ग) || छं -जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने, दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने || अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे, जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ||१ || तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे, भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे || जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे, भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ||२ || जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी, ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी || बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे, जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ||३ || जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी, नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी || ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे, पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ||४ || अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने, षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने || फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे, पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ||५ || जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं, ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं || करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं, मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ||६ || दो -सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार, अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ||१३(क) || बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर, बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ||१३(ख) || छं -जय राम रमारमनं समनं, भव ताप भयाकुल पाहि जनं || अवधेस सुरेस रमेस बिभो, सरनागत मागत पाहि प्रभो ||१ || दससीस बिनासन बीस भुजा, कृत दूरि महा महि भूरि रुजा || रजनीचर बृंद पतंग रहे, सर पावक तेज प्रचंड दहे ||२ || महि मंडल मंडन चारुतरं, धृत सायक चाप निषंग बरं || मद मोह महा ममता रजनी, तम पुंज दिवाकर तेज अनी ||३ || मनजात किरात निपात किए, मृग लोग कुभोग सरेन हिए || हति नाथ अनाथनि पाहि हरे, बिषया बन पावँर भूलि परे ||४ || बहु रोग बियोगन्हि लोग हए, भवदंघ्रि निरादर के फल ए || भव सिंधु अगाध परे नर ते, पद पंकज प्रेम न जे करते ||५ || अति दीन मलीन दुखी नितहीं, जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं || अवलंब भवंत कथा जिन्ह के, प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ||६ || नहिं राग न लोभ न मान मदा, तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा || एहि ते तव सेवक होत मुदा, मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||७ || करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ, पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ || सम मानि निरादर आदरही, सब संत सुखी बिचरंति मही ||८ || मुनि मानस पंकज भृंग भजे, रघुबीर महा रनधीर अजे || तव नाम जपामि नमामि हरी, भव रोग महागद मान अरी ||९ || गुन सील कृपा परमायतनं, प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं || रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं, महिपाल बिलोकय दीन जनं ||१० || दो -बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग, पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ||१४(क) || बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास, तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ||१४(ख) || Related