August 24, 2015 | aspundir | Leave a comment साधना का स्थान साधना के लिए समुचित स्थान का चयन करना प्रथम कार्य है । इस सम्बन्ध में तन्त्र-शास्त्र में स्पष्ट निर्देश मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि दो प्रकार के ‘स्थान’ होते हैं – १॰ प्राकृतिक तथा २॰ मानव द्वारा निर्मित स्थान । इन स्थानों में से उपयुक्त स्थान को चुनकर वहाँ साधना करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति निश्चित रुप से होती है । अनुभवी साधकों के अनुसार जिस स्थान पर बैठने से मन को शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव हो, वह स्थान साधना के लिए सर्वोत्तम होता है । ऐसे स्थानों को चुनने में साधक को सरलता हो, इसी उद्देश्य से उक्त दो प्रकार के स्थानों का विवरण शास्त्रो में यथा-स्थान दिया गया है । १॰ प्राकृतिक स्थान प्रकृति के खुले प्रदेश में साधना का उपयोगी स्थान यदि सुलभ हो, तो वहाँ बैठकर साधना करने से सहज ही सिद्धि प्राप्त होती है । ऐसे स्थानओं में निम्न उल्लेखनीय है – पर्वत का शिखर-भाग, पर्वत का तटीय प्रदेश (तराई), पर्वत की गुफा, पवित्र वन (तपो-वन), तुलसी-वन, प्रशस्त वृक्ष (वट, बिल्व, पिप्पल, आँवला आदि के नीचे), पवित्र नदी, सरोवर, सागर का तट, पवित्र निर्जन प्रदेश, जल के मध्य में, नदी-संगम प्रदेश तथा तीर्थ क्षेत्र । प्राकृतिक स्थान में बैठने से मन स्वाभाविक रुप से उल्लसित होता है । पर्वत, वन, नदी, निर्जन प्रदेश आदि स्थानों में शान्त वातावरण सहज ही सुलभ रहता है, जिससे बिना किसी विघ्न बाधा के शान्ति के साथ साधना सम्पन्न होती है । विभिन्न ‘तीर्थ-स्थानों’ में ऐसे स्थान अधिकता से दृष्टि-गत होते हैं, जहाँ प्राचीन-काल से अब तक लोग साधना के सफलता प्राप्त करते आ रहे हैं । इसी से शास्त्रोक्ति है कि – वाराणसी में ‘जप’ करने से उसका पूरा फल मिलता है । पुरुषोत्तम-क्षेत्र में उससे दूना फल, द्वारका में उससे भी दूना, विन्ध्य, प्रयाग और पुष्कर में उससे सौ गुना, करतोया नदी के जल में इन सब की अपेक्षा चार गुना, नन्दी-कुण्ड में उसका चार गुना, सिद्धेश्वरी-योनि में उसका दूना, ब्रह्म-पुत्र नद में उसका चार गुना, काम-रुप के जल-स्थल में उसी के समान, नीलाञ्चल पर्वत के शिखर पर उसका दूना और कामाख्या-योनि-पीठ में उसका सौ गुना फल होता है । इत्यादि । उक्त तीर्थों के उत्तरोत्तर गुण-वर्णन का आशय यही है कि साधना में स्थान का विशेष महत्त्व है । ऊपर वर्णित तीर्थ-क्षेत्र सबको सुलभ नहीं हो सकते, इसी से अन्य प्रकार के स्थानों का उल्लेख शास्त्रों में ऋषियों द्वारा किया गया है । इन उल्लिखित स्थानों में से किसी भी स्थान का उपयोउ करके साधना में अभीष्ट सिद्धि पाई जा सकती है । २॰ मानव द्वारा निर्मित स्थान शून्य गृह, गुरु-देव का गृह, उपवन (उद्यान), गो-शाला, एल-लिंग शिवालय (जिस शिव मन्दिर के पाँच कोस-दस मील तक दूसरा शिव-लिंग न हो), वृष-शून्य शिव-स्थान (मन्दिर), देवी-मन्दिर, देवालय या शक्ति-पीठ, चतुष्पथ, भू-गर्भ (पृथ्वी के नीचे बना कमरा या ढँकी हुई गुफा आदि), राज-महल, छिद्र-रहित मण्डप के नीचे, पञ्च-वटी, श्मशान । (क) ‘शून्य-गृह’ (शून्यागार) के सम्बन्ध में ‘त्रि-शक्ति-तन्त्र’ की उक्ति है – नागरेर्दूर-निर्मुक्तं, साध्वसोद्वेग-कारणं । काकादि-नीड-संयुक्तं, कपिच्छन्नादि-सेवितम् । सौध-संरुढया साध्यं, शून्यागार तदुच्यते ।। ‘ज्ञान-कारिका’ में ‘शून्यागार’ की विशेष व्याख्या है । यथा – अशरीरं यदा-तत्त्वं, स्व-देहे सा स्थिता यदि । शून्यं निरञ्जनं ज्ञात्वा, मुच्यते नात्र संशयः ।। (ख) ‘एक-लिंग’ के सम्बन्ध में ‘शक्ति-संगम-तन्त्र’ में लिखा है – पश्चिमाभिमुखं-लिंगम्, नन्दी-हीनं पुरातनं । चतुरः पञ्च-क्रोशान्ते, न लिंगो दृश्यते शिवे । तदेक-लिंगमाख्यातं, तत्र सिद्धिरनुत्तमा ।। अर्थात् पश्चिम की ओर प्राचीन शिव-लिंग का मुख, नन्दी की स्थापना वहाँ न हो और चारों ओर पाँच कोस तक दूसरा शिव-लिंग न हो, तो उसे ‘एक-लिंग’ कहते हैं । उसके पास बैठकर साधना करने से उत्तम सिद्धि मिलती है । ‘फेत्कारिणी तन्त्र’ में भी इसी आशय की उक्ति है – पञ्च-क्रोशान्तरे यत्र, न लिंगान्तरमीक्षते । तदेक-लिंगमाख्यातं, तत्र सिद्धिरनुत्तमा ।। ‘ज्ञान-कारिणि’ में ‘एक-लिंग’ की विशेष व्याख्या है । तथा – लिंगस्तु कथयिष्यामि, यल्लिंगं कौलिकं स्मृतं । लय-पूजाष्टकं यत्तं, लिंगस्तु स चराचरम् ।। लयैव यानि सर्वेषां, तेन लिंगं उदाहृतं । एतत् कौलिकः यल्लिंगं, एकस्तु न द्वितीयकम् ।। (ग) ‘वृष-शून्य शिव-स्थान’ की उपयोगिता के सम्बन्ध में गन्धर्व-तन्त्र, पुरश्चरण-चन्द्रिका, योगिनी-हृदय आदि में उल्लेख है –‘प्रत्यङ्-मुख शिव-स्थाने, वृषभादि-विवर्जिते ।’ (घ) ‘चतुष्पथ’ के सम्बन्ध में ‘फेत्कारिणी तन्त्र’ में लिखा है – चतुर्ष्णास्तु पथं यत्र, सम्पातो युग-पद् भवेत् । तत् चतुष्पथमित्युक्तं, रजन्यामिष्ट-दायकम् ।। अर्थात् जहाँ पर चार दिशाओं से आते मार्ग मिलते हैं, उस स्थान को ‘चतुष्पथ’ कहते हैं । वहाँ रात्रि में साधना करने से अभीष्ट फल मिलता है । ‘कुलार्णव तन्त्र’ में इसी विषय में निम्न वचन है – चतुष्पथं विजानीयात्, यत्रास्ति तारिणी-शिला । अर्थात् ‘चतुष्पथ’ को वहाँ जानना चाहिए, जहाँ भगवती तारा अवस्थिति रहती है । (ङ) ‘पञ्च-वटी’ के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि ये दो प्रकार की होती है – १॰ सामान्य, २॰ वृहत् । सामन्यतः १६ हाथ लम्बे और उतने ही चौड़े अर्थात् वर्गाकार क्षेत्र में एक कोने में बिल्व (बेल) का, दूसरे कोने में अशोक का, तीसरे कोने में निम्ब (नीम) का, चौथे कोने में अश्वत्थ (पीपल) का या वट (बरगद) का और इन चारों के मध्य अर्थात् क्षेत्र के केन्द्र-स्थल में आमलकी (आँवले) का वृक्ष लगाया जाता है । इस प्रकार प्रस्तुत ‘पञ्च-वटी’ के चारों ओर रक्त-जवा पुष्प की बाड़ लगाकर उसके बगल में माधवी लता या कृष्णा अपराजिता लगाई जाती है । इस पञ्च-वटी के मध्य भाग को तीर्थ-स्थान की पवित्र मिट्टी से शुद्ध बनाया जाता है । ‘सामान्य पञ्च-वटी’ के सम्बन्ध में ‘स्कन्द-पुराण’ के ‘हेमाद्रि-व्रत-खण्ड’ में लिखा है – अश्वत्थ बिल्व-वृक्षश्च, वट-धात्री अशौककः । वटी-पञ्चकमित्युक्तं, स्थापयेत् पञ्च-दिक्षु च ।। अश्वत्थं स्थापयेत्-प्राची, बिल्वमुत्तर-भागतः । वटं पश्चिम-भागे तु, धात्रीं च दक्षिणे तथा ।। अशोकं वह्नि-दिक् स्थाप्यं, तपस्यार्थं सुरेश्वरि ! मध्य वेदीं चतुर्हस्तां, सुन्दरीं सुमनोहराम् ।। प्रतिष्ठां कारयेत् तस्याः, पञ्च-वर्षोत्तरं शिवे ! अनन्त-फल-दात्री सा, तपस्या फल-दायिनी ।। वहीं ‘वृहत् पञ्च-वटी’ के सम्बन्ध में निम्न प्रकार निर्दिष्ट है – बिल्व-वृक्षं मधऽय-भागे, चतुर्दिक्षु चतुष्टयं । वट-वृक्षं चतुष्कोणे, वेद-संख्यं प्ररोपयेत् ।। अशोकं वर्त्तुलाकारं, पञ्च-विंशति-सम्मितं । दिग्विदिक्ष्वामलकीं चैव एकैकं देवेश्वरि !।। अश्वत्थं च चतुर्दिक्षु, वृहत् पञ्च वटी भवेत् । यः करोति महेशानि ! साक्षादिन्द्र-समो भवेत् ।। इह-लोके मन्त्र-सिद्धिः, परे च परमा गतिः । वेदी-करणः- प्रशस्त वृक्ष के नीचे साधना हेतु ‘वेदी’ बनाने की विधि है, जैसा कि सामान्य पञ्च-वटी सम्बन्धी कथन के अन्तर्गत उल्लिखित है । अतः ‘वेदी-करण’ के विषय में ‘रुद्र-यामल’ का निम्न उद्धरण ध्यान रखने योग्य है – अश्वत्थ-बिल्व-मूले वा, वेदीं कुर्याद् विधान-वित् । उत्तराश्य-मुखो भूत्वा, वेदिकां रचयेत् सुधीः ।। ईशाने सूत्र-पातं स्यादग्नौ च स्तम्भ-रोपणम् । नवधा सदन-विस्तारः, प्रस्थं च तावदेव हि ।। मूलायामं परित्यज्य, अष्ट-हस्तमिहेष्यते । ऊर्ध्वं वितस्ति-मानं हि, वेदीं कुर्यात् सुलक्षणाम् ।। चतुर्हस्त-मतां वेदीं, दैर्धं मधऽये तु तन्त्र-वित् । तदेव पूर्व-वत् सर्वं, सूत्रं च स्तम्भ रोपणम् ।। आयाम-दैर्ध्यं तद्-वद् वै, कर्त्तुर्हस्तश्चतुश्चतुः । तद्-वदेव हस्त-मात्रं परित्यज्य सु-साधकः ।। (च) ‘श्मशान’ के सम्बन्ध में ‘तारा-भक्ति-सुधार्णव’ में लिखा है – श्मशानं द्वि-विधं प्रोक्तं, चिता-योनि-प्रभरदतः । असंस्कृता चिता ग्राह्या, केवलं शीघ्र सिद्धिदा ।। अर्थात् ‘श्मशान’ दो प्रकार के कहे हैं – १॰ चिता, २॰ योनि । असंस्कृत चिता हो, वही ‘श्मशान’ शीघ्र सिद्धि-दायक होता है । ‘त्रि-शक्ति-तन्त्र’ में इस विषय की उक्ति निम्न प्रकार है – दह्यन्ते व्यसनो यत्र, शव-कीलक-संकुले । गृध्र-गोमायु-काकाद्यैर्मांस-लुब्धैः सदावृतम् । तत् श्मशानमिति ख्यातं, पिशाच-गण-सेवितम् । अर्थात् शव-रुपी कीलकों से परिपूर्ण, मांस-लोभी गिद्ध, सियार और कौवों से सदा घिरा हुआ स्थान ‘श्मशान’ नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ पिशाचों का निवास रहता है । वहाँ व्यसन नष्ट हो जाते हैं । ‘कुल-सार’ में इस सम्बन्ध में लिखा है – असंस्कृता चिता ग्राह्या, न संस्कार-संस्कृतं । चाण्डालादि-चिता ग्राह्या, केवलं शीघ्र-सिद्धिदा ।। अर्थात् संस्कार द्वारा शुद्ध की गई चिता साधना के उपयोगी नहीं होती । बिना संस्कारवाली चिता ही, विशेष कर चाण्डाल आदि की ग्रहण करने योग्य है । वही शीघ्र सिद्धि-दायिनी है । ‘ज्ञान-कारिका’ की विशेष व्याख्या निम्न प्रकार है – शोभते च यदा देहं, सर्वेषां एक-देहिनां । निःश्वास-श्वास-संयुक्तं, श्मशानं परि-कीर्तितम् ।। वहीं चिता-श्मशान की साधना के अधिकारी व्यक्ति के भी लक्षण बताए हैं । यथा – महा-बलो महा-बुद्धिर्महा-साहसिको शुचिः । महा-स्वच्छो दयावांश्च, सर्व-भूत-हिते रतः । अर्थात् अति शक्ति-शाली, अत्यन्त मेधावी, साहसी, सच्चरित्र, पवित्रात्मा, दयालु और समस्त प्राणियों का कल्याणेच्छु व्यक्ति ही श्मशान में साधना करने का अधिकारी है । ३॰ स्थान-विशेष का फल ‘वायवीय संहिता’ में लिखा है कि गृह में जप करने का सामान्य फल होता है । उससे सौ गुना अधिक फल गो-शाला मे, उपवन और तपोवन में सहस्र गुना अधिक, पर्वत में अयूत (दस सहस्र) गुना अधिक, पवित्र नदी के किनारे लक्ष गुना अधिक, देव-देवी प्रतिमा में कोटि-गुना अधिक और शिव-लिंग के समीप अनन्त गुना अधिक फल होता है । ४॰ त्याज्य स्थान जहाँ दुष्ट लोग और हिंसक पशु, सर्पादि का निवास हो, उस स्थान पर साधना न करे । जहाँ लोगों का आवागमन अधिक हो, उपद्रव अर्थात् झगड़े-झंझट आदि होते रहते हों, दुर्भिक्ष की अवस्था अर्थात् खाने-पीने की वस्तुओं का अभाव हो, धर्म-कर्म की निन्दा होती हो, शासकीय वर्ग आते-जाते रहते हों, वहाँ साधना का स्थान कभी न चुने । जहाँ अपने रहने, खाने-पीने आदि के लिए दूसरों पर अवलम्बित रहना पड़े, वहाँ साधना नहीं करनी चाहिए । जीर्ण (टूटे-फूटे) देवालय, जीर्ण उद्यान-गृह, जीर्ण वृक्ज़ के नीचे, जीर्ण नदी-तट, जीर्ण गुफा या जीर्ण भू-गर्भस्थ कक्ष आदि स्थानों को छोड़ दें । ५॰ कूर्म-चक्र या दीप स्थान का विचार ‘शारदा-तिलक’, द्वितीय पटल में लिखा है कि ‘कूर्म-चक्र’ द्वारा ‘दीप-स्थान’ का निर्णय करे क्योंकि वहीं बैठकर साधना करना फल-प्रद होता है । ‘क’ से ‘क्ष’ तक के व्यञ्जन वर्ण ‘दीप’ कहलाते हैं और स्वर ‘षोडश-पीठ’ । कूर्म-चक्र के ९ कोष्ठ में ‘दीपाक्षर’ होता है, उसी ‘कोष्ठ’ से ‘दीप-स्थान’ की सूचना मिलती है । पर्वत, समुद्र-तट, तपोवन, पुण्य नदी-तट, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, गंगा-सागर-संगम, काशी, उज्जैन जैसे स्थानों में ‘कूर्म-चक्र’ या ‘दीप-स्थान’ के विचार की आवश्यकता नहीं । इनके अतिरिक्त गाँव, नगर, बस्ती, पीठ-क्षेत्र या घर में साधना करते समय उक्त विचार का करना श्रेयस्कर होता है । Related