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dugraसार्द्ध नव-चण्डी प्रयोग
कर्म-फल का इच्छुक प्राणी स्व-अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति के लिए अत्यधिक व्यग्र मन से प्रयत्न करता है। जीवन का बहुत बडा भाग व्यग्र मन से की गई साधना में व्यतीत हो जाता है। तथापि, सिद्धि एवं शान्ति नहीं मिल पाती और व्यक्ति सन्तप्त-चित्त ही संसार से चला जाता है। इसके कारणों पर बहुत सूक्ष्म रीति से तान्त्रिकों ने विचार किया। श्रीललिता-सहस्त्र-नाम के भाष्य में श्री भास्कर राय कहते हैं – ‘कुण्डलिन्युत्थापनेन मधु-स्त्रावणेन डाकिन्यादि-मण्डल-प्लवन-रुपान्तर-कर्मणि सत्येव बाह्यानि यज्ञादि-कर्माणि सफलानि भवन्ति॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
अर्थात् जो तान्त्रिक योगी ‘कुण्डलिनी-शक्ति के उत्थापन द्वारा अमृत-स्त्राव कर षट्-चक्रों में स्थित डाकिनी आदि मण्डलों का सिञ्चन करना जानता है, वही बाह्य कर्म-काण्ड में सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
कुण्डलिनी-जागरण’ एवं ‘मधु-स्त्राव’ एक कठिन कार्य है, जो सिद्ध-क्रिया-कुशल योगी ही करने में कृत-कार्य हो सकते हैं। यह सबके द्वारा साध्य नहीं है। इसलिए तान्त्रिकों ने कुछ अनुष्ठान भी दिए हैं, जिनमें ‘कुण्डलिनी-जागरण’ अथवा ‘मधु-स्त्राव’ करें या नहीं, तब भी सिद्धि पाई जा सकती है। vadicjagat.co.in के पाठकों हेतु यहाँ ऐसा ही एक सिद्ध प्रयोग दिया जा रहा है। यह सिद्ध प्रयोग है- ‘सार्द्ध नव-चण्डी प्रयोग’सप्तशती-ग्रन्थ द्वारा इसका प्रयोग होता है।
इस प्रयोग को करने के लिए ९ ब्राह्मण ‘सप्तशती’ के पूरे पाठ करने के लिए ‘वरण’ किए जाते हैं। एक आधा पाठ करने वाला और एक शुक्ल-यजुर्वेदीय षडंग-रुद्रीय का पाठ करने वाला होता है। कुल एकादश (११) ब्राह्मणों द्वारा यह अनुष्ठान सम्पन्न होता है। पाठ करने वाले ब्राह्मण ‘शक्ति-तत्त्व’ में निष्ठा रखने वाले होने चाहिए। ‘अर्ध-पाठ’ मुख्य है। ‘अर्ध-पाठ’ के पाठ से ही ९ पाठ सफलीभूत होते हैं। ‘अर्ध-पाठ’ के विषय में कहा गया है-
जो पुरुष ‘सार्ध नव-चण्डी’ का प्रयोग करता है, वह प्राणान्त संकट से मुक्त होकर राज्य-श्री, सर्व-सम्पत्ति तथा सभी कामों को प्राप्त करता है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थाध्याय का पाठ सम्पूर्ण, पाँचवें अध्याय में ‘देवा ऊचिः – नमो देव्यै’ इत्यादि से लेकर ‘ऋषीरुवाच’-पर्यन्त तथा एकादश अध्याय की ‘नारायणी-स्तुति’, द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय सम्पूर्ण – ये सब मिलकर ‘अर्ध-पाठ’ के नाम से ग्रहण होते हैं। इसी ‘अर्ध-पाठ’ से प्रयोग की सफलता है। अर्ध-पाठ से रहित नव-पाठों का फल नहीं होता। निम्न प्रकार इसका प्रयोग करना चाहिए-
सार्ध नव-चण्डी प्रयोग की विधि
१॰ पहले चन्द्र, तारा, नक्षत्रादि के अनुकूल होने पर शुभ मुहूर्त में अथवा कृष्णाष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तिथियों के किसी दिन विधि-वत् कुमारी-पूजा करे। उन्हें भोजन-दक्षिणादि से सन्तुष्ट कर प्रयोग हेतु उनकी आज्ञा लें।
२॰ फिर शुद्ध लिपी-पुती भूमि पर आसन बिछाकर प्राङ्-मुख बैठकर विघऽन-निवारणार्थ स्वस्ति-वाचन कर भगवान् श्रीगणेश का आवाहन कर उनकी पूजा करे तथा अनुष्ठान के लिए संकल्प करे। ‘ तत्सदद्येत्यादि’ देश-काल का कीर्तन कर, ‘अमुक-गोत्रोत्पन्नोऽहम्’ नाम-युक्त राज्य से व्वहार, सेवा, प्रतिष्ठा, श्री-वृद्धि आदि का कामनावाला अपनी कामना के अनुसार एकादश ब्राह्मणों द्वारा ‘शुक्ल-यजुर्वेदीय षडंग रुद्रीय-पाठ सहित मार्कण्डेय-पुराणान्तर्गत-श्रीचण्डी-चरितस्य श्रीमहा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वती-दैवतकस्य सार्ध-नवक-रुप-पुरश्चरणं कारयिष्ये’ ऐसा संकल्प करे।
३॰ गन्धाक्षत-कौसुम्भ-सूत्र-वस्त्रादि वरण-सामग्री के सहित प्रत्येक ब्राह्मण का पृथक्-पृथक् वरण करे।
४॰ फिर आचार्य यथा-विधि ‘कलश-स्थापन’ कर भवानी-शंकर की सोपचार पूजा करे। इसके अनन्तर, पुस्तक-पूजनादि कर प्रत्येक ब्राह्मण को पाठ का संकल्प कर पाठारम्भ करना चाहिए। पाठ को सम्पूर्ण करके ‘नवार्ण-मन्त्र’ का जप करना चाहिए तथा भगवती को पाठ का समर्पण करना चाहिए।
५॰ इसके बाद ‘होम-विधि’ से ‘कुण्ड’ या ‘स्थण्डिल’ में संस्कृत अग्नि में घृत-पायस-तिल से एक पाठ का होम करना चाहिए। फिर तर्पण-मार्जन मूल-मन्त्र से कर ब्राह्मणों को भोजन कराए। भोजन एवं दक्षिणा प्रदान करके प्रसन्नता-पूर्वक यजमान ब्राह्मणों से आशीर्वाद ग्रहण करे।
विशेषः- ‘सप्तशती का पाठ’ शक्ति-मन्त्र से दीक्षित ब्राह्मणों द्वारा ही कराना चाहिए क्योंकि अदीक्षितों की क्रिया सर्वथा निष्फल होती है। दीक्षा के बिना अन्तः-करण में शुद्ध शक्ति का सञ्चार नहीं होता तथा इसके बिना संकल्प-सिद्धि नहीं होती।

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