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सूर्य सूक्त (क)
इस ऋग्वेदीय ‘सूर्य सूक्त ‘ ( १ / ११५ )— के ऋषि ‘कुत्स आङ्गिरस’ हैं, देवता सूर्य हैं और छन्द त्रिष्टुप् है । इस सूक्त के देवता सूर्य सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं, जगत् की आत्मा हैं और प्राणि-मात्र को सत्कर्मों में प्रेरित करनेवाले देव हैं, देवमण्डल में इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, क्योंकि ये जीवमात्र के लिये प्रत्यक्षगोचर हैं । ये सभी के लिये आरोग्य प्रदान करनेवाले एवं सर्वविध कल्याण करनेवाले हैं, अतः समस्त प्राणिधारियों के लिये स्तवनीत हैं, वन्दनीय हैं —

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष (ँ्)सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ १ ॥

‘प्रकाशमान रश्मियों का समूह अथवा राशि-राशि देवगण सूर्यमण्डल के रुप में उदित हो रहे हैं । ये मित्र, वरुण, अग्नि और सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं । इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपने देदीप्यमान तेज से सर्वतः परिपूर्ण कर दिया है । इस मण्डल में जो सूर्य हैं, वे अन्तर्यामी होने के कारण सबके प्रेरक परमात्मा हैं तथा जङ्गम एवं स्थावर सृष्टि की आत्मा हैं’ ॥ १ ॥

सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥ २ ॥

‘सूर्य गुणमयी एवं प्रकाशमान उषादेवी के पीछे पीछे चलते है, जैसे कोई मनुष्य सर्वाङ्ग सुन्दरी युवती का अनुगमन करे । जब सुन्दरी उषा प्रकट होती है, तब प्रकाश के देवता सूर्य की आराधना करने के लिये कर्मनिष्ठ मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्म का सम्पादन करते हैं । सूर्य कल्याणरुप हैं और उनकी आराधना से — कर्तव्य-कर्म के पालन से कल्याण की प्राप्ति होती हैं’ ॥ २ ॥

भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ ३ ॥

‘सूर्य का यह रश्मि मण्डल अश्व के समान उन्हें सर्वत्र पहुँचानेवाला, चित्र-विचित्र एवं कल्याण-रुप है । यह प्रतिदिन तथा अपने पथ पर ही चलता है एवं अर्चनीय तथा वन्दनीय है । यह सबको नमन की प्रेरणा देता है और स्वयं द्युलोक के ऊपर निवास करता है । यह तत्काल द्युलोक और पृथ्वी का परिभ्रमण कर लेता है’ ॥ ३ ॥

तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ४ ॥

‘सर्वान्तर्यामी प्रेरक सूर्य का यह ईश्वरत्व और महत्व है कि वे प्रारम्भ किये हुए, किन्तु अपरिसमाप्त कृत्यादि कर्म को ज्यों-का-त्यों छोड़कर अस्ताचल जाते समय अपनी किरणों को इस लोक से अपने-आपमें समेट लेते हैं । साथ ही उसी समय अपने किरणों और घोड़ों को एक स्थान से खींचकर दूसरे स्थान पर नियुक्त कर देते हैं । उसी समय रात्रि अन्धकार के आवरण से सबको आवृत्त कर देती है’ ॥ ४ ॥

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रुपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ ५ ॥

‘प्रेरक सूर्य प्रातःकाल मित्र, वरुण और समग्र सृष्टि को सामने से प्रकाशित करने के लिये प्राची के आकाशीय क्षितिज में अपना प्रकाशक रुप प्रकट करते हैं । इनकी रसभोजी रश्मियाँ अथवा हरे घोड़े बलशाली रात्रिकालीन अन्धकार के निवारण में समर्थ विलक्षण तेज धारण करते हैं । उन्हीं के अन्यत्र जाने से रात्रि में काले अन्धकार की सृष्टि होती है’ ॥ ५ ॥

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ ६ ॥

‘हे प्रकाशमान सूर्य रश्मियों ! आज सूर्योदय के समय इधर-उधर बिखरकर तुम लोग हमें पापों से निकालकर बचा लो । न केवल पाप से ही, प्रत्युत जो कुछ निन्दित है, गर्हणीय है, दुःख-दारिद्र्य है, सबसे हमारी रक्षा करो । जो कुछ हमने कहा है; मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और द्युलोक के अधिष्ठातृ-देवता उसका आदर करें, अनुमोदन करें, वे भी हमारी रक्षा करें ॥ ६ ॥

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सूर्यसूक्त (ख)
[शुक्ल यजुर्वेदोक्त यह ‘सूर्यसूक्त’ के ऋषि ‘विभ्राड्’ हैं, देवता ‘सूर्य’ और छन्द ‘जगती है । ये सूर्यमण्डल के प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका दर्शन सबको निरन्तर प्रतिदिन होता है । पञ्चदेवों में भी सूर्यनारायण को पूर्णब्रह्म के रूप में उपासना होती है । भगवान् सूर्यनारायण को प्रसन्न करने के लिये प्रतिदिन ‘उपस्थान’ एवं ‘प्रार्थना’ में ‘सूर्यसूक्त’ के पाठ करने की परम्परा है । शरीर के असाध्य रोगों से मुक्ति पाने में ‘सूर्यसूक्त’ अपूर्व शक्ति रखता है -]

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् ।
वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति ॥ १ ॥

वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा जो महान् दीप्तिमान् सूर्य प्रजा की रक्षा तथा पालन-पोषण करता है और अनेक प्रकार से शोभा पाता है, वह अखण्ड आयु प्रदान करते हुए मधुर सोमरस का पान करे ॥ १ ॥

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २ ॥

विश्व की दर्शन-क्रिया सम्पादित करने के लिये अग्नि-ज्वाला-स्वरूप उदीयमान सूर्यदेव को ब्रह्म-ज्योतियाँ ऊपर उठाये रखती हैं ॥ २ ॥

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ२ अनु । त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३ ॥
हे पावकरूप एवं वरुणरूप सूर्य ! तुम जिस दृष्टि से ऊर्ध्व-गमन करनेवालों को देखते हो, उसी कृपादृष्टि से सब जनों को देखो ॥ ३ ॥

दैव्यावध्वर्यू आ गतᳬ रथेन सूर्यत्वचा । मध्वाᳬ यज्ञ समञ्जाथे । तं प्रत्नथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४ ॥
हे दिव्य अश्विनीकुमारो ! आप भी सूर्य की-सी कान्तिवाले रथ में आयें और हविष्य से यज्ञ को परिपूर्ण करें । उसे ही जिसे ज्योतिष्मानों में चन्द्रदेव ने प्राचीन विधि से अद्भुत बनाया है ॥ ४ ॥

तं प्रलथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदᳬस्वर्विदम् ।
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥ ५ ॥

यज्ञादि श्रेष्ठ क्रियाओं में अग्रणी रहनेवाले और विपरीत पापादि का नाश करनेवाले, श्रेष्ठ विस्तारवाले, श्रेष्ठ आसन पर स्थित, स्वर्ग के ज्ञाता आपको हम पुरातन विधि से, पूर्ण विधि से, सामान्य विधि से और इस प्रस्तुत विधि से वरण करते हैं ॥ ५ ॥

अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।
इममपाᳬसङ्गमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥ ६ ॥

जल के निर्माण के समय यह ज्योतिर्मण्डल से आवृत चन्द्रमा अन्तरिक्षीय जल को प्रेरित करता है । इस जल-समागम के समय ब्राह्मण सरल वाणी से वेन (चन्द्रमा) —की स्तुति करते हैं ॥ ६ ॥

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष (ँ्)सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७ ॥

क्या ही आश्चर्य है कि स्थावर-जंगम जगत् की आत्मा, किरणों का पुंज, अग्नि, मित्र और वरुण का नेत्ररूप यह सूर्य भूलोक, द्युलोक तथा अन्तरिक्ष को पूर्ण करता हुआ उदित होता है ॥ ७ ॥

आ न इडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ।
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८ ॥

सुन्दर अन्नोंवाले हमारे प्रशंसनीय यज्ञ में सर्वहितैषी सूर्यदेव आगमन करें । हे अजर देवो ! जैसे भी हो, आपलोग तृप्त हों और आगमन काल में हमारे सम्पूर्ण गौ आदिको बुद्धिपूर्वक तृप्त करें ॥ ८ ॥

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य । सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९ ॥
हे इन्द्र ! हे सूर्य ! आज तुम जहाँ-कहीं भी उदीयमान हो, वे सभी प्रदेश तुम्हारे अधीन हैं ॥ ९ ॥

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमा भासि रोचनम् ॥ १० ॥
देखते-देखते विश्व का अतिक्रमण करनेवाले हे विश्व के प्रकाशक सूर्य ! इस दीप्तिमान् विश्व को तुम्हीं प्रकाशित करते हो ॥ १० ॥

तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततᳬ सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११ ॥

सूर्य का देवत्व तो यह है कि ये ईश्वर-सृष्ट जगत् के मध्य स्थित हो समस्त ग्रहों को धारण करते हैं और आकाश से ही जब हरितवर्ण की किरणों से संयुक्त हो जाते हैं तो रात्रि सब के लिये अन्धकार का आवरण फैला देती है ॥ ११ ॥

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ १२ ॥

द्युलोक के अंक में यह सूर्य मित्र और वरुण का रूप धारणकर सबको देखता है । अनन्त शुक्ल-देदीप्यमान इसका एक दूसरा अद्वैतरूप है । कृष्णवर्ण का एक दूसरा द्वैतरूप है, जिसे इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं ॥ १२ ॥

बण्महाँ२ असि सूर्य बडादित्य महाँ२ असि ।
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ२ असि ॥ १३ ॥

हे सूर्यरूप परमात्मन् ! तुम सत्य ही महान् हो । आदित्य ! तुम सत्य ही महान् हो । महान् और सद्रूप होने के कारण आपकी महिमा गायी जाती है । आप सत्य ही महान् हैं ॥ १३ ॥

बट् सूर्य श्रवसा महाँ२ असि सत्रा देव महाँ२ असि ।
मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४ ॥

हे सूर्य ! तुम सत्य ही यश से महान् हो । यज्ञ से महान् हो तथा महिमा से महान् हो । देवों के हितकारी एवं अग्रणी हो और अदम्य व्यापक ज्योतिवाले हो ॥ १४ ॥

श्रयन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ।
वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम् ॥ १५ ॥

जिन सूर्य का आश्रय करनेवाली किरणें इन्द्र की सम्पूर्ण वृष्टि-सम्पत्ति का भक्षण करती हैं और फिर उनको उत्पन्न करने अर्थात् वर्षण करने के समय यथाभाग उत्पन्न करती हैं, उन सूर्य को हम हृदय में धारण करते हैं ॥ १५ ॥

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरᳬ हसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६ ॥

हे देवो ! आज सूर्य का उदय हमारे पाप और दोष को दूर करे और मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी तथा स्वर्ग सब-के-सब मेरी इस वाणी का अनुमोदन करें ॥ १६ ॥

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ १७ ॥

सबके प्रेरक सूर्यदेव स्वर्णिम रथ में विराजमान होकर अन्धकारपूर्ण अन्तरिक्ष-पथ में विचरण करते हुए देवों और मानवों को उनके कार्यों में लगाते हुए लोकों को देखते हुए चले आ रहे हैं ॥ १७ ॥

[ शुक्ल यजुर्वेद]

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रोगघ्न उपनिषद / सौर सूक्त
ऋग्वेद-संहिता – प्रथम मंडल सूक्त ५०
[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता – सूर्य (११-१३ रोगघ्न उपनिषद)। छन्द – गायत्री, १०-१३ अनुष्टुप् ]

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥१॥

ये ज्योतिर्मयी रश्मियाँ सम्पूर्ण प्राणियो के ज्ञाता सूर्यदेव को एवं समस्त विश्व को दृष्टि प्रदान करने के लिए विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं॥१॥

अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः ।
सूराय विश्वचक्षसे ॥२॥

सबको प्रकाश देने वाले सूर्यदेव के उदित होते ही रात्रि के साथ तारा मण्डल वैसे ही छिप जाते है, जैसे चोर छिप जाते है॥२॥

अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु ।
भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥३॥

प्रज्वलित हुई अग्नि की किरणों के समान सूर्यदेव की प्रकाश रश्मियाँ सम्पूर्ण जीव-जगत को प्रकाशित करती हैं॥३॥

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥४॥

हे सूर्यदेव ! आप साधको का उद्धार करने वाले हैं, समस्त संसार मे एक मात्र दर्शनीय प्रकाशक है तथा आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं॥४॥

प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् ।
प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥५॥

हे सूर्यदेव ! मरुद्गणो, देवगणो, मनुष्यो और स्वर्गलोक वासियों के सामने आप नियमित रूप से उदित होते हैं, ताकि तीन लोको के निवासी आपका दर्शन कर सकें॥५॥

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥६॥

जिस दृष्टि अर्थात प्रकाश से आप प्राणियों को धारण-पोषण करने वाले इस लोक को प्रकाशित करते हैं, हम उस प्रकाश की स्तुति करतें हैं॥६॥

वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः ।
पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥७॥

हे सूर्यदेव ! आप दिन एवं रात मे समय को विभाजित करते हुए अन्तरिक्ष एवं द्युलोक मे भ्रमण करते है, जिसमे सभी प्राणियों को लाभ प्राप्त होता है॥७॥

सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य ।
शोचिष्केशं विचक्षण ॥८॥

हे सर्वद्रष्टा सूर्यदेव! आप तेजस्वी ज्वालाओ से युक्त दिव्यता को धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणो रूपी अश्वो के रथ मे सुशोभित होते हैं॥८॥

अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः ।
ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥९॥

पवित्रता प्रदान करने वाले ज्ञान सम्पन्न ऊधर्वगामी सूर्यदेव अपने सप्तवर्णी अश्वो से(किरणो से) सुशोभित रथ मे शोभायमान होते हैं॥९॥

उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥१०॥

तमिस्त्रा से दूर श्रेष्ठतम ज्योति को देखते हुए हम ज्योति स्वरूप और देवो मे उत्कृष्ठतम ज्योति(सूर्य) को प्राप्त हों॥१०॥

उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् ।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥

हे मित्रो के मित्र सूर्यदेव! आप उदित होकर आकाश मे उठते हुए हृदयरोग, शरीर की कान्ति का हरण करने वाले रोगों को नष्ट करें॥११॥

शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥

हम अपने हरिमाण(शरीर को क्षीण करने वाले रोग) को शुको(तोतों), रोपणाका(वृक्षों) एवं हरिद्रवो (हरी वनस्पतियों) मे स्थापित करते हैं॥१२॥

उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥

हे सूर्यदेव अपने सम्पूर्ण तेजों से उदित होकर हमारे सभी रोगो को वशवर्ती करें। हम उन रोगो के वश मे कभी न आयें॥१३॥

 

 

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