हिरण्यगर्भसूक्त

हिरण्य को अग्नि का रेत कहते हैं। हिरण्यगर्भ अर्थात् सुवर्णगर्भ सृष्टि के आदि में स्वयं प्रकट होने वाला बृहदाकार- अण्डाकार तत्त्व है। यह सृष्टि का आदि अग्नि तत्त्व माना गया है। महासलिल में प्रकट हुए हिरण्यगर्भ की तीन गतियाँ बतायी गयी हैं- १- आपः (सलिल) में ऊर्मियों के उत्पन्न होने से समेषण हुआ। २-आगे बढ़ने की क्रिया (प्रसर्पण) हुई । ३ – उसने तैरते हुए चारों ओर बढ़ने (परिप्लवन) की क्रिया की। इसके बाद यह हिरण्यगर्भ दो भागों में विभक्त होकर पृथ्वी और द्युलोक बना। यह हिरण्यगर्भ ही सृष्टि का मूल है। मन्त्रद्रष्टा ऋषि ने सृष्टि के आदि में स्थित इसी हिरण्यगर्भ के प्रति जिज्ञासा प्रकट की है जो सृष्टि के पहले विद्यमान था ।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ २ ॥
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ३ ॥
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः ।
यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ४ ॥
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळ्हा येन स्वः स्तभितं येन नाकः ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ५ ॥
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने ।
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ६ ॥
आपो ह यद्वहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७ ॥
यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम् ।
यो देवेष्वधि देव एक आसीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ८ ॥
मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।
यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ९ ॥
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव ।
यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥ १० ॥

[ ऋग्वेद १० । १२१ ]

सूर्य के समान तेज जिनके भीतर है, वे परमात्मा सृष्टि की उत्पत्ति से पहले वर्तमान थे और वे ही परमात्मा जगत् के एकमात्र स्वामी हैं। वे ही परमात्मा जो इस भूमि और द्युलोक के धारणकर्ता हैं, उन्हीं ईश्वर के लिये हम हवि का समर्पण करते हैं ॥ १ ॥
जिन परमात्मा की महान् सामर्थ्य से ये बर्फ से ढके पर्वत बने हैं, जिनकी शक्ति से ये विशाल समुद्र निर्मित हुए हैं और जिनकी सामर्थ्य से बाहुओं के समान ये दिशाएँ उपदिशाएँ फैली हुई हैं, उन सुखस्वरूप प्रजा के पालनकर्ता दिव्यगुणों से सबल परमात्मा के लिये हम हवि समर्पण करते हैं ॥ २ ॥
जो परमात्मा अपनी महान् सामर्थ्य से जगत् के समस्त प्राणियों एवं चराचर जगत् के एकमात्र स्वामी हुए तथा जो इन दो पैरवाले मनुष्य, पक्षी और चार पैरवाले जानवरों के भी स्वामी हैं, उन आनन्दस्वरूप परमेश्व रके लिये हम भक्तिपूर्वक हवि अर्पित करते हैं ॥ ३ ॥
जो परमात्मा आत्मशक्ति और शारीरिक बल के प्रदाता हैं, जिनकी उत्तम शिक्षाओं का देवगण पालन करते हैं, जिनके आश्रय से मोक्षसुख प्राप्त होता है तथा जिनकी भक्ति और आश्रय न करना मृत्यु के समान हैं, उन देव को हम हवि अर्पित करते हैं ॥ ४ ॥
जिन्होंने द्युलोक को तेजस्वी तथा पृथ्वी को कठोर बनाया, जिन्होंने प्रकाश को स्थिर किया, जिन्होंने सुख और आनन्द को प्रदान किया, जो अन्तरिक्ष में लोकों का निर्माण करते हैं, उन आनन्दस्वरूप परमात्मा के लिये हम हवि अर्पित करते हैं। उनके स्थान पर अन्य किसी की पूजा करने योग्य नहीं है ॥ ५ ॥
बल से स्थिर होते हुए परंतु वास्तव में चलायमान, गतिमान्, काँपने वाले अथवा तेजस्वी, द्युलोक और पृथ्वीलोक मननशक्ति से जिनको देखते हैं और जिनमें उदित होता हुआ सूर्य विशेषरूप से प्रकाशित होता हैं, उन आनन्दमय परमात्मा के लिये हम हवि अर्पित करते हैं ॥ ६ ॥
निश्चय ही गर्भ को धारण करके अग्नि को प्रकट करता हुआ अपार जलसमूह जब संसार में प्रकट हुआ, तब उस गर्भ से देवताओं का एक प्राणरूप आत्मा प्रकट हुआ। उस जल से उत्पन्न देव के लिये हम हवि समर्पित करते हैं ॥ ७ ॥
जिन परमात्मा ने सृष्टि-जल का सृजन किया और जिनके द्वारा ही जल में सर्जन शक्ति पैदा हुई तथा सृष्टिरूपी यज्ञ उत्पन्न हुआ अर्थात् यह यज्ञमय सृष्टि उत्पन्न हुई, उन्हीं एकमात्र सर्वनियन्ता को हम हवि द्वारा अपनी अर्चना अर्पित करते हैं ॥ ८ ॥
इस पृथ्वी और नभ को उत्पन्न करने वाले परमेश्वर हमें दुःख न दें। जिन परमात्मा ने आह्लादकारी जल को उत्पन्न किया, उन्हीं देव को हम हवि द्वारा अपनी पूजा समर्पित करते हैं ॥ ९ ॥
हे प्रजा के पालनकर्ता ! आप सभी प्राणियों में व्याप्त हैं। दूसरा कोई इनमें व्याप्त नहीं है। अन्य किसी से अपनी कामनाओं के लिये प्रार्थना करना उपयुक्त नहीं है। जिस कामना से हम आहुति प्रदान कर रहे हैं, वह पूरी हो और हम (दान – निमित्त ) प्राप्त धनों के स्वामी हो जायँ ॥ १० ॥

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