॥ पार्वती – मंगल ॥ – हिन्दी भावार्थ सहित
॥ श्रीहरि: ॥
॥ पार्वती-मंगल ॥

बिनइ गुरहि गुनिगनहि गिरिहि गननाथहि ।
हृदयँ आनि सिय राम धरे धनु भाथहि ॥ १ ॥
गावउँ गौरि गिरीस बिबाह सुहावन ।
पाप नसावन पावन मुनि मन भावन ॥ २ ॥
‘गुरु’ की, ‘गुणी लोगों’ (विज्ञजनों) – की, ‘पर्वतराज’ (हिमालय) – की और ‘गणेशजी’ की वन्दना करके फिर ‘जानकीजी’ और भाथेसहित धनुष धारण करने वाले ‘श्रीरामचन्द्रजी’ को स्मरण-कर ‘श्रीपार्वती’ और ‘कैलासपति महादेवजी’ के मनोहर, पापनाशक, अन्तः करण को पवित्र करने वाले और मुनियों के भी मन को रुचिकर लगने वाले विवाह का गान करता हूँ ॥ १-२ ॥
कबित रीति नहिं जानउँ कबि न कहावउँ ।
संकर चरित सुसरित मनहि अन्हवावउँ ॥ ३ ॥
पर अपबाद-बिबाद-बिदूषित बानिहि ।
पावन करीं सो गाइ भवेस भवानिहि ॥ ४ ॥
मैं काव्य की रीति (शैलियों) को नहीं जानता और न कवि ही कहलाता हूँ, मैं तो केवल शिवजी के चरित्र-रूपी श्रेष्ठ नदी में मन को स्नान कराता हूँ ॥ ३ ॥
और उसी श्रीशंकर एवं पार्वती-चरित्र का गान करके दूसरों की निन्दा और वाद-विवाद से मलिन हुई वाणी को पवित्र करता हूँ ॥ ४ ॥
जय संबत फागुन सुदि पाँचैं गुरु छिनु ।
अस्विनि बिरचेउँ मंगल सुनि सुख छिनु छिनु ॥ ५ ॥
जय नामक संवत् के फाल्गुन मास की शुक्ला पञ्चमी बृहस्पतिवार (गुरुवार) को अश्विनी नक्षत्र में मैंने इस मङ्गल (विवाह-प्रसंग)- की रचना की है, जिसे सुनकर क्षण-क्षण में सुख प्राप्त होता है ॥ ५ ॥
गुन निधानु हिमवानु धरनिधर धुर धनि ।
मैना तासु घरनि घर त्रिभुवन तियमनि ॥ ६ ॥
कह सुकृत केहि भाँति सराहिय तिन्ह कर ।
लीन्ह जाइ जग जननि जनमु जिन्ह के घर ॥ ७ ॥
मंगल खानि भवानि प्रगट जब ते भइ ।
तब ते रिधि-सिधि संपति गिरि गृह नित नइ ॥ ८ ॥
पर्वतों में शीर्ष-स्थानीय गुणों के भण्डार हिमवान् पर्वत धन्य हैं, जिनके घर में तीनों लोकों की स्त्रियों में श्रेष्ठ “मैना” नाम की पत्नी थी ॥ ६ ॥ कहो ! उनके पुण्य का किस प्रकार बखान किया जाय, जिनके घर में जगत् की माता पार्वती ने जन्म (अवतार) लिया ॥ ७ ॥ जबसे मङ्गलों की खान पार्वतीजी प्रकट हुईं तभी से हिमाचल के घर में नित्य नूतन ऋद्धि – सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ निवास करने लगीं ॥ ८ ॥

नित नव सकल कल्यान मंगल मोदमय मुनि मानहीं ।
ब्रह्यादि सुर नर नाग अति अनुराग भाग बखानहीं ॥
पितु मातु प्रिय परिवारु हरषहिं निरखि पालहिं लालहीं ।
सित पाख बाढ़ति चन्द्रिका जनु चन्दभूषन भालहीं ॥ १ ॥
Content is available only for registered users. Please login or register कुँअरि सयानि बिलोकि मातृपितु सोचहिं ।
गिरिजा जोगु जुरिहि बरु अनुदिन लोचहिं ॥ ९ ॥
कुमारी पार्वतीजीको सयानी (वयस्क) हुई देख माता-पिता चिन्तित हो रहे हैं और नित्य-प्रति यह अभिलाषा करते हैं कि पार्वती के योग्य वर मिले ॥ ९ ॥
एक समय हिमवान भवन नारद गए ।
गिरिबरु मैना मुदित मुनिहि पूजत भए ॥ १० ॥
जाहि बोलि रिषि पगन मातु मेलत भई ।
मुनि मन कीन्ह प्रणाम बचन आसिष दई ॥ ११ ॥
कुँअरि लागि पितु काँध ठाढ़ि भइ सोहई ।
रूप न जाइ बखानि जानु जोइ जोहई ॥ १२ ॥
एक समय देवर्षि नारद जी हिमवान् के घर गये । उस समय पर्वत-श्रेष्ठ हिमवान् और मैना ने प्रसन्नता-पूर्वक उनकी पूजा की ॥ १० ॥ माता (मैना)-ने पार्वती को बुलाकर ऋषि के चरणों में डाल दिया। मुनि (नारदजी) – ने-मन-ही-मन पार्वतीजी को प्रणाम किया और वचन से आशीर्वाद दिया ॥ ११ ॥ उस समय पिता हिमवान् के कंधे से सटकर खड़ी हुई कुमारी पार्वतीजी बड़ी शोभायमान् जान पड़ती थीं । उनके स्वरूप का कोई वर्णन नहीं कर सकता। उनको जिसने देखा वही जान सकता है ॥ १२ ॥
अति सनेहँ सतिभायें पाय परि पुनि पुनि ।
कह मैना मृदु बचन सुनिअ बिनती मुनि ॥ १३ ॥
तुम त्रिभुवन तिहुँ काल बिचार बिसारद ।
पारबती अनुरूप कहिय बरु नारद ॥ १४ ॥
अत्यन्त प्रेम और सच्ची श्रद्धा से बार-बार देवर्षि के पैरों पर पड़कर मैना ने कोमल वचनों में कहा – ‘हे मुने ! हमारी विनती सुनिये ॥ १३ ॥ आप तीनों लोकों में और तीनों कालों में बड़े ही विचार-कुशल हैं, अत: हे नारदजी ! आप पार्वती के अनुरूप कोई वर बतलाइये’ ॥ १४ ॥
मुनि कह चौदह वन फिरउँ जग जहँ जहँ ।
गिरिबर सुनिय सरहना राउरि तहँ तहँ ॥ १५ ॥
भूरि भाग तुम सरिस कतहुँ कोउ नाहिन ।
कछु न अगम सब सुगम भयो बिधि दाहिन ॥ १६ ॥
देवर्षि नारद मुनि कहते हैं कि ‘ब्रह्माण्डके चौदहों भुवनों में – जहाँ-जहाँ मैं घूमता हूँ, हे गिरिश्रेष्ठ हिमवान् ! वहाँ-वहाँ तुम्हारी बड़ाई सुनी जाती है ॥ १५ ॥ तुम्हारे समान बड़भागी (बहुत भाग्य वाला) कहीं कोई नहीं है । तुम्हारे लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं है, सब कुछ सुलभ है, क्योंकि विधाता तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं’ ॥ १६ ॥

दाहिन भए बिधि सुगम सब सुनि तजहु चित चिंता नई ।
बरु प्रथम बिरवा बिरचि बिरच्यो मंगला मंगलमई ॥:
बिधिलोक चरचा चलति राउरि चतुर चतुरानन कही ।
हिमवानु कन्या जोगु बरु बाउर बिबुध बंदित सही ॥ २ ॥
Content is available only for registered users. Please login or register मोरेहूँ मन अस आव मिलिहि बरु बाउर ।
लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर ॥ १७ ॥
सुनि सहमे परि पाइ कहत भए दंपति ।
गिरिजहि लगे हमार जिव सुख संपति ॥ १८ ॥
” मेरे मन में भी ऐसी ही बात आती है कि पार्वती को बावला वर मिलेगा।” नारदजी के इस वचन को सुनकर उमा (पार्वती) -के हृदय में सुख हुआ ॥ १७ ॥ किंतु यह बात सुनकर दम्पति (हिमवान् और मैना) सहम गये और (नारदजी के) चरणों में पड़कर कहने लगे कि ‘पार्वतीके लिये ही हम लोगों का जीवन और सारी सुख-सम्पत्ति है’ ॥ १८ ॥
नाथ कहिय सोइ जतन मिटइ जेहि दूषनु ।
दोष दलन मुनि कहेउ बाल बिधु भूषनु ॥ १९ ॥
अवसि होइ सिधि साहस फलइ सुसाधन ।
कोटि कलप तरु सरिस संभु अवराधन ॥ २० ॥
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कहिअ मनु लाइ जाइ अवराधहिं ॥ २१ ॥
कहि उपाय दंपतिहि मुदित मुनिबर गए ।
अति सनेहँ पितु मातु उमहि सिखवत भए ॥ २२ ॥
‘देखो, तुम्हारे आश्रम (कैलास)-में महादेवजी अभी तप-साधन कर रहे हैं, (अतः) पार्वती से कहो कि जाकर मनोयोग-पूर्वक शिवजी की आराधना करे’ ॥ २१ ॥ दम्पत्ति (हिमवान् और मैना) को यह उपाय बतलाकर मुनिश्रेठ नारदजी आनन्द-पूर्वक चले गये और माता-पिता ने अत्यन्त स्नेह से पार्वतीजी को शिक्षा दी ॥ २२ ॥
सजि समाज गिरिराज दीन्ह सबु गिरिजहि ।
बदति जननि जगदीस जुबति जनि सिरजहि ॥ २३ ॥
जननि जनक उपदेस महेसहि सेवहि ।
अति आदर अनुराग भगति मनु भवहि ॥ २४ ॥
पर्वतराज हिमवान् ने तपस्या की सारी सामग्री सजाकर पार्वतीजी को दे दी तथा माता मैना कहने लगी कि -‘ईश्वर स्त्रियों को न रचे (क्योंकि इन्हें सदैव पराधीन रहना पड़ता है) ॥ २३ ॥ माता-पिता ने पार्वतीजी को उपदेश दिया कि तुम शिवजी की आराधना करो और अत्यन्त आदर, प्रेम और भक्ति से मन को समर्पित कर दो ॥ २४ ॥

भेवहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हर चरन की ।
गौरव सनेह सकोच सेवा जाइ केहि बिधि बरन की ॥
गुन रूप जोबन सींव सुंदरि निरखि छोभ न हर हिएँ ।
ते धीर अछत विकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ ॥ ३ ॥
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कहेउ करिअ सुर काजु साजु सजि आयउ ॥ २५ ॥
बामदेउ सन कामु बाम होइ बरतेउ ।
जग जय मद निदरेसि फरु पायसि फर तेउ ॥ २६ ॥
देवताओं ने अनुकूल अवसर देखकर कामदेव को बुलाया और कहा कि आप देवताओं का काम कीजिये।’ यह सुनकर कामदेव साज सजाकर आये ॥ २५ ॥ महादेवजी से कामदेव ने प्रतिकूल बर्ताव किया और जगत् को जीत लेने के अभिमान से चूर होकर शिवजी का निरादर किया – उसीका फल उसने पाया अर्थात् वह नष्ट हो गया ॥ २६ ॥
रति पति हीन मलीन बिलोकि बिसूरति ।
नील-कण्ठ मृदु सील कृपामय मूरति ॥ २७ ॥
आसुतोष परितोष कीन्ह बर दीन्हेउ ।
सिव उदास तजि बास अनत गम कीन्हेउ ॥ २८ ॥
पतिहीना (विधवा) रति को मलिन और शोकाकुल देखकर मृदुल-स्वभाव, कृपा-मूर्ति आशुतोष भगवान् नीलकण्ठ (शिवजी) ने प्रसन्न होकर उसे यह वर दिया – और फिर शिवजी उदासीन हो, उस स्थान को छोड़ अन्यत्र चले गये॥ २७-२८ ॥
दोहा-
अब ते रति तव नाथ कर होइहि नाम अनंगु ।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥
जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महि भारा ।
कृष्न तनय होइहि पति तोरा । बच अन्यथा होइ न मोरा ॥
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कलप बेलि बन बढ़त बिषम हिम जनु दई ॥ २९ ॥
समाचार सब सखिन्ह जाइ घर घर कहे ।
सुनत मातु पितु परिजन दारुन दुख दहे ॥ ३० ॥
पार्वतीजी प्रेम-वश व्याकुल हो गयीं, उनके शरीर की सुध-बुध (होश-हवास) जाती रही, मानो वन में बढ़ती हुई कल्प-लता को विषम पाले (सर्दी) ने मार दिया हो ॥ २९ ॥ फिर सखियों ने घर-घर जाकर सारे समाचार सुनाये और इस समाचार को सुनकर माता-पिता एवं घर के लोग दारुण (अत्यधिक) दुःख में जलने लगे ॥ ३० ॥
जाइ देखि अति प्रेम उमहि उर लावहिं ।
बिलपहिं बाम बिधातहि दोष लगावहिं ॥ ३१ ॥
जौ न होहिं मंगल मग सुर बिधि बाधक ।
तौ अभिमत फल पावहिं करि श्रमु साधक ॥ ३२ ॥
वहाँ जाकर पार्वती को देख वे अत्यन्त प्रेम से उन्हें हृदय लगाते हैं; विलाप करते हैं तथा वाम विधाता को दोष देते हैं ॥ ३१ ॥ वे कहते हैं कि यदि देवता और विधाता शुभ मार्ग में बाधक न हों तो साधक लोग परिश्रम करके मनोवाञ्छित फल पा सकते हैं ॥ ३२ ॥

साधक कलेस सुना सब गौरिहि निहोरत धाम को ।
को सुनइ काहि सोहाय घर चित चहत चन्द्र ललामको ॥
समुझाइ सबहि दृढ़ाइ मनु पितु मातु, आयतु पाइ कै ।
लागी करन पुनि अगमु तपु तुलसी कहै किमि गाइकै ॥ ४ ॥
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जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु आपन ॥ ३३ ॥
तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु ।
मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु ॥ ३४ ॥
पार्वतीजी की (दृढ़) प्रतिज्ञा को देखकर माता-पिता और परिजन लौट आये। जिसमें अनुराग-पूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है ॥ ३३ ॥ उन्होंने भोग को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुण्ड के समान त्याग दिया तथा जो मुनियों को भी मन के द्वारा अगम्य था, ऐसे तप में मन लगा दिया ॥ ३४ ॥
सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु ।
तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु ॥ ३५ ॥
पूजइ सिवहि समय तिहुँ कर निमज्जन ।
देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं सज्जन ॥ ३६ ॥
जिस शरीरको स्पर्श करने में वस्त्र-आभूषण भी सकुचाते थे, उसी शरीर से उन्होंने शिवजी के लिये बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी ॥ ३५ ॥ वे तीनों काल स्नान करती हैं और शिवजी की पूजा करती हैं। उनके प्रेम, व्रत और नियम को सज्जन (साधु)-लोग भी सराहते हैं ॥ ३६ ॥
नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु ।
नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियैं हरु ॥ ३७ ॥
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि ।
सूखे बेलके पात खात दिन गवनहि ॥ ३८ ॥
उनके लिये रात-दिन बराबर हो गये हैं; न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है । नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, मुख से शिव-नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और हृदय में शिवजी बसे रहते हैं ॥ ३७ ॥ कभी कन्द, मूल, फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल (बिल्व) के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिये जाते हैं ॥ ३८ ॥
नाम अपरना भयउ परन जब परिहरे ।
नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे ॥ ३९ ॥
देखि सराहहिं गिरिजहि मुनिबरु मुनि बहु ।
अस तप सुना न दीख कबहुँ काहूँ कहु ॥ ४० ॥
जब पार्वतीजी ने (सूखे) पत्तों को भी त्याग दिया, तब उनका नाम ‘अपर्णा’ पड़ा । उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्ति से चौदहों भुवन भर गये (उनकी कीर्ति चहुँ ओर व्याप्त हो गयी) ॥ ३९ ॥ पार्वतीजी का तप देखकर बहुत-से मुनिवर और मुनिजन उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसी ने न देखा और न तो सुना ही था ॥ ४० ॥

काहूँ न देख्यौ कहहिं यह तपु जोग फल फल चारि का ।
नहिं जानि जाइ न कहति चाहति काहि कुधर-कुमारिका ॥
बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गए ।
मनसहिं समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृदु बोलत भए ॥ ५ ॥
Content is available only for registered users. Please login or register देखि दसा करुनाकर हर दुख पायउ ।
मोर कठोर सुभाय हृदयँ अस आयउ ॥ ४१ ॥
बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक ।
अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक ॥ ४२ ॥
उस समय पार्वतीजी की दशा देखकर दया-निधान शिवजी दुःखी हो गये और उनके हृदय में यह आया कि मेरा स्वभाव (बड़ा ही) कठोर है । [यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिये साधकों को इतना तप करना पड़ता है।] ॥ ४१ ॥ तब वह ब्रह्मचारी पार्वतीजी के वंश की प्रशंसा करके और उनके माता-पिता को सब प्रकार से योग्य कह अमृत के समान मीठे और सुखदायक वचन बोले ॥ ४२ ॥
देबि करौं कछु बिनती बिलगु न मानब ।
कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब ॥ ४३ ॥
जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर ।
तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर ॥ ४४ ॥
[शिवजीने कहा] – ‘हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना । मैं स्वाभाविक स्नेह से कहता हूँ, अपने जी में (मन में) इसे सत्य जानना ॥ ४३ ॥ तुमने संसार में प्रकट होकर अपने माता-पिता का यश प्रसिद्ध कर दिया । तुम संसार-समुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न-सदृश उत्पन्न हुई हो’ ॥ ४४ ॥
अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ ।
बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ ॥ ४५ ॥
जौ बर लागि करहु तप तौ लरिकाइअ ।
पारस जौ घर मिलै तौ मेरु कि जाइअ ॥ ४६ ॥
‘मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसार में तुम्हारे लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं है [यह भी सच है कि] निष्काम तपस्या में क्लेश नहीं जान पड़ता ॥ ४५ ॥ [परंतु] यदि तुम वर (दुल्हा) -के लिये तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन (बचपना) है, क्योंकि यदि घर में ही पारस-मणि मिल जाय तो क्या कोई सुमेरु (पर्वत) पर जायगा ?॥ ४६ ॥
मोरें जान कलेस करिअ बिनु काजहि ।
सुधा कि रोगिहि चाहइ रतन की राजहि ॥ ४७ ॥
लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ ।
सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि निहारेउ ॥ ४८ ॥
‘हमारी समझ से तो तुम बिना प्रयोजन ही क्लेश उठाती हो । अमृत क्या रोगी को चाहता है और रत्न क्या राजा की कामना करता है?’ ॥ ४७ ॥ इस ब्रह्मचारी को आपके तप का कोई कारण समझ में नहीं आया, यह सोचते-सोचते अपने हृदय में हार गया है, इस प्रकार उसके प्रिय वचन सुनकर पार्वती ने सखी के मुखकी ओर देखा ॥ ४८ ॥

गौरी निहारेउ सखी मुख रुख पाइ तेहिं कारन कहा ।
तपु करहिं हर हितु सुनि बिहँसि बटु कहत मुरुखाई महा ॥
जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेहु कलेस करि बरु बावरो ।
हित लागि कहाँ सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो ॥ ६ ॥
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अगुन अमान अजाति मातु पितु हीनहिं ॥ ४९ ॥
भीख मागि भव खाहिं चिता नित सोवहिं ।
नाचहिं नगन पिसाच पिसाचिनि जोवहिं ॥ ५० ॥
‘[अच्छा] यह तो बताओ कि क्या सुनकर तुम ऐसे कुल-हीन वर पर रीझ गयी (अनुरक्त हो गयी), जो गुण-रहित, प्रतिष्ठा-रहित, जाति-रहित और माता-पिता-रहित है ॥ ४९ ॥ वे शिवजी तो भीख मांगकर खाते हैं । नित्य [श्मशान में] चिता [भस्म] पर सोते हैं, नग्न होकर नाचते हैं और पिशाच पिशाचिनी इनके दर्शन किया करते हैं’ ॥ ५० ॥
भाँग धतूर अहार छार लपटावहिं ।
जोगी जटिल सरोष भोग नहिं भावहिं ॥ ५१ ॥
सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन ।
बामदेव फुर नाम काम मद मोचन ॥ ५२ ॥
‘भाँग-धतूरा ही इनका भोजन है; ये शरीर में राख लपटाये (लगाये) रहते हैं । ये योगी, जटाधारी और क्रोधी हैं; इन्हें भोग अच्छे नहीं लगते’ ॥ ५१ ॥ तुम सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों-वाली हो, किंतु शिवजी के तो पाँच मुख और तीन आँखें हैं। उनका वामदेव नाम यथार्थ ही है। वे कामदेव के मद को चूर करनेवाले अर्थात् काम-विजयी हैं ॥ ५२ ॥
एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन ।
नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन ॥ ५३ ॥
कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन ।
कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन ॥ ५४ ॥
शंकर में एक भी श्रेष्ठ गुण नहीं है अपितु करोड़ों दूषण हैं । वे नर-मुण्ड और हाथी के खाल (त्वचा) को धारण करने वाले तथा साँप और विष से विभूषित हैं’ ॥५३ ॥ कहाँ तो तुम्हारा गुण, शील और शोभायमान स्वरूप और कहाँ शंकर का अमङ्गल वेष, जो अत्यन्त भयानक है ॥ ५४ ॥
जो सोचइ ससि कलहि सो सोचइ रौरेहि ।
कहा मोर मन धरि न बिरय बर बौरेहि ॥ ५५ ॥
हिए हेरि हठ तजहु हठै दुख पैहहु ।
ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितैहहु ॥ ५६ ॥
‘जो शंकर शशि-कला की चिन्ता में रहते हैं, वे क्या तुम्हारा ध्यान रखेंगे ? मेरे कहे हुए वचन को हृदय में धारणकर तुम बावले वर को न वरना (वरण करना)’ ॥ ५५ ॥ अपने हृदय में विचारकर हठ त्याग दो; हठ करने से तुम दुःख ही पाओगी और ब्याह (विवाह) के समय हमारी शिक्षा को याद कर-करके पछताओगी (पश्चाताप करोगी) ॥ ५६ ॥

पछिताब भूत पिसाच प्रेत जनेत ऐहैं साजि कै ।
जम धार सरिस निहारि सब नर-नारि चलिहहिं भाजि के ॥
गज अजिन दिव्य दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै ।
कोउ प्रगट कोउ हियँ कहिहि मिलवत अमिय माहुर घोरि कै ॥ ७ ॥
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निरख नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ॥ ५७ ॥
बटु करि कोटि कुतरक जथा रुचि बोलइ ।
अचल सुता मनु अचल बयारि कि डोलइ ॥ ५८ ॥
‘जब तुम्हारे साथ शिवजी बैल पर सवार होंगे, तब नगर के स्त्री-पुरुष देखकर हँसते हुए अपने मुख छिपा लेंगे’ ॥ ५७ ॥ इसी प्रकार अनेकों कुतर्क करके ब्रह्मचारी इच्छानुसार बोल रहा था; परंतु पर्वत की पुत्री का मन डिगा नहीं (विचलित नहीं हुआ), भला कहीं हवा से पर्वत डोल सकता है? ॥ ५८ ॥
साँच सनेह साँच रुचि जो हठि फेरइ ।
सावन सरिस सिंधु रुख सूप सो घेरड़ ॥ ५९ ॥
मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ ।
सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ ॥ ६० ॥
जो सत्य स्नेह और सच्ची रुचि को फेरना (बदलना) चाहता है, वह [तो] मानो सावन के महीने (वर्षा ऋतु) में नदी के प्रवाह को समुद्र की ओर सूप से घुमाने की चेष्टा करता है ॥ ५९ ॥ मणि के बिना सर्प और जल के बिना मछली शरीर त्याग देती है, ऐसे ही जो जिसके साथ प्रेम करता है, वह क्या उसके दोष गुण का विचार करता है? ॥ ६० ॥
करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए ।
अरुन नयन चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए ॥ ६१ ॥
बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर ।
आलि बिदा करु बटुहि बेगि बड़ बरबर ॥ ६२ ॥
ब्रह्मचारी के कर्ण-कटु चाटु वचनों ने पार्वतीजी के हृदय में तीर-के समान आघात किया ? उनकी आँखें लाल हो गयीं भृकुटियाँ तन गयीं और होंठ फड़कने लगे ॥ ६१ ॥ उनका शरीर थर-थर काँपने लगा। फिर उन्होंने सखी की ओर देखकर कहा – ‘अरी आली ! इस ब्रह्मचारी को शीघ्र बिदा करो, यह [तो] बड़ा ही अशिष्ट है’ ॥ ६२ ॥
कहूँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि ।
बौरेहि कैं अनुराग भइकें बइउँ बड़ि बाउरि ॥ ६३ ॥
दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ ।
मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि राखेउ ॥ ६४ ॥
[फिर ब्रह्मचारी को सम्बोधित करके कहने लगी-] ‘कहीं कोई चतुर स्त्रियाँ होंगी, वे आपकी शिक्षा सुनेंगी मैं तो बावले के प्रेम में ही अत्यन्त बावली हो गयी हूँ’ ॥ ६३ ॥ आपने जो कहा कि महादेवजी दोष-निधान हैं, सो सब सत्य ही कहा है; परंतु विधाता ने जो अंक लिख रखे हैं, उन्हें कौन मिटा सकता है? ॥ ६४ ॥
को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावई ।
मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ जो भावइ ॥ ६५ ॥
भइ बड़ि बार आलि कहूँ काज सिधारहिं ।
बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगुति सवाँरहिं ॥ ६६ ॥
‘वाद-विवाद करके कौन दु:ख बढ़ाये ? कवि किसको मीठा कहते हैं ? जिसको जो अच्छा लगता है’। (भाव यह कि जिसको जो अच्छा लगे उसके लिये वही मीठा है।) [फिर सखी से बोली-] हे सखी ! इनसे कहो बहुत देर हो गयी है, अब अपने काम के लिये कहीं जा । देखो, किसी कु-युक्ति को रचकर फिर कुछ न बक उठें ॥ ६५-६६ ॥

जनि कहहिं कछु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की ।
सिव साधु निंदकु मंद अति जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी ॥
सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो ।
भए प्रगट करुनासिंधु संकरु भाल चंद सुहावनो ॥ ८ ॥
‘ये प्रीति की तो क्या, बात करने की रीति भी नहीं जानते, अतएव कोई विपरीत बात [फिर] न कहें । शिवजी और साधु की निन्दा करने वाले अत्यन्त मन्द अर्थात् नीच होते हैं, उस निन्दा को जो कोई सुनता है, वह भी बड़ा पापी होता है।’ गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि इस वचन को सुन उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर करुणासिन्धु श्रीमहादेवजी प्रकट हो गये उनके ललाट में चन्द्रमा शोभायमान हो रहा था ॥ ८ ॥

सुंदर गौर सरीर भूति भलि सोहई ।
लोचन भाल बिसाल बदनु मन मोहइ ॥ ६७ ॥
सैल कुमारि निहारि मनोहर मूरति ।
सजल नयन हियँ हरषु पुलक तन पूरति ॥ ६८ ॥
उनके कमनीय गौर शरीर पर विभूति अत्यन्त शोभित हो रही थी; उनके नेत्र और ललाट विशाल थे तथा मुख मन को मोहित किये लेता था ॥ ६७ ॥ उनकी मनोहर मूर्ति को निहारकर शैल-कुमारी पार्वतीजी के नेत्रों में जल भर आया । हृदय में आनन्द छा गया और शरीर पुलकावली से व्याप्त हो गया ॥ ६८ ॥
पुनि पुनि करें प्रनामु न आवत कछु कहि ।
देखौं सपन कि सौतुख ससि सेखर सहि ॥ ६९ ॥
जैसें जनम दरिद्र महामनि पावइ ।
पेखत प्रगट प्रभाउ प्रतीति न आवइ ॥ ७० ॥
वे बारम्बार प्रणाम करने लगीं । उनसे कुछ कहते नहीं बनता था । [वे मन-ही-मन] विचारती हैं कि मैं स्वप्न देख रही हूँ या सचमुच सामने शिवजी का दर्शन कर रही हूँ ॥ ६९ ॥ जिस प्रकार जन्म का दरिद्री महामणि (पारस) को पा जाय और उसके प्रभाव को साक्षात् देखते हुए भी उसमें विश्वास न हो [उसी प्रकार यद्यपि पार्वतीजी महादेवजी को नेत्र के सामने देखती हैं तो भी उन्हें प्रतीति नहीं होती] ॥ ७० ॥
सुफल मनोरथ भयउ गौरि सोहइ सुठि ।
घर से खेलन मनहुँ अबहिं आई उठि ॥ ७१ ॥
देखि रूप अनुराग महेस भए बस ।
कहत बचन जनु सानि सनेह सुधा रस ॥ ७२ ॥
पार्वतीजी का मनोरथ सफल हो गया [इससे वे और भी] सुहावनी लगती हैं। [जान पड़ता है कि] मानो खेलने के लिये वे अभी घर से उठकर आयी हों। [उनकी देह में तप का क्लेश और कृशता आदि कुछ भी लक्षित नहीं होता] ॥ ७१ ॥ पार्वतीजी के रूप और अनुराग को देखकर महादेवजी उनके वश में हो गये और मानो प्रेमामृत में सानकर वचन बोले ॥ ७२ ॥
हमहि आजु लगि कनउड़ काहुँ न कीन्हेउ ।
पारबती तप प्रेम मोल मोहि लीन्हेउ ॥ ७३ ॥
अब जो कह सो करउँ बिलंबु न एहिं घरी ।
सुनि महेस मृदु बचन पुलकि पायन्ह परी ॥ ७४ ॥
[शिवजी कहते हैं कि ‘हमको आजतक किसी ने कृतज्ञ नहीं बनाया; परंतु हे पार्वती ! तुमने तो अपने तप और प्रेम से मुझे मोल ले लिया ॥७३ ॥ अब तुम जो कहो, मैं इसी क्षण वही करुँगा, विलम्ब नहीं होने दूँगा ।’ शिवजी के [ऐसे] कोमल वचन सुनकर पार्वतीजी पुलकित हो उनके पैरॉ पर गिर पड़ीं ॥ ७४ ॥

परि पायँ सखि मुख कहि जनायो आयु बाप अधीनता ।
परितोषि गिरिजहि चले बरनत प्रीति नीति प्रबीनता ॥
हर हृदयँ धरि घर गौरि गवनी कीन्ह बिधि मन भावनो ।
आनंदु प्रेम समाजु मंगल गान बाजु बधावनो ॥ ९ ॥
पार्वतीजी ने उनके पैरों पड़कर सखी के द्वारा अपना पिता के अधीन होना सूचित किया, तब शिवजी उनका परितोष करके उनकी प्रीति एवं नीति-निपुणता का वर्णन करते चले गये । इधर पार्वतीजी भी शिवजी को हृदय में धारणकर घर चली गयीं । विधाता ने सब कुछ उनके मन के अनुकूल कर दिया। [फिर तो] आनन्द और प्रेम का समाज जुट गया, मंगल-गान होने लगा और बधावा बजने लगा ॥ ९ ॥

सिव सुमिरे मुनि सात आइ सिर नाइन्हि ।
कीन्ह संभु सनमानु जन्म फल पाइन्हि ॥ ७६ ॥
सुमिरहिं सकृत तुम्हहि जन तेइ सुकृती बर ।
नाथ जिन्हहि सुधि करिअ तिनहिं सम तेइ हर ॥ ७६ ॥
तब शिवजी ने सप्तर्षियों (कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, विश्वामित्र, वसिष्ठ, भरद्वाज और गौतम)- को स्मरण किया। उन्होंने आकर शिवजी को सिर नवाया। शिवजी ने उनका सम्मान किया और उन्होंने भी [शिवजीका दर्शन करके] जन्म का फल पा लिया ॥ ७५ ॥ [सप्तर्षियों ने कहा कि] ‘जो लोग एक बार भी आपका स्मरण कर लेते हैं, वे ही पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ हैं।’ हे नाथ । हे हर ! [फिर] जिसे आप स्मरण करें, उसके समान तो वही है ॥ ७६ ॥
सुनि मुनि बिनय महेस परम सुख पायउ ।
कथा प्रसंग मुनीसन्ह सकल सुनायउ ॥ ७७ ॥
जाहु हिमाचल गेह प्रसंग चलायहु ।
जौं मन मान तुम्हार तौ लगन धरायहु ॥ ७८ ॥
मुनियों की विनय सुनकर शिवजी ने परम सुख प्राप्त किया और उन मुनीश्वरों को सब कथा का प्रसंग सुनाया ॥ ७७ ॥ [और कहा कि] ‘ तुम लोग हिमाचल के घर जाओ और इसकी चर्चा चलाकर यदि जँच जाय तो लग्न धरा आना’ ॥ ७८ ॥
अरुंधती मिलि मनहिं बात चलाइहि ।
नारि कुसल इहिं काज काजु बनि आइहि ॥ ७९ ॥
दुलहिनि उमा ईसु बरु साधक ए मुनि ।
बनिहि अवसि यहु काजु गगन भइ अस धुनि ॥ ८० ॥
[इसी अवसर] आकाशवाणी हुई कि वसिष्ठ-पत्नी अरुन्धती मैना से मिलकर बात चलायेंगी। स्त्रियाँ इस काम (बरेखी)- में कुशल होती हैं, [अतः] काम बन जायगा ॥ ७९ ॥ उमा (पार्वतीजी) दुल्हिन हैं और शिवजी (वर) दुल्हा हैं। ये मुनि लोग साधक हैं; अतः यह काम अवश्य बन जायगा ॥ ८० ॥
भयउ अकनि आनंद महेस मुनीसन्ह ।
देहिं सुलोचनि सगुन कलस लिएँ सीसन्ह ॥ ८१ ॥
सिव सो कहेउ दिन ठाउँ बहोरि मिलनु जहँ ।
चले मुदित मुनिराज गए गिरिबर पहँ ॥ ८२ ॥
शिवजी और मुनियों को आकाशवाणी सुनने से आनन्द हुआ। सुन्दर नेत्रों-वाली स्त्रियाँ सिरपर कलश लिये [शुभशकुन] सूचित करती हैं ॥ ८१ ॥ शिवजीने महर्षियों को वह दिन और स्थान बतलाया, जहाँ फिर मिलना हो सकता था; तब वे मुनिश्रेष्ठ आनन्दित होकर गिरिराज (हिमवान्) के पास चलकर पहुँचे ॥ ८२ ॥

गिरि गेह गे अति नेहँ आदर पूजि पहुँनाई करी ।
घरवात घरनि समेत कन्या आनि सब आगें धरी ॥
सुख पाइ बात चलाइ सुदिन सोधाइ गिरिहि सिखाइ कै ।
रिषि सात प्रातहिं चले प्रमुदित ललित लगन लिखाइ कै ॥ १० ॥
जब सप्तर्षि हिमवान् के घर गये, तब हिमवान् ने स्नेह एवं आदर-पूर्वक पूजनकर उनकी पहुनाई (आवभगत) की और पत्नी एवं कन्या सहित घर की सारी सामग्री लाकर उनके आगे रख दी । तब [ पूजा आदिसे] आनन्दित हो विवाह की बात चली और हिमवान् को समझाकर शुभ दिन शोधन करा प्रातःकाल ही सातों ऋषि सुन्दर लग्न लिखवाकर आनन्दपूर्वक [वहाँसे] चले ॥ १० ॥

बिप्र बृंद सनमानि पूजि कुल गुर सुर ।
परेउ निसानहिं घाउ चाउ चहुँ दिसि पुर ॥ ८३ ॥
गिरि बन सरित सिंधु सर सुनइ जो पायउ ।
सब कहँ गिरिबर नायक नेवत पठायउ ॥ ८४ ॥
हिमवान् ने ब्राह्मणों का सम्मान करके कुलगुरु और देवताओं की पूजा की । नगारों पर चोट पड़ने लगी और नगर में चारों ओर उमंग छा गयी ॥ ८३ ॥ पर्वत, वन, नदी, समुद्र और सरोवर जिन-जिनके विषय में सुना उन सभी को सभी श्रेष्ठ पर्वतों के नायक हिमाचल ने न्योता भेज दिया ॥ ८४ ॥
धरि धरि सुंदर बेष चले हरषित हिएँ ।
चवँर चीर उपहार हार मनि गन लिएँ ॥ ८५ ॥
कहेउ हरषि हिमवान बितान बनावन ।
हरषित लगीं सुआसिनि मंगल गावन ॥ ८६ ॥
वे सब -के -सब सुन्दर वेष बना-बनाकर उपहार के लिये चवँर, वस्त्र, हार और मणिगण लिये हृदय में हर्षित हो चले ॥ ८५ ॥ हिमवान् ने प्रमुदित होकर [कुशल कारीगरों को] मण्डप बनाने की आज्ञा दी और विवाहिता लड़कियाँ मङ्गल गान करने लगीं ॥ ८६ ॥
तोरन कलस चवँर धुज बिबिध बनाइन्हि ।
हाट पटोरन्हि छाय सफल तरु लाइन्हि ॥ ८७ ॥
गौरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय ।
जनु रितुराज मनोज राज रजधानिय ॥ ८८ ॥
अनेक प्रकार के बंदनवार ,कलश, चंवर और ध्वजा-पताकाएँ बनायी गयीं, बाजार को रेशमी वस्त्रों से छाकर (ढककर) [बीच-बीचमें] फल-युक्त वृक्ष लगाये गये ॥ ८७ ॥ पार्वतीजी के नैहर का कहिये, किस प्रकार वर्णन किया जाय ! वह तो मानो वसन्त और कामदेव के राज्य की राजधानी ही थी ॥ ८८ ॥

जनु राजधानी मदन की बिरची चतुर बिधि और हीं ।
रचना बिचित्र बिलोकि लोचन बिथकि ठौरहिं ठौर हीं ॥
एहि भाँति ब्याह समाज सजि गिरिराजु मगु जोवन लगे ।
तुलसी लगन लै दीन्ह मुनिन्ह महेस आनँद रँग मगे ॥ ११ ॥
मानो चतुर विधाता ने कामदेव की राजधानी को और ही (अलौकिक) ढंग से रचा है । उसकी विचित्र रचना को देखकर नेत्र जहाँ जाते हैं, वहीं ठिठक-कर रह जाते हैं । इस प्रकार विवाह का साज सजाकर हिमवान् बरात का रास्ता देखने (प्रतीक्षा करने) लगे। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि मुनियों ने शिवजी को लग्नपत्रिका लेकर दी। इससे शिवजी आनन्दोत्सव में मग्न हो गये ॥ ११ ॥

बेगि बोलाइ बिरंचि बचाइ लगन जब ।
कहेन्हि बिआहन चलहु बुलाइ अमर सब ॥ ८९ ॥
बिधि पठए जहँ तहँ सब सिव गन धावन ।
सुनि हरषहिं सुर कहहिं निसान बजावन ॥ ९० ॥
शिवजी ने तुरंत ही ब्रह्माजी को बुलवाकर जब लग्नपत्रिका पढ़वायी, तब उन्होंने कहा कि ‘सब देवताओं को बुलवाकर विवाह के लिये चलो ।’ ब्रह्माजी ने जहाँ-तहाँ शिवजी के गण को धावन (दूत) बनाकर भेजा। यह समाचार सुनकर देवता लोग प्रसन्न हुए और नगारे बजाने को कहने लगे ॥ ८९-९० ॥
रचहिं बिमान बनाने सगुन पावहिं भले ।
निज निज साजु समाजु साजि सुरगन चले ॥ ९१ ॥
मुदित सकल सिव दूत भूत गन गाजहिं ।
सूकर महिष स्वान खर बाहन साजहिं ॥ ९२ ॥
वे सँवारकर विमानों को सजाने लगे। उस समय अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे । इस प्रकार अपने-अपने साज-समाज को सजाकर देवता-लोग चल दिये ॥ ९१ ॥ शिवजी के समस्त दूत और भूत-गण अत्यन्त आनन्दित होकर गरज रहे हैं और सुअर, भैंसे, कुत्ते, गदहे आदि [अपने-अपने] वाहनोंको सजाते हैं ॥ ९२ ॥
नाचहिं नाना रंग तरंग बढ़ावहिं ।
अज उलूक बृक नाद गीत गन गावहिं ॥ ९३ ॥
रमानाथ सुरनाथ साथ सब सुर गन ।
आए जहँ बिधि संभु देखि हरषे मन ॥ ९४ ॥
वे अनेक प्रकार से नाचते हैं और आनन्द की उमंग को और भी बढ़ाते हैं। बकरे, उल्लू, भेड़िये शब्द कर रहे हैं और शिवजी के गण गीत गाते हैं ॥ ९३ ॥ [इसी समय] लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु और देवराज इन्द्र समस्त देवताओं के साथ जहाँ ब्रह्माजी एवं शंकरजी थे, वहाँ आये और उन्हें देखकर अपने मन में [बहुत] प्रसन्न हुए ॥ ९४ ॥
मिले हरिहिं हरु हरषि सुभाषि सुरेसहि ।
सुर निहारि सनमानेउ मोद महेसहि ॥ ९५ ॥
बहु बिधि बाहन जान बिमान बिराजहिं ।
चली बरात निसान गहागह बाजहिं ॥ ९६ ॥
देवराज इन्द्र से मधुर वचन कहकर श्रीमहदेवजी प्रसन्न हो श्रीविष्णुभगवान् से मिले और देवताओं की ओर देखकर उन्हें सम्मानित किया । इससे शिवजी को बड़ा आनन्द हुआ ॥ ९५ ॥ [उस समय] बहुत प्रकार से वाहन, यान और विमान शोभायमान हो रहे थे। फिर बारात चली और धड़ा-धड़ नगारे बजने लगे ॥ ९६ ॥

बाजहिं निसान सुगान नभ चढ़ि बसह बिधुभूषन चले ।
बरषहिं सुमन जय जय करहिं सुर सगुन सुभ मंगल भले ॥
तुलसी बराती भूत प्रेत पिसाच पसुपति सँग लसे।
गज छाल ब्याल कपाल माल बिलोकि बर सुर हरि हँसे ॥ १२ ॥
आकाश में नगारे बजने लगे और गाने का मधुर शब्द होने लगा। शिवजी बैल पर चढ़कर चले । देवतालोग जय-जयकार करने और फूल बरसाने लगे तथा शुभ-सूचक अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि महादेवजी के साथ भूत, प्रेत, पिशाच-ये ही बरातियों के रूप में शोभायमान हो रहे थे। [उस समय] वर को गज-चर्म, सर्प और मुण्ड-माला से
विभूषित देखकर देवतालोग और विष्णुभगवान् हंसने लगे ॥ १२ ॥

बिबुध बोलि हरि कहेउ निकट पुर आयउ ।
आपन आपन साज सबहि बिलगायउ ॥ ९७ ॥
प्रमथनाथ के साथ प्रमथ गन राजहिं ।
बिबिध भाँति मुख बाहन बेष बिराजहिं ॥ ९८ ॥
भगवान् ने देवताओं को बुलाकर कहा कि ‘अब नगर निकट आ गया है । अतः सब लोग अपने-अपने समाज को अलग-अलग कर लो’ ॥ ९७ ॥ इस समय भूतनाथ के साथ भूत-गण शोभायमान हैं, जो अनेक प्रकार के मुख, वेष और वाहनों से विराजमान हो रहे हैं ॥ ९८ ॥
कमठ खपर मढि खाल निसान बजावहिं ।
नर कपाल जल भरि-भरि पिअहिं पिआवहिं ॥ ९९ ॥
बर अनुहरत बरात बनी हरि हँसि कहा ।
सुनि हियँ हँसत महेस केलि कौतुक महा ॥ १०० ॥
वे कछुओं के खपड़े को खाल से मँढ़कर उन्हीं को नगारों के रूप में बजाते हैं और मनुष्य की खोपड़ी में जल भर-भरकर पीते और पिलाते हैं ॥ ९९ ॥ तब भगवान् विष्णु ने हँसकर कहा कि दुल्हा के योग्य ही बरात बनी है, यह सुनकर शिवजी हृदय में हँसते हैं । इस प्रकार खूब क्रीडा कौतुक हो रहा है ॥ १०० ॥
बड़ बिनोद मग मोद न कछु कहि आवत ।
जाइ नगर नियरानि बरात बजावत ॥ १०१ ॥
पुर खरभर उर हरषेउ अचल अखंडलु ।
परब उदधि उमगेउ जनु लखि बिधु मंडलु ॥ १०२ ॥
मार्ग में बड़ा विनोद हो रहा है, उस समय का आनन्द कुछ कहने में नहीं आता। बारात बाजे बजाती हुई नगर के निकट पूहुँच गयी ॥ १०१ ॥ नगर में खलबली पड़ गयी और सम्पूर्ण हिमाचल पर्वत (राज्यभर) हृदय में आनन्दित हो गया, मानो पूर्णिमा के समय चन्द्रमण्डल को देखकर समुद्र उमड़ गया हो ॥ १०२ ॥
प्रमुदित गे अगवान बिलोकि बरातहि ।
भभरे बनइ न रहत न बनइ परातहि ॥ १०३ ॥
चले भाजि गज बाजि फिरदि नहिं फेरत ।
बालक भभरि भुलान फिरहिं घर हेरत ॥ १०४ ॥
स्वागत करने वाले प्रसन्न होकर आगे गये, परंतु बरात को देखकर घबरा गये । उस समय उनसे न तो रहते बनता था और न भागते ही ॥ १०३ ॥ हाथी, घोड़े भाग चले, वे लौटाने से भी नहीं लौटते, बालक भी घबराहट के मारे भटक गये, वे घर खोजते फिरते हैं ॥ १०४ ॥
दीन्ह जाइ जनवास सुपास किए सब ।
घर घर बालक बात कहन लागे तब ॥ १०५ ॥
प्रेत बेताल बराती भूत भयानक ।
बरद चढ़ा बर बाउर सबइ सुबानक ॥ १०६ ॥
अगवानों ने बरातियों को जनवासा दिया और सब प्रकारके सुपास (ठहरने के लिये स्थान) की व्यवस्था कर दी, तब सब बालक घर-घर पहुँचकर कहने लगे ॥ १०५ ॥ ‘प्रेत, बेताल और भयंकर भूत बराती हैं तथा बावला वर बैल पर सवार है । इस प्रकार सभी बानक दुल्हे के योग्य ही बना है (अर्थात् सारा साज-समाज ही विपरीत है) ‘॥ १०६ ॥
कुसल करइ करतार कहहिं हम साँचिअ ।
देखब कोटि बिआह जिअत जौं बाँचिअ ॥ १०७ ॥
समाचार सुनि सोयु भयउ मन मयनहिं ।
नारद के उपदेस कवन घर गे नहिं ॥ १०८ ॥
हम सत्य कहते हैं ईश्वर कुशल करें, जो जीते बच गये तो करोड़ों ब्याह देखेंगे’॥ १०७ ॥ इस समाचार को सुनकर मैना के मनमें [बड़ा] सोच हुआ। [वे कहने लगीं कि] नारद के उपदेश से कौन घर नष्ट नहीं हुआ ॥ १०८ ॥

घर घाल चालक कलह प्रिय कहियत परम परमारथी ।
तैसी बरेखी कीन्हि पुनि मुनि सात स्वारथ सारथी ॥
उर लाइ उमहि अनेक बिधि जलपति जननि दुख मानई ।
हिमवान कहेउ इसान महिमा अगम निगम न जानई ॥ १३ ॥
‘नारदजी को कहते तो परम परोपकारी हैं, परंतु ये हैं घर को नष्ट करने वाले, धूर्त और कलहप्रिय । सप्तर्षियों ने विवाह-सम्बन्धी बातचीत भी वैसी ही की, वे भी [पूरे] स्वार्थ-साधक ही निकले’ इस प्रकार माता मैना पार्वतीजी को हृदय से लगाकर अनेक प्रकार की कल्पना करने लगी और अत्यन्त दुःख मानने लगी। तब हिमवान् ने कहा कि शिवजीकी महिमा अगम्य है, उसे वेद भी नहीं जानता ॥ १३ ॥

सुनि मैना भइ सुमन सखी देखन चली ।
जहँ तहँ चरचा चलइ हाट चौहट गली ॥ १०९ ॥
श्रीपति सुरपति बिबुध बात सब सुनि सुनि ।
हँसहिं कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि पुनि ॥ ११० ॥
हिमवान् के वचन सुनकर मैना का मन कुछ स्वस्थ हुआ अर्थात् उसके मन में सान्त्वना हुई। उस समय जहाँ-तहाँ बाजार, चौक एवं गलियों में बरात की ही चर्चा चल रही थी ॥ १०९ ॥ उसे सुन-सुनकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु, देवराज इन्द्र तथा [अन्य] देवता-लोग कमल के समान हाथों को जोड़कर (अर्थात् मुखमण्डल को हाथों से ढककर) बार-बार मुंह फेरकर हँसते थे ॥ ११० ॥
लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर ।
भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर ॥ १११ ॥
नील निचोल छाल भइ फनि मनि भूषन ।
रोम रोम पर उदित रूपमय पूषन ॥ ११२ ॥
तब श्रीमहादेवजी लौकिक गति को देखते हुए उस समय बड़ा कोलाहल जान सौ करोड़ कामदेव से भी अधिक सुन्दर और मनोहर हो गये ॥ १११ ॥ उनका गज-चर्म नीलाम्बर हो गया और जितने सर्प थे, वे मणिमय आभूषण हो गये । उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके रोम-रोम पर सुन्दर रूपमय सूर्य प्रकाशित हो रहे हों ॥ ११२ ॥
गन भए मंगल बेष मदन मन मोहन ।
सुनत चले हियँ हरषि नारि नर जोहन ॥ ११३ ॥
संभु सरद राकेस नखत गन सुर गन ।
जनु चकोर चहुँ ओर बिराजहिं पुर जन ॥ १९४ ॥
शिवजी के गणों का वेष भी मंगलमय हो गया और वे अपने सौन्दर्य से कामदेव के भी मन को मोहने लगे। यह सुनकर [सभी] स्त्री-पुरुष हृदय में आनन्दित होकर उन्हें देखने के लिये चले ॥ ११३ ॥ [उस समय ऐसा जान पड़ता था] मानो शिवजी शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा हैं । देवतालोग नक्षत्रों के समान हैं तथा उन्हें देखने के लिये उनके चारों ओर पुरवासी लोग चकोर समुदाय की भाँति सुशोभित हो रहे थे ॥ ११४ ॥
गिरबर पठए बोलि लगन बेरा भई ।
मंगल अरघ पाँवड़े देत चले लई ॥ ११५ ॥
होहिं सुमंगल सगुन सुमन बरषहिं सुर ।
गहगहे गान निसान मोद मंगल पुर ॥ ११६ ॥
लग्न का समय होने पर गिरिवर हिमवान् ने बरातियों को बुलावा भेजा और उन्हें मंगलमय अर्घ्य और पाँवड़े देते साथ ले चले ॥ ११५॥ [चलनेके समय] मंगलमय शकुन होते हैं और देवता लोग फूलों की वर्षा करते हैं। आनन्दपूर्ण गान और नगारों का निनाद होने लगा और नगर आनन्द एवं मंगल से पूर्ण हो गया ॥ ११६ ॥
पहिलिहिं पवरि सुसामध भा सुख दायक ।
इति बिधि उत हिमवान सरिस सब लायक ॥ ११७ ॥
मनि चामीकर चारु थार सजि आरति ।
रति सिहाहिं लखि रूप गान सुनि भारति ॥ ११८ ॥
पहली ही पौरी पर समधियों का सुखदायक सम्मिलन हुआ। इधर ब्रह्माजी थे और उधर हिमवान् थे। दोनों ही समान और सब प्रकार से योग्य थे ॥ ११७ ॥ फिर मणि और सोने के सुन्दर थाल में आरती सजाकर स्त्रियाँ चलीं। उनके रूप को देखकर कामपत्नी रति और गान श्रवण-कर सरस्वती भी ईर्ष्या करने लगती थीं ॥ ११८ ॥
भरी भाग अनुराग पुलकि तन मुद मन ।
मदन मत्त गजगवनि चलीं बर परिछन ॥ ११९ ॥
बर बिलोकि बिधु गौर सुअंग उजागर ।
करति आरती सासु मगन सुख सागर ॥ १२० ॥
शरीर से पुलकित और मन में आनन्दित हो वे भाग्य और प्रेम से भरी प्रेम के आवेश में मत्त गजगामिनी कामिनियाँ वर (दूल्हा)-का परिछन (पूजन) करने चलीं ॥ ११९ ॥ वर को चन्द्रमा के समान गौर और अंग-अंग में प्रकाशपूर्ण देखकर सास (मैना) सुखसागर में मग्न हो आरती उतारने लगीं ॥ १२ ॥

सुख सिंधु मगन उतारि आरति करि निछावर निरखि कै ।
मगु अरघ बसन प्रसून भरि लेइ चलीं मंडप हरषि कै ॥
हिमवान दीन्हें उचित आसन सकल सुर सनमानि कै ।
तेहि समय साज समाज सब राखे सुमंडप आनि कै ॥ १४ ॥
सास ने सुख-सिन्धु में मग्न होकर आरती उतारी और फिर निछावर करके वर की ओर देखकर मार्ग में अर्घ्य और पाँवड़े देतीं फूल से लदे हुए वर को आनन्द-पूर्वक मण्डप में ले चलीं। हिमवान् ने सभी देवता का सम्मान करके उन्हें उचित आसन दिये । उस समय का जो कुछ साज-समाज था, वह सब सुन्दर मण्डप में लाकर रखा गया ॥ १४ ॥

अरघ देइ मनि आसन बर बैठायउ ।
पूजि कीन्ह मधुपर्क अमी अचवायउ ॥ १२१ ॥
सप्त रिषिन्ह बिधि कहेउ बिलंब न लाइअ ।
लगन बेर भइ बेगि बिधान बनाइअ ॥ १२२ ॥
वर को अर्घ्य देकर मणि-जटित आसन पर बैठाया गया और फिर पूजा करके मधु-पर्क खिलाने की रीति पूरी की गया तथा आचमन कराया गया ॥ १२१ ॥ तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने सप्तर्षियों से कहा कि ‘विलम्ब न करो लग्न का समय हो गया है। शीघ्र ही सब विधियाँ सम्पन्न करो’ ॥ १२२ ॥
थापि अनल हर बरहि बसन पहिरायउ ।
आनहु दुलहिनि बेगि समय अब आयउ ॥ १२३ ॥
सखी सुआसिनि संग गौरि सुठि सोहति ।
प्रगट रूपमय मूरति जनु जग मोहति ॥ १२४ ॥
तब अग्नि -स्थापना करके दूल्हे (श्रीशिवजी)-को वस्त्र पहनाया गया और कहा गया कि शीघ्र ही दुल्हिन को लाओ, अब समय आ गया है’ ॥ १२३ ॥ उस समय सखियों और ब्याही हुई [अन्य] लड़कियों के साथ पार्वतीजी अत्यन्त सुशोभित हो रही थीं, मानो सौन्दर्य-मूर्ति प्रकट होकर जगत् को मोह रही हो ॥ १२४ ॥
भूषन बसन समय सम सोभा सो भली ।
सुषमा बेलि नवल जनु रूप फलनि फली ॥ १२५ ॥
कहहु काहि पटतरिय गौरि गुन रूपहि ।
सिंधु कहिय केहि भाँति सरिस सर कूपहि ॥ १२६ ॥
समय के अनुकूल वस्त्र और आभूषणों की खूब शोभा हो रही है, मानो शोभा की नवीन लतिका रूपमय फलों से फली हुई है ॥ १२५ ॥ कहो, पार्वतीजी के गुणों एवं रूप की तुलना किससे की जाय ! समुद्र को किस प्रकार तालाब और कुएँ के बराबर बतलाया जाय !॥ १२६ ॥
आवत उमहि बिलोकि सीस सुर नावहिं ।
भव कृतारथ जनम जानि सुख पावहिं ॥ १२७ ॥
बिप्र बेद धुनि करहिं सुभासिष कहि कहि ।
गान निसान सुमन झरि अवसर लहि लहि ॥ १२८ ॥
पार्वतीजी को आते देखकर देवतालोग सिर नवाते हैं और अपना जन्म कृतार्थ हुआ जानकर सुखी होते हैं ॥ १२७ ॥ ब्राह्मणलोग आशीर्वाद दे-देकर वेद की ध्वनि कर रहे हैं और समय-समय पर गान एवं नगारों की ध्वनि तथा फूलों की वर्षा हो रही है ॥ १२८ ॥
बर दुलहिनिहि बिलोकि सकल मन हरसहिं ।
साखोच्चार समय सब सुर मुनि बिहसहिं ॥ १२९ ॥
लोक बेद बिधि कीन्ह लीन्ह जल कुस कर ।
कन्या दान सँकलप कीन्ह धरनीधर ॥ १३० ॥
सब लोग दुल्हा दुल्हिन को देखकर मन -ही -मन प्रफुल्लित होते हैं । शाखोच्चार के समय सब देवता और मुनिलोग हंसने लगे ॥ १२९ ॥ फिर पर्वतराज हिमवान् ने सब प्रकार की लौकिक-वैदिक विधियों को करके हाथ में जल और कुश लिया तथा कन्यादान का संकल्प किया ॥ १३० ॥
पूजे कुल गुर देव कलसु सिल सुभ घरी ।
लावा होम बिधान बहुरि भाँवरि परी ॥ १३१ ॥
बंदन बंदि ग्रंथि बिधि करि धुव देखेउ ।
भा बिबाह सब कहहिं जनम फल पेखेउ ॥ १३२ ॥
कुल-गुरु और कुल-देवताओं का पूजन किया गया । फिर उस शुभ घरी (घड़ी) में कलश और शिला का पूजन किया गया । [तत्पश्चात्] लावा-विधान (जिसमें कन्या का भाई कन्या की गोदमें धान का लावा भरता है) और होम-विधान होकर फिर भाँवरें पड़ीं ॥ १३१ ॥ [इसके अनन्तर] वधू की माँग में सिन्दूर भरने की रीति कर ग्रन्थि-बन्धन हुआ और फिर ध्रुव का दर्शन किया गया। तब सब लोग कहने कि विवाह सम्पन्न हो गया और हम लोगों ने जन्म लेने का फल अपनी आँखों से देख लिया ॥ १३२ ॥

पेखेउ जनम फलु भा बिबाह उछाह उमगहि दस दिसा ।
नीसान गान प्रसूत झरि तुलसी सुहावनि सो निसा ॥
दाइज बसन मनि धेनु धन हय गय सुसेवक सेवकी ।
दीन्हीं मुदित गिरिराज जे गिरिजहि पिआरी पेव की ॥ १५ ॥
इस प्रकार सभी ने अपना जन्मफल देखा । विवाह हो गया और दसों दिशाओं में आनन्द उमड़ पड़ा । गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि नगारों के घोष, गान की ध्वनि और फूलों की वर्षा से वह रात्रि सुहावनी हो गयी । पर्वतराज हिमवान् ने वस्त्र, मणियाँ, गौ, धन, हाथी, घोड़े, दास-दासियाँ जो कुछ भी गिरिजा को प्रिय थे, वे सभी प्रेम-पूर्वक दहेज में दिये ॥ १५ ॥

बहुरि बराती मुदित चले जनवासहि ।
दूलह दुलहिन गे तब हास-अवासहि ॥ १३३ ॥
रोकि द्वार मैना तब कौतुक कीन्हेउ ।
करि लहकौरि गौरि हर बड़ सुख दीन्हेउ ॥ १३४ ॥
फिर बराती लोग तो जनवासे को चले गये और दूल्हा-दुल्हिन कोहवर में गये ॥ १३३ ॥ उस समय मैना ने उनका द्वार रोककर कौतुक किया और शिव पार्वती ने लहकौरि की रीति करके उसे बड़ा सुख दिया ॥ १३४ ॥
जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि ।
आपनि ओर निहारि प्रमोद पुरारिहि ॥ १३५ ॥
सखी सुआसिनि सासु पाठ सुख सब बिधि ।
जनवासेहि बर चलेउ सकल मंगल निधि ॥ १३६ ॥
जुआ खेलाते समय सब स्त्रियाँ हिमाचल-पत्नी मैना को गाली गाती हैं । शिवजी अपनी ओर देखकर विशेष आनन्दित होते हैं [कि हमारे तो माता है ही नहीं गाली किसको देंगी] ॥ १३५ ॥ सखियों, सुआसिनियों और सास सभी ने सब प्रकार सुख प्राप्त किया। फिर सब मंगलों के निधान दूल्हा श्रीमहादेवजी जनवासे को चले ॥ १३६ ॥
भइ जेवनार बहोरि बुलाइ सकल सुर ।
बैठाए गिरिराज धरम धरनि धुर ॥ १३७ ॥
परुसन लगे सुआर बिबुध जन जेवहिं ।
देहिं गारि बर नारि मोद मन भेवहिं ॥ १३८ ॥
तदनन्तर सब देवताओं को बुलाकर जेवनार हुई। धर्म और पृथ्वी को धारण करने वाले गिरिराज ने सबको बिठाया ॥ १३७ ॥ सुआर (सूपकार) परोसने लगे और देवता लोग जीमने लगे । उस समय सुन्दरी स्त्रियाँ गाली गाने लगीं और मन को आनन्द में डुबोने लगीं ॥ १३८ ॥
करहिं सुमंगल गान सुघर सहनाइन्ह ।
जेइँ चले हरि दुहिन सहित सुर भाइन्ह ॥ १३९ ॥
भूधर भोरु बिदा कर साज सजायउ ।
चले देव सजि जान निसान बजायउ ॥ १४० ॥
गुणी लोग शहनाइयों पर सुमंगल गान करने लगे, विष्णु-भगवान् और ब्रह्माजी अपने भाई (सजातीय) समस्त देवता के साथ भोजन करके चले ॥ १३९ ॥ पर्वतराज हिमवान् ने प्रातःकाल होते ही विदा का सामान तैयार किया और देवतालोग रथों को सजाकर नगारे बजाते हुए चल दिये ॥ १४० ॥
सनमाने सुर सकल दीन्ह पहिरावनि ।
कीन्ह बड़ाई बिनय सनेह सुहावनि ॥ १४१ ॥
गहि सिव पद कह सासु बिनय मृदु मानबि ।
गौरि सजीवन मूरि मोरि जियँ जानबि ॥ १४२ ॥
सभी देवताओं का सम्मान करके उन्हें पहिरावनी दी और उनकी विनय एवं स्नेह से सुहावनी बड़ाई की ॥ १४१ ॥ फिर सास ने शिवजी के चरणों को पकड़कर कहा कि ‘हमारी एक विनीत प्रार्थना मानिये-पार्वती मेरे जीवन की मूल है ऐसा जानियेगा’ ॥ १४२ ॥
भेंटि बिदा करि बहुरि भेंटि पहुँचावहिं ।
हुँकरि हुँकरि सु लवाइ धेनु जनु धावहिं ॥ १४३ ॥
उमा मातु मुख निरखि नैन जल मोचहिं ।
नारि जनमु जग जाय सखी कहि सोचहिं ॥ १४४ ॥
वे एक बार मिलकर विदा कर देती हैं और फिर मिलकर पहुँचाने जाती हैं, मानो हालकी बियाई हुई गाय हुंकार भर-भरकर दौड़ती हो ॥ १४३ ॥ पार्वतीजी माता के मुख को देखकर नेत्रों से जल बहा रही हैं और सखियाँ ‘संसार में स्त्री का जन्म ही वृथा है’ यों कहकर सोच करती हैं ॥ १४४ ॥
भेंटि उमहि गिरिराज सहित सुत परिजन ।
बहुत भाँति समुझाइ फिरे बिलखित मन ॥ १४५ ॥
संकर गौरि समेत गए कैलासहि ।
नाइ नाइ सिर देव चले निज बासहि ॥ १४६ ॥
गिरिराज हिमवान् पुत्र और परिजनों सहित पार्वतीजी से मिलकर और उन्हें बहुत प्रकार समझा-बुझाकर दुःखी मन से लौटे ॥ १४५ ॥ फिर शिवजी पार्वतीजी के सहित कैलास गये और देवतालोग प्रणाम करके अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ १४६ ॥
उमा महेस बिआह उछाह भुवन भरे ।
सब के सकल मनोरथ बिधि पूरन करे ॥ १४७ ॥
प्रेम पाट पटडोरि गौरि हर गुन मनि ।
मंगल हार रचेउ कबि मति मृगलोचनि ॥ १४८ ॥
पार्वतीजी और शिवजी के विवाह के आनन्द से सारे भुवन भर गये, विधाता ने सबके सम्पूर्ण मनोरथों को पूरा कर दिया ॥ १४७ ॥ प्रेम-रूप रेशम के रेशमी तागे (धागे) में कवि की बुद्धि-रूपी मृग-नयनी कामिनी ने यह श्रीपार्वती और शंकर के गुण-गण-रूपी मणियों से मंगलमय हार गूँथा है ॥ १४८ ॥

मृगनयनि बिधुबदनी रचेउ मनि मंजु मंगलहार सो ।
उर धरहुँ जुबती जन बिलोकि तिलोक सोभा सार सो ॥
कल्यान काज उछाह ब्याह सनेह सहित जो गाइहै ।
तुलसी उमा संकर प्रसाद प्रमोद मन प्रिय पाइहै ॥ १६ ॥
कवि की बुद्धि-रूपी मृगनयनी चन्द्रवदनी स्त्री ने [उपर्युक्त] मणियों के इस मंगलहार को रचा है, इसे भक्तों की बुद्धि-रूपी स्त्रियाँ तीनों लोक की शोभा का सार समझकर धारण करें। जो लोग विवाहोत्सवादि मंगल -कृत्यों के समय इसका प्रेम-सहित गान करेंगे, श्रीगोस्वामीजी कहते हैं कि वे श्रीशिव और पार्वतीजी के प्रसाद से मन को प्रिय लगने वाला आनन्द प्राप्त करेंगे ॥ १६ ॥

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