भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – २१६
ब्राह्मपर्व—श्रवण का माहात्म्य, पुराण-श्रवण की विधि, पुराणों तथा पुराणवाचक व्यासकी महिमा

सुमन्तुजी ने कहा — राजन् ! भविष्यपुराण के इस प्रथम ब्राह्मपर्व के सुनने से मानव सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है तथा सहस्रों अश्वमेध, वाजपेय एवं राजसूय यज्ञों, सभी तीर्थयात्राओं, वेदाभ्यास तथा पृथ्वीदान करने का फल प्राप्त कर लेता है । इतिहास-पुराण के श्रवण के अतिरिक्त ऐसा कोई साधन नहीं हैं, जो सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर सके । पुराण-श्रवण का जो फल बतलाया गया है, वहीं फल पुराण के पाठ से भी होता है, इसमें कोई संदेह नहीं ।om, ॐइतिहासपुराणाभ्यां न त्वन्यत् पावनंनृणाम् ।
येषां श्रवणमात्रेण मुच्यते सर्वकिल्बिषैः ॥
विधिना राजशार्दूल शृण्वतां यत्फलं किल ।
यथोक्तं नात्र संदेहः पठतां च विशाम्पते ॥ (ब्राह्मपर्व २१६ ।३४-३५)

शतानीक ने पूछा — भगवन् ! महाभारत, रामायण एवं पुराणों का श्रवण तथा पठन किस विधान से करना चाहिये ? पुराण-वाचक के क्या लक्षण हैं ? भगवान् खखोल्क का क्या स्वरूप है ? वाचक की विधिवत् पूजा करने से क्या फल होता हैं ? पर्व की समाप्ति पर वाचक को क्या देना चाहिये ? इसे आप बताने की कृपा करें ।

सुमन्तु जी बोले — राजन् ! आपने इतिहास-पुराण के सम्बन्ध में अच्छी जिज्ञासा की है । महाबाहो ! इस सम्बन्ध में पूर्वकाल में देवगुरु बृहस्पति तथा ब्रह्माजी के मध्य में संवाद हुआ था, उसे आप श्रवण करें ।

मानव विशेष भक्तिपूर्वक इतिहास और पुराण का श्रवण कर ब्रह्महत्यादि सभी पापों से मुक्त हो जाता है । पवित्र होकर प्रातः, सायं तथा रात्रि में जो पुराण का श्रवण करता है, उस व्यक्ति से ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश संतुष्ट हो जाते हैं । प्रातःकाल भगवान् ब्रह्मा, सायंकाल विष्णु और रात्रि में महादेव प्रसन्न होते हैं ।

‘इतिहासपुराणानि श्रुत्वा भक्त्या विशेषतः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो ब्रह्महत्यादिभिर्विभो ॥
सायं प्रातस्तथा रात्रौ शुचिर्भूत्वा शृणोति यः ।
तस्य विष्णुस्तथा ब्रह्मा तुष्यते शंकरस्तथा ॥
प्रत्यूषे भगवान् ब्रह्मा दिनान्ते तुष्यतेहरिः ।
महादेवस्तथा रात्रौ शृण्वतां तुष्यते विभुः ॥’ (ब्राह्मपर्व २१६ । ४३-४५)

राजन् ! अब वाचक के विधान को सुनिये । पवित्र वस्त्र पहनकर शुद्ध होकर प्रदक्षिणा-पूर्वक जब वाचक आसन पर बैठता है तो वह देवस्वरूप हो जाता है । आसन न बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा । वाचक के आसन की सदा वन्दना की जानी चाहिये । वाचक के आसन को व्यासपीठ कहा जाता है । पीठ को गुरु का आसन समझना चाहिये । वाचक के आसन पर सुननेवाले को कभी भी नहीं बैठना चाहिये । देवताओं की अर्चना करके विशेषरूप से ब्राह्मण की पूजा करनी चाहिये । सभी समागत व्यक्तियों को साथ में लेकर पुराण-ग्रन्थ वाचक के लिये प्रदान करे । उस ग्रन्थ को नतमस्तक हो प्रणाम करें । तब शान्त-चित्त होकर श्रवण करे ।

ग्रन्थ का सूत्र (धागा) वासुकि कहा गया है । ग्रन्थ का पत्र भगवान् ब्रह्मा, उसके अक्षर जनार्दन, सूत्र शंकर तथा पंक्तियाँ सभी देवता हैं । सूत्र के मध्य में अग्नि और सूर्य स्थित रहते हैं । इनके आगे सभी ग्रह तथा दिशाएँ अवस्थित रहती है । शंकु को मेरु कहा गया है । रिक्त-स्थान को आकाश कहा गया है । ग्रन्थ के ऊपर तथा नीचे रहनेवाले दो काष्ठ-फलक द्यावा-पृथिवी-रूप में सूर्य और चन्द्रमा हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ देवमय है और देवताओं द्वारा पूजित है । इसलिये अपने कल्याण की कामना से इतिहास-पुराणादि श्रेष्ठ ग्रन्थों को अपने घर में रखना चाहिये, उन्हें नमस्कार करना चाहिये तथा उनकी पूजा करनी चाहिये ।

इत्थे देवमयं होतत् पुस्तकं देवपूजितम् ।
नमस्यं पूजनीयं च गृहे स्थाप्यं विभूतये ॥ (ब्राह्मपर्व २१६ । ५८)

राजन् ! वाचक ग्रन्थ को हाथ में ग्रहण कर ब्रह्मा, व्यास, वाल्मीकि, विष्णु, शिव, सूर्य आदि को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके श्रद्धासमन्वित होकर ओजस्वी स्वर में अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण करते हुए तथा सात स्वरों से युक्त यथासमय यथोचित रस एवं भावों को प्रकट करते हुए ग्रन्थ का पाठ करे । इस प्रकार वाचक के मुख से जो श्रोता नियमतः श्रद्धापूर्वक इतिहास-पुराण और रामचरित को सुनता है, वह सभी फलों को प्राप्त कर सभी रोगों से मुक्त हो जाता है और विपुल पुण्य को प्राप्त कर भगवान् के उत्तम और अद्भुत स्थान को प्राप्त करता है । श्रोता को चाहिये कि वह स्नानादि से पवित्र होकर वाचक को प्रणाम करके उसके सम्मुख आसन पर बैठे और वाणी को संयत कर सुसमाहित हो वाचक की बातों को सुने ।

महाबाहो ! व्यासस्वरुप वाचक को नमस्कार करने पर संशय के बिना अन्य कुछ भी नहीं बोलना चाहिये । कथा-सम्बन्धी धार्मिक शंका या जिज्ञासा उत्पन्न होनेपर वाचक से नम्रतापूर्वक पूछना चाहिये, क्योंकि व्यासस्वरूप वक्ता उसका गुरु और धर्मबन्धु है । वाचक को भी भली-भाँति उसे समझाना चाहिये, क्योंकि वह गुरु है, इसीलिये सबपर अनुग्रह करना उसका धर्म है । उत्तर के अनन्तर ‘तुम्हारा कल्याण हो’ यह कहकर पुनः आगे की कथा सुनानी चाहिये । श्रोता को अपनी वाणी पर नियन्त्रण रखना चाहिये । वाचक ब्राह्मण को ही होना चाहिये । प्रत्येक मास में पारण करे तथा वाचक की पूजा करे, महीना के पूर्ण होनेपर वाचक को स्वर्ण प्रदान करे ।प्रथम पारणा वाचक की अपनी शक्ति के अनुसार पूजा करने पर अग्निष्टोम-यज्ञ का फल प्राप्त होता है । कार्तिक से आरम्भकर आश्विन मास तक प्रत्येक मास में एक-एक पारणा पर पूजन करने से क्रमशः अग्निष्टोम, गोसव, ज्योतिष्टोम, सौत्रामणि, वाजपेय, वैष्णव, माहेश्वर, ब्राह्म, पुण्डरीक, आदित्य, राजसूय तथा अश्वमेध — यज्ञों का फल प्राप्त होता है । इस प्रकार यज्ञ-फलों की प्राप्ति कर वह निःसंदेह उत्तम लोक को प्राप्त करता है ।

पर्व की समाप्ति पर गन्ध, माला, विविध वस्त्र आदि से वाचक की पूजा करनी चाहिये । स्वर्ण, रजत, गाय, काँसे का दोहन—पात्र आदि वाचक को प्रदान कर कथा-श्रवण का फल प्राप्त करना चाहिये । वाचक से बढ़कर दान देने योग्य सुपात्र और कोई नहीं है, क्योंकि उसकी जिह्वा के अग्रभाग पर सभी शास्त्र विराजमान रहते हैं । जो श्रद्धापूर्वक वाचक को भोजन कराता है, उसके पितर सौ वर्ष तक तृप्त रहते हैं । जैसे सभी देवों में सूर्य श्रेष्ठ है वैसे ही ब्राह्मणों में वाचक श्रेष्ठ । वाचक व्यास कहा जाता है । जिस देश, नगर, गाँव में ऐसा व्यास निवास करता है वह क्षेत्र श्रेष्ठ माना जाता है । वहाँ के निवासी धन्य है, कृतार्थ है, इसमें संदेह नहीं । वाचक को प्रणाम करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, उस फल की प्राप्ति अन्य कर्मों से नहीं होती ।जैसे कुरुक्षेत्र के समान कोई दूसरा तीर्थ नहीं, गङ्गा के समान कोई नदी नहीं, भास्कर से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं, अश्वमेघ के समान कोई यज्ञ नहीं, ब्रह्म-हत्या के समान कोई पाप नहीं, पुत्र-जन्म के तुल्य सुख नहीं, वैसे ही पुराणवाचक व्यास के समान कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता । देवकार्य, पितृकार्य सभी कर्मों में यह परम पवित्र है ।

कुरुक्षेत्रसमं तीर्थं न द्वितीय प्रचक्षते ।
न नदी गङ्गया तुल्या न देवो भास्कराद्वरः ॥
नाश्वमेधसमं पुण्यं न पापं ब्रह्महत्यया ।
पुत्रजन्मसुखैस्तुल्यं न सुखं विद्यते यथा ॥
तथा व्याससमो विप्रो न क्वचित् प्राप्यते नृप ।
दैवे कर्मणि पित्र्ये च पावनः परमो नृणाम् ॥
(ब्राह्मपर्व २१६ । १०९-१११)

राजन् ! इस प्रकार मैंने पुराण-श्रवण की विधि तथा वाचक के माहात्म्य को बतलाया । विधि के अनुसार ही पुराणादि का श्रवण एवं पाठ करना चाहिये । स्नान, दान, जप, होम, पितृ-पूजन तथा देवपूजन आदि सभी श्रेष्ठ कर्म विधिपूर्वक अनुष्ठित होनेपर ही उत्तम फल प्रदान करते हैं ।
(अध्याय २१६)

( ॐ तत्सत् भविष्यपुराणान्तर्गत ब्राह्मपर्व शुभं भूयात् )

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118. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९० से १९२

119. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९३

120. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९४ से १९७

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122. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०३ से २०७

123. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०८ से २०९

124. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१० से २११

125. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१२ से २१४

126. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१५

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