भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ५८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ५८
अनघाष्टमी-व्रत की कथा एवं विधि

भगवान् श्रीकृष्णने कहा — महाराज ! प्राचीन काल में ब्रह्माजी के महातेजस्वी अत्रि पुत्ररूप में उत्पन्न हुए । अत्रि की भार्या का नाम था अनसूया, वह महान् भाग्यशालिनी एवं पतिव्रता थी । कुछ काल के बाद उनके महातेजस्वी पुत्र दत्त हुए । दत्त महान् योगी थे । ये विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे । इनका दूसरा नाम था अनघ । इनकी भार्या का नाम था नदी । ब्राह्मणों के सभी गुणों से सम्पन्न इनके आठ पुत्र थे ।om, ॐ ‘दत्त’ विष्णु-रूप में थे तथा ‘न’ लक्ष्मी की रूप थीं । दत्त अपनी भार्या नदी के साथ योगाभ्यास में लीन थे, उसी समय जम्भ यह अनेक राक्षसों का नाम है । इसका वर्णन श्रीमद्भागवत ६।१८। १२, ब्रह्माण्ड ३।६।१०, वायु० ९७।१०३, मत्स्य० ४७।७२ और विष्णु० ४।६।१४ आदि पुराणों में आया है। इसे इन्द्र ने मारा था, अतः इन्द्रका एक नाम जम्भभेदी भी है।नामक दैत्य से पीडित तथा पराजित देवता विन्ध्यगिरि में स्थित इनके आश्रम में आये और उन्होंने इनकी शरण ग्रहण की । दत्तात्रेयजी ने इन्द्र के साथ उन सभी देवताओं को अपने योगबल से अपने आश्रम में रख लिया और कहा — ‘आपलोग निर्भय तथा निश्चिन्त होकर यहाँ रहें ।’ देवगण अत्यन्त प्रसन्न हो गये और वे वहीं रहने लगे ।

दैत्य-समुदाय भी देवताओं को खोजते-खोजते इसी आश्रम पर आ पहुँचा । वेक्रोधपूर्वक ललकारकर कहने लगे — ‘इस मुनि की पत्नी को पकड़ लो और यह सारा आश्रम उजाड़ डालो ।’ यह कहते हुए दैत्यगण आश्रम में घुस गये और उनकी पत्नी को उठाकर अपने सिर पर रखकर चल पड़े । लक्ष्मी को सिर पर उठाते ही सभी दैत्य श्रीहीन हो गये और दत्त की दृष्टि पड़ने से वे सभी दैत्य भागने और नष्ट होने लगे । देवताओं ने भी उन्हें मारना प्रारम्भ कर दिया । निश्चेष्ट होकर दैत्यगण हाहाकार करने लगे । दत्तमुनि के प्रभाव से वहाँ प्रलय मच गया । इन्द्रादि देवताओं ने सभी असुरों को पराजित कर दिया और फिर वे सभी अपने-अपने लोक चले गये तथा पूर्ववत् आनन्द से रहने लगे । देवताओं ने उन भगवान् दत्तात्रेय की महिमा और प्रभाव को ही इसमें कारण माना ।

दत्तात्रेयजी भी संसार के कल्याण के लिये ऊर्ध्वबाहु होकर कठिन तपस्या करने लगे । ये योगमार्ग का आश्रय लेकर ध्यान-समाधि में स्थित हो गये । इसी प्रकार समाधि में उन्हें तीन हजार वर्ष व्यतीत हो गये । एक दिन माहिष्मती के राजा हैहयाधिपति कार्तवीर्यार्जुन हैहयवंशी राजा कार्तवीर्यार्जुन भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्रावतार माने जाते है । हैहय कुलश्रेष्ठ महाराज श्री सहस्त्रबाहु का जन्म कार्तिक शुक्ल पक्ष पूर्णमासी चंद्रवार को कृतिका नक्षत्र में हुआ था । इनकी जन्म-जयन्ती अगहन सुदी अष्टमी को मनाये जाने का प्रचलन है । उनके पास आया और रात-दिन उनकी सेवा करने लगा । दत उनकी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने उसकी याचनापर उसे चार वर प्रदान किये — पहला वर था हजार हाथ हो जायँ, दूसरे वर से सारी पृथ्वी को अधर्म से बचाते हुए धर्मपूर्वक पृथ्वी का शासन करना । तीसरे वर से लड़ाई के मैदान में किसी से पराजित न होना तथा चौथे वर से भगवान् विष्णु के हाथों मृत्यु होना ।

कौन्तेय ! योगाभ्यास में लीन उन दत्तमुनि ने कार्तवीर्यार्जुन को अष्टसिद्धियों से समन्वित चक्रवर्ती-पद वाले राज्य को प्रदान किया । कार्तवीर्यार्जुन ने भी सप्तद्वीपा वसुमती को धर्मपूर्वक अपने अधीन कर लिया । यह सब उसके हजार बाहुओं का प्रभाव था । वह अपनी माया द्वारा यज्ञ के माध्यम से ध्वजावाला रथ उत्पन्न कर लेता था । उसके प्रभाव से सभी द्वीपों में दस हजार यज्ञ निरन्तर होते रहते थे । उन यज्ञ की वेदियों, यूप तथा मण्डप आदि सभी सोने के रहते थे । उनमें प्रचुर दक्षिणाएँ दी जाती थीं । विमान में बैठकर सभी देवता, गन्धर्य तथा अप्सराएँ पृथ्वी पर आकर यज्ञ की शोभा बढ़ाते रहते थे । नारद नाम का गन्धर्व उसके यज्ञ की गाथा इस प्रकार गाया करता था — ‘कार्तवीर्य के पराक्रम की बात सुनने से यह पता चलता है कि संसार का कोई भी राजा उसके समान यज्ञ, दान तथा तप नहीं कर सकता । सातों द्वीपों में केवल वहीं ढाल, तलवार तथा धनुष-बाणवाला है । जैसे बाज पक्षी को अन्य पक्षी इसे अपने समीप हीं समझते हैं, वैसे ही अन्य राजा लोग दूर से ही इससे भय खाते हैं । इसकी सम्पत्ति कभी नष्ट नहीं होती, इसके राज्य में न कहीं शोक दिखायी पड़ता है । न कोई क्लान्त ही । यह अपने प्रभाव से पृथ्वी पर धर्मपूर्वक प्रजाओं का पालन करता है ।’

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले — नराधिप ! कार्तवीर्य इस पृथ्वी पर पचास हजार वर्ष तक अखण्ड शासन करता रहा । वह अपने योगबल से पशुओं का पालक तथा खेतों को रक्षक भी था । समयानुसार मेघ बनकर वृष्टि भी करता था । धनुष की प्रत्यञ्चा के आघात से कठोर त्वचायुक्त अपनी सहस्रों भुजाओं द्वारा वह सूर्य के समान उद्भासित होता था । उसने अपनी हजार भुजाओं के बल से समुद्र को मथ डाला और नागलोक में कर्कोटक आदि नागों को जीतकर वहाँ भी अपनी नगरी बसा ली । उसकी भुजाओं द्वारा समुद्र के उद्वेलित होने से पातालवासी महान् असुर भी निश्चेष्ट हो जाते थे । बड़े-बड़े नाग उसके पराक्रम को देखकर सिर नीचा कर लेते थे । सभी धनुर्घरों को उसने जीत लिया । अपने पराक्रम से रावण को भी उसने अपनी माहिष्मती नगरी में लाकर बंदी बना रखा था, जिसे पुलस्त्य ऋषि ने छुड़वाया । एक बार भूखे-प्यासे चित्रभानु (अग्निदेव) को राजा कार्तवीर्यार्जुन ने समस्त सप्तद्वीपा वसुन्धरा को दान में दे दिया । इस प्रकार वह कार्तवीर्यार्जुन बड़ा पराक्रमी एवं गुणवान् राजा हुआ था ।

योगाचार्य भगवान् अनघ (दत्तात्रेय) से वर प्राप्तकर कार्तवीर्यार्जुन ने पृथ्वीलोक में इस अनघाष्टमी-व्रत को प्रवर्तित किया । अघ को पाप कहा जाता है यह तीन प्रकार का होता हैं — कायिक, वाचिक और मानसिक । यह अनघाष्टमी विविध पापों को नष्ट करनेवाली है, इसलिये इसे अनघा कहते हैं । इस व्रत के प्रभाव से अष्टविध ऐश्वर्य (अणिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, लघिमा, ईशित्व, वशित्व तथा सर्वकामावसायिता) प्राप्त कर लेना मानो विनोद ही है ।

महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — पुण्डरीकाक्ष ! राजा कार्तवीर्यार्जुन के द्वारा प्रवर्तित यह अनघाष्टमी-ब्रत किन मन्त्रों के द्वारा, कब और कैसे किया जाता है ? इसे आप बतलाने की कृपा करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — राजन् ! इस व्रत की विधि इस प्रकार हैं — मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमीको कुशों से स्त्री-पुरुष की प्रतिमा बनाकर भूमि पर स्थापित करनी चाहिये । उनमें एक में सौम्य एवं शान्तिस्वरूपयुक्त अनघ (दत्तात्रेय) की तथा दूसरे में अनघा (लक्ष्मी) की भावना करनी चाहिये और ऋग्वेद के विष्णुसूक्त* से पूजा करनी चाहिये। पूजा में फल, कन्द, श्रृंगार की सामग्री, बेर, विविध धान्य,विविध पुष्प का उपयोग करना चाहिये । दीपक जलाना चाहिये तथा ब्राह्मणों एवं बन्धु-बान्धवों को भोजन कराना चाहिये । इस प्रकार पूजा करनेवाला सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है, लक्ष्मी प्राप्त करता है तथा भगवान् विष्णु उसपर प्रसन्न हो जाते हैं ।

(अध्याय ५८)
*अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः ॥
इदं विष्णुर्वि चक्रमे ऋधा नि दधे पदम् । समूह्ळमस्य- पांसुरे ॥
त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ।
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥
तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत् परमं पदम् ॥ (ऋग्वेद १ । २२ । १६-२१)

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