ब्रह्मर्षि श्रीश्री सत्यदेव — एक विलक्षण विभूति

इस धरती पर समय-समय पर अनेक ऐसी विभूतियाँ प्रकट हुई हैं, जिन्होंने मानवमात्र के कल्याण एवं अभ्युदयहेतु ही मनुष्य-शरीर धारण किया । ऐसी ही एक उच्चकोटि की आध्यात्मिक विभूति थे, ब्रह्मर्षि श्रीश्री सत्यदेव ।

बंगाल के बारीशाल (इस समय बांग्लादेश में) नामक स्थान में शाक्त परम्परा के एक महान् साधक भैरवचन्द्र भट्टाचार्य थे । स्थानीय भैरव-मन्दिर का एकमुण्डी आसन उनका साधना-स्थल था । उनके कोई पुत्र न होने के कारण उन्होंने अपने दौहित्र कैलाशचन्द्र को अपना उत्तराधिकारी बनाया था । कैलाशचन्द्र की पत्नी शारदा सुन्दरी को जब विवाह होने के कई वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी कोई संतान नहीं हुई तो इस दम्पती ने अपने ग्राम के तारापीठ में माँ से संतान-प्राप्ति हेतु प्रार्थना की । कहा जाता है कि देवी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि स्वयं अपने अंशरूप से इनकी प्रथम संतान के रूप में जन्म लेंगी । इसके फलस्वरूप सन् १८८३ ई० में बारीशाल के नवग्राम में ब्रह्मर्षि सत्येदव का अवतरण इस धरती पर हुआ । शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा-सी दिव्य कान्तिवाले, इस शिशु का नामकरण तदनुरूप शरदचन्द्र किया गया ।

बालक शरद को बहुधा अपने ग्राम की कीर्तन मण्डली के हरिनाम-संकीर्तन में श्रीकृष्ण के रूप में सजा दिया जाता था । कुछ समय पश्चात् शरद ने अपने बाल सखाओं को लेकर अपनी कीर्तन-मण्डली बना ली । उसी अवस्था से ध्यान में भी मन लगने लगा था । प्रारम्भ से ही मेधावी शरद की संस्कृत में विशेष रुचि थी; क्योंकि धार्मिक एवं आध्यात्मिक साहित्य अधिकांशतः संस्कृत भाषा में ही थे । थोड़े ही समय में वे संस्कृत में न केवल विभिन्न विषयों पर धारा-प्रवाह बोलने लगे, अपितु मौलिक रचनाएँ भी करने लगे । विद्यार्जन के साथ ही साधना और तपस्या का क्रम भी चल रहा था ।

पारिवारिक उत्तरदायित्व के निर्वाह हेतु वे एक विद्यालय में संस्कृत शिक्षक बनकर धनोपार्जन भी करने लगे । पुरोहिती उनका वंशानुगत कार्य था । स्वाभाविक रूप से इसे भी अपनाया । किंतु जीविकोपार्जन के लिये यज्ञ-पूजन आदि करते समय उन्हें लगता था कि क्या यथार्थ रूप से अभी इन क्रियाओं के मर्म को समझ भी सके हैं ? क्या वे इस प्रकार की पूजा सम्पन्न करके अपने यजमानों का यथार्थ कल्याण कर पायँगे ?

इस सबके बीच ही जगदम्बा से जीवन की सार्थकता हेतु निरन्तर प्रार्थना करते रहते और जगदम्बा का तो जैसे अपनी इस दुलारी संतान के प्रति अधिक ही स्नेह था । इसीलिये कठिन परीक्षाओं के क्रम की अगली कड़ी के रूप में शरदचन्द्र का विवाह निस्तारिणी देवी से करा दिया गया । वे सांसारिकता से जितना दूर होना चाहते, उतने ही बँधते जा रहे थे । उन्हीं दिनों उन्हें एक स्वप्न आया । उन्होंने देखा — वे पूरी तरह बन्धनों में कसे हुए, एक खूँटे से बँधे थे । सामने जगदम्बा खड़ी मुसकराती हुई कह रही थीं — ‘देखा ! कैसे कसकर बाँध दिया है ।’ शरदचन्द्र ने सोचा कि इन बन्धनों में तो वे स्वयं ही बँधे हैं, अतः स्वयं ही इन्हें खोल भी लेंगे । ऐसा ही उत्तर उन्होंने माँ को दिया । वे और अधिक मुसकराती हुई बोलीं — ‘अच्छा ! ऐसा है तो खोलो । शरदचन्द्र ने उन बन्धनों को खोलने का जितना प्रयास किया, वे उनमें उतना ही अधिक कसते गये । घबराहट में उनकी श्वास अवरुद्ध होने लगी । वे समझ गये कि जिसने ये बन्धन दिये हैं, वे जगदम्बा ही इन्हें खोलेंगी ।

सांसारिकता के बीच भी तपस्या और साधना का क्रम टूट नहीं पाया । कभी नीमतल्ला श्मशान में तो कभी घर के निकट स्थित कालीमंदिर में ध्यानमग्न रहा करते । उन्हें लगने लगा था कि अब और अधिक समय जगदम्बा से दूर नहीं रह पायेंगे । अन्ततः एक रात सब कुछ त्याग देने का निश्चय कर लिया । जगदम्बा की खोज में घर से निकल, पागलों-सी अवस्था में श्मशान की ओर चल दिये । उस जनशून्य स्थान में उन्होंने किसी स्त्री को अपनी ओर आते देखा । निकट आने पर जब वह उनके चरणों में झुकी तो उनका ध्यान भंग हुआ । देखा, लंबे केश, गैरिक वस्त्रावृत, त्रिशूलधारिणी, एक ज्योतिर्मयी योगिनी ! उन्होंने उस भैरवी के चरणों में मातृ-भाव से नमन किया । रात्रि की नीरवता को भंग करता योगिनी का स्वर उनके कानों में पड़ा — “बाबा ! तुम तो स्वयं ज्ञानी हो । तुम्हारे अपने भीतर ही तो सब कुछ है । संसार त्यागकर भटकने से क्या मिलेगा ?’ शरदचन्द्र घर लौट आये । घबरायी हुई माँ के यह पूछने पर कि इतनी रात में कहाँ चले गये थे । उन्होंने उत्तर दिया — “माँ को छोड़कर माँ को ढूँढ़ने गया था । इसलिये माँ ने मुझे माँ के पास वापस भेज दिया । इसके पश्चात् वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए ही अपनी साधना में लग गये ।

सन् १९११ ई० में वे कलकत्ता आ गये थे । पं० सीतानाथ ‘सिद्धान्त वागीश’ से न्यायशास्त्र पढ़ा । ब्राह्म-समाज की सभाएँ भी सुनते थे । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के भाषण भी सुनते थे । गृहस्थाश्रम के निर्वाह हेतु अध्यापन का कार्य करने लगे । प्रसिद्ध विद्यालय श्रीकृष्ण पाठशाला में पहले तो पण्डित तत्पश्चात् प्रधान पण्डित के पद पर कार्य करते रहे ।

स्वाध्याय के साथ ही वे श्रीमद्भगवद्गीता, भागवत तथा अन्यान्य धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों का पाठ एवं उनसे सम्बन्धित चर्चाएँ करने लगे । इनके माध्यम से उन्होंने उस समय के समाज में धार्मिक, आध्यात्मिक क्षेत्र में जो विसंगतियाँ परिलक्षित हो रही थीं, उन्हें दूर करने का यथासम्भव प्रयास किया । अपने वचनों तथा कर्मों से उन्होंने ज्ञान, भक्ति तथा कर्मकाण्ड — इन तीनों को जनजीवन में यथार्थ रूप से प्रतिष्ठित किया । इन तीनों की ही श्रेष्ठता तथा पारस्परिक सम्बन्ध से समाज को अवगत कराया । जो भी इनके सारगर्भित वचनों को सुनता, इनके सम्पर्क में आता, वह इनका भक्त हो जाता ।

सन् १९१८ ई० से इन्होंने शारदीय दुर्गापूजा भी सार्वजनिक रूप से आयोजित करना प्रारम्भ कर दी । इस पूजा में सभी वर्गों के स्त्री-पुरुष समानरूप से सम्मिलित होते थे । बड़ानगर की पूजा में ब्राह्मणवर्ग द्वारा प्रारम्भ में इसका विरोध किया गया, किंतु अन्ततः ब्रह्मर्षि के ज्ञान एवं सद्व्यवहार से प्रभावित होकर यह वर्ग अपना विरोध त्याग स्वयं उनका अनुयायी हो गया । इन पूजाओं में देवी की मृण्मयी प्रतिमा में चिन्मयरूप की अनुभूति भक्तों को होती थी । विभिन्न पूजाओं में होनेवाली पशु-बलि की प्रथा का उन्होंने विरोध किया तथा उसे बन्द किया ।

देहात्मबुद्धि जीव के लिये प्रारम्भ में ही निराकार ब्रह्म की साधना कठिन एवं दुष्कर है — ऐसा समझते हुए, वे सामान्य भक्तों हेतु सगुणोपासना स्वीकार करते थे । अपने जीवन में जिस आध्यात्मिक स्तर पर वे पहुँच चुके थे, वहाँ आवश्यक न होते हुए भी अपने शिष्यगण तथा जनसामान्य की शिक्षा हेतु उन्होंने देवी-देवताओं की पूजा एवं पितृ-कर्म आदि का त्याग नहीं किया था । प्रारम्भिक साधकों हेतु वे मूर्ति-पूजा एवं भेद-मूलक उपासना को ही उनके सम्मुख प्रस्तुत करते थे । शाक्त, वैष्णव एवं शैव आदि विभिन्न मतावलम्बियों में जो परस्पर विरोधी या स्वमत को ही सर्वश्रेष्ठ मानने की विचारधारा समाज में प्रवाहित हो रही थी, उसे देखते हुए उन्होंने सभी मतों को श्रेष्ठ दिखाते हुए तथा सभी में एक ही परम सत्ता के विविध रूपों में उद्भासित होने के विश्वास को दृढ़तापूर्वक स्थापित करते हुए, स्वयं विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा विविध पर्वों पर आयोजित करना प्रारम्भ किया । शारदीय दुर्गापूजा, कृष्णजन्माष्टमी, रास एवं दोलयात्रा, शिवरात्रि, सरस्वतीपूजा, जगद्धात्रीपूजा, स्वास्थ्य एवं आरोग्य प्रदान करनेवाले सूर्यदेव की पूजा आदि ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं । कदाचित् यही कारण था कि वैष्णवों को वे परम वैष्णव लगते थे तो शाक्त मतावलम्बियों की दृष्टि में वे परम शाक्त साधक थे । अनेक जिज्ञासु भक्तगण अपनी जिज्ञासाओं को लेकर उनके पास आते थे तथा समाधान प्राप्तकर सन्तुष्ट होते थे ।

उन्होंने शंकराचार्य — जैसे अनेक सन्तों की परम्परा का अनुसरण करते हुए भारत के विभिन्न तीर्थस्थलों का भ्रमण किया । वे जहाँ भी अपने भक्तों एवं शिष्योंसहित जाते थे, वहाँ स्थित प्रमुख धार्मिक आश्रमों आदि में अवश्य जाते तथा वहाँ के प्रमुख आचार्यों, सन्तों आदि से धार्मिक चर्चाएँ करते । इसी क्रम में वे काशी, प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन, कुरुक्षेत्र, अमृतसर, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि नगरों में गये । दक्षिण भारत में उन्होंने महर्षि रमण से भेंट की तथा उनके साथ गम्भीर तत्त्वालोचन हुआ ।

वे एक बार श्रीजगन्नाथजी के दर्शन हेतु पुरीधाम गये । जाते समय उन्हें विदा करने आये भक्तों ने उनको अनेक पुष्प तथा मालाएँ आदि भेंट की थीं । उनमें से एक लाल गुलाबों का स्तवक ब्रह्मर्षि को बहुत सुन्दर लगा । उन्होंने निश्चय किया कि इसे जगन्नाथजी को अर्पित करेंगे । किंतु वहाँ उन्हें उन फूलों को लेकर मंदिर में प्रवेश की अनुमति ही नहीं मिली । वहाँ केवल पुजारी ही मंदिर के भीतर जाता था तथा भक्तगण बाहर से ही दर्शन करते थे । वैसे भी उन गुलाबों को पूजा में चढ़ाने की अनुमति भी नहीं थी । अत: दर्शनार्थ प्रवेश हेतु भी उन फूलों को बाहर ही छोड़ देने को कहा गया । उन्होंने सोचा कि वे इतनी दूर से ये फूल जगन्नाथजी को अर्पण करने का संकल्प मन में लेकर आये हैं, तो क्या उनका संकल्प मिथ्या होगा ? वे मंदिर के द्वार के निकट ही आसन लगाकर ध्यानावस्थित हो गये । नियत समय पर जब पुजारी पूजा के लिये आये तो मंदिर के द्वार के निकट एक संत के दिव्य दर्शन पाकर वहीं ठिठक गये । वे उन्हें अपने साथ आदरसहित मंदिर के भीतर ले गये । उस दिन जगन्नाथजी की पूजा में वे लाल गुलाब भी अर्पित हुए । इसके पश्चात् जब तक ब्रह्मर्षि पुरी में रहे, पुजारीजी प्रतिदिन उनका सत्संग करते रहे तथा पूजा के यथार्थ स्वरूप को उनसे समझते रहे ।

एक बार काशी-प्रवास के समय वे विश्वनाथजी के मंदिर में गये । किंतु वहाँ स्थित विग्रह में विश्वनाथजी का साक्षात्कार न हो पाने के कारण वैसे ही लौट आये । कुछ दिनों पश्चात् जब वे अपने काशी के निवास स्थान पर साधना में मग्न थे तो एकाएक उठकर बिना किसी से कुछ कहे सीधे विश्वनाथजी के मंदिर जा पहुँचे । विश्वनाथजी का साक्षात्कार पा वे अभिभूत हो उठे । मंदिर स्थित विग्रह से वे भाव-विभोर हो लिपट गये । वहाँ उपस्थित पुजारी एवं भक्तगण भक्त और भगवान् के इस अभूतपूर्व मिलन के दृश्य को मन्त्रमुग्ध हो देख रहे थे । ब्रह्मर्षि का भावप्रवण संस्कृत का पाठ सुनते हुए तथा उनके भक्तिभाव में आत्मविस्मृत स्वरूप को देखते हुए किसी में यह साहस नहीं था कि शिवविग्रह को उनके गाढ़ालिंगन से मुक्त कराने की चेष्टा करे !

ब्रह्मर्षि का आध्यात्मिक चिन्तन मात्र वैयक्तिक स्तर पर ही नहीं था । वे मानवमात्र के समग्र उत्थान हेतु चिन्तनशील एवं प्रयासरत थे । उनके समय में भारत अंग्रेजों के अधीन था । ब्रह्मर्षि इस दंश को गम्भीरता से अनुभव कर रहे थे तथा इसके परिणामों से भी अवगत थे । इससे मुक्ति पाने हेतु उन्होंने उस समय कहा था — “पराधीनता स्वीकार कर हम स्वाधीन विचारधारा, उच्च चिन्तन, सत्य व्यवहार पूरी तरह से खो बैठे हैं ।” देशवासियों को सत्याश्रयी, सत्यधर्मी, सत्यावलम्बी और सत्यनिष्ठ बनाने हेतु देश को स्वाधीन होना होगा ।’ अपनी इस विचारधारा को कार्यरूप में परिणत करने हेतु उन्होंने ‘सत्यालोक’, ‘देशमातृकापूजन’ आदि पुस्तकों की रचना की । वे स्वयं ‘देशमातृका-पूजन’ का आयोजन भी करते थे । इसमें भारतवर्ष के मानचित्र की पूजा विधि-विधान से की जाती थी । प्राणप्रतिष्ठा के पश्चात् प्रणाम किया जाता था —

यद् वक्षसि वयं जातः यदङ्के नित्य संस्थिताः ।
पुनर्यत्र लयं जातास्तं देशं प्रणमाम्यहम् ॥

सन् १९२५ ई० में देशबंधु चितरंजनदास के अनुरोध पर उनके आवास पर भी अक्षय तृतीया को ऐसा ही आयोजन किया गया था । जनता द्वारा अन्न की बर्बादी को देखकर उन्होंने अन्न का जीवन में क्या महत्त्व है, इसे समझाने के लिये अन्नभोग मंत्र की रचना की — “ॐ अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्, अन्नात् हि एवं खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि जीवन्ति” इत्यादि । अपने बड़ानगर आश्रम में रहते हुए उन्होंने इसका नियमित प्रयोग सब आश्रमवासियों से प्रारम्भ कराया ।

धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में उनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान है, उनका साहित्य । ‘सत्यप्रतिष्ठा’, ‘प्राण प्रतिष्ठा’, ‘सत्यालोक’, ‘देशात्मबोध’, ‘देशमातृकापूजन’, ‘सत्यदर्शन’, ‘पूजातत्त्व’, ‘शोक-शान्ति’, “मातृदर्शन’ प्रभृति उनकी रचनाएँ आध्यात्मिक जगत् में अत्यन्त समादृत हुईं । इनके अतिरिक्त ‘ईशोपनिषद् की व्याख्या’, ‘पातञ्जल-दर्शन’ की सरल आध्यात्मिक व्याख्या, गीता के कुछ अध्यायों की व्याख्या भी उन्होंने प्रस्तुत की । मूलतः बँगला भाषा एवं संस्कृत में रचित इन रचनाओं के हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद देश के विभिन्न भागों में पहुँचे । जिसने भी पढ़ा, वह रचनाकार से मिलने को व्याकुल हो उठा ।

ढाका के एक बड़े व्यवसायी के पुत्र क्षितीश घोष बचपन से इंग्लैण्ड में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे । पढ़ाई पूरी कर वे शीघ्र ही इंजीनियर बननेवाले थे । इसी बीच एक दिन ईश्वरीय प्रेरणा से उनके मन में सत्यानुभूति की एक झलक आयी । इसकी पूर्णता की खोज में वे अपने उस जीवन को तिलांजलि देकर हिमालय पहुँच गये । अनेक साधु, संन्यासियों के सत्संग में वर्षों बिताकर भी कोई मार्ग न खोज सके । दैवयोग से ब्रह्मर्षि सत्यदेवरचित ‘सत्यप्रतिष्ठा का अंग्रेजी अनुवाद उन्हें प्राप्त हुआ । इसे पढ़कर उन्हें लगा कि वर्षों से जो खोज रहे थे, वह इस पुस्तक ने सामने ला दिया । वे जीवन की अन्तिम श्वास तक ब्रह्मर्षि के चरणों में रहे ।

यद्यपि ब्रह्मर्षि की सभी रचनाएँ उत्कृष्ट हैं, फिर भी जिस कार्यविशेष के लिये उनका अवतरण हुआ था, वह था उनके ग्रंथ ‘साधन-समर’ की रचना । ‘साधन-समर’ श्रीदुर्गासप्तशती की अनुपम आध्यात्मिक व्याख्या है । सप्तशती-जैसे विलक्षण ग्रन्थ की अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं, किंतु इस टीका में ज्ञान-भक्ति-कर्म की जैसी त्रिवेणी प्रवाहित हुई है, वैसा शायद अन्यत्र उपलब्ध न हो । इस ग्रन्थ की रचना सन् १९२० ई० में बँगला भाषा में हुई तथा हिन्दी अनुवाद सन् १९३० ई० में प्रकाशित हुआ । ब्रह्मर्षि इस ग्रन्थ को अपनी रचना नहीं मानते थे, उनका मानना था कि जगदम्बा स्वयं इसकी रचयिता थीं । वस्तुतः कुछ विशिष्ट ध्यानावस्थित क्षणों में ब्रह्मर्षि के मुख से सप्तशती के सम्बन्ध में जो कुछ नि:सृत होता था, उनके शिष्यगण लिख लेते थे । बाद में अवस्था सामान्य होने पर ब्रह्मर्षि उस लेखन को देखते । ऐसे ही लेखों को एकत्र करके माँ के आदेशानुसार उन्होंने इसे सर्वसाधारण के लिये ग्रन्थाकार में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ के प्रकाशन ने तत्कालीन धार्मिक एवं आध्यात्मिक जगत् में हलचल मचा दी । अनेक पत्रपत्रिकाओं एवं संस्थाओं ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । किसी विद्वान् ने इसे अमूल्य सम्पदा बताते हुए प्रत्येक हिन्दू घर में रखे जाने एवं पढ़े जाने की बात की तो किसी ने इस ग्रन्थ के प्रत्येक अक्षर को स्वर्ण में मुद्रित कराने योग्य बताया । जो भी हो, आज अधिकांश लोग इससे परिचित नहीं हैं, हिन्दी में तो यह लगभग दुर्लभ ही है ।

यद्यपि ब्रह्मर्षि सत्यदेव ने अपनी कुल-परम्परावाले गुरु से विधिवत् दीक्षा ली थी, किंतु हावड़ा के आचार्य विजय कृष्णदेव शर्मा रचित गीता के कुछ अध्यायों की यौगिक व्याख्या पढ़ने तथा शर्माजी से सत्संग होने के पश्चात् उन्होंने उन्हें गुरु स्वीकार किया था । वैसे शर्माजी भी ब्रह्मर्षि से अत्यन्त प्रभावित थे तथा उन्हें आदरपूर्वक’ शरद पण्डित’ कहते थे । गुरु-तत्त्व को भली-भाँति समझने तथा समझानेवाले ब्रह्मर्षि ने अपने गुरु शर्माजी के प्रति अपने व्यवहार एवं आचरण को कभी भी शास्त्रोक्त आदर्शो से च्युत नहीं होने दिया ।

शिष्यों और भक्तों के अत्यन्त आग्रह पर इन्होंने अपने आश्रम को ‘साधन-समर आश्रम’ कहा जाना स्वीकार कर लिया था । आध्यात्मिक क्षेत्र में आचार्य शरदचन्द्र अथवा शरद पण्डित के नाम से समादृत यह विभूति अपने सत्याचरण एवं सत्यप्रतिष्ठा-स्वरूप जनमानस द्वारा ‘ब्रह्मर्षि सत्यदेव’ नाम से जानी गयी । बंगाल के एक साधारण छोटे से गाँव में जन्म लेकर उन्होंने महान् तपस्वी बनकर आत्मज्ञान प्राप्त किया और जीवमात्र के कल्याण में जीवन व्यतीत कर दिया । कठोर परिश्रम के फलस्वरूप अन्तिम दिनों में उनका स्वास्थ्य क्षीण हो चला था । सन् १९३२ में मात्र ४९ वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपनी भौतिक लीला को विश्राम दिया । अन्तिम समय में अपने भक्तों के बीच, उन्हें आशीर्वाद देते हुए तथा ‘ब्रह्मानन्द स्त्रोत’ का पाठ सुनते हुए, उन्होंने यह भी कहा ‘मैंने देने के लिये कुछ भी नहीं रखा है । सभी कुछ दे दिया है ।’ अध्यात्म के क्षेत्र में उनके कार्य को देखते हुए इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं लगती ।

 

 

 

 

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.