॥ दुर्गाभुवनवर्णनम् ॥

॥ श्री भैरव उवाच ॥

तंत्रादौ देवि वक्ष्येऽहं दुर्गाभुवनमद्भुतम् ।
जयं नाम महादिव्यं बहुविस्तारविस्तृतम् ।
नानारत्न समाकीर्णं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ १७ ॥
इन्द्रगोपकवर्णं च चन्द्रकोटिमनोहरम् ।
अप्रमेयमसंख्यैयमगम्यं सर्ववादिनाम् ॥ १८ ॥

इदं दिव्यं जयं नाम भुवनं परमेश्वरि ।
तत्रैव वसते दुर्गा नवरूपात्मिका परा ॥ १९ ॥
या देवदेवी वरदा सर्वलोकैकसुन्दरी ।
या दुर्गेति स्मृता लोके ब्रह्माण्डोदरवर्तिनी ॥ २० ॥
विष्णुना तपसा पूर्वमाराध्य परमेश्वरी ।
महिषस्यासुरेन्द्रस्य वधार्थायाव तारिता ॥ २१ ॥
योगमाया महामाया सर्वदा परमेश्वरी ।
तामेवाहर्निशं ध्याये श्रीविद्यां परमां जपे ॥ २२ ॥
तामद्याहं प्रवक्ष्यामि विद्याचरणदायिनीम् ।
यां श्रुत्वा स शिवो जातः पञ्चनादात्मकः शिवः ॥ २३ ॥
यदाऽभूद्धरिहीना सा दुर्गा निष्कलरूपिणी ।
साक्षाद्भुवनरूपाऽपि महज्ज्योतिः स्वरूपिणी ॥ २४ ॥
तदा शवहकाले तु ज्योतीरूपे महीश्वरि ।
शिवः प्रभामण्डलतो निर्गतोऽचेतनो विभुः ॥ २५ ॥
अशृणोन्नादमाधारं जगतां बीजमुत्तमम् ।
अवमं सारमायां त्वं सृष्टोऽग्रे मनुनायकः ॥ २६ ॥
इति श्रुत्वा परानादं तारमित्युपदीर्यते ।
शिवो जजाप सहसा बीजं त्रिजगतां शिवे ॥ २७ ॥
तेन मायेति शब्दं स शुश्राव गगना त्ततः ।
दमं भज महेशान सदानन्दालयं परम् ॥ २८ ॥
बिन्दुनादमयो देवः शिवोऽभूत्परमेश्वरः ।
ततो नादं स शुश्राव दृष्टिकर्ण विवर्जितम् ॥ २९ ॥
दुर्गा भजेति स शिवः पञ्चनादात्मकोऽभवत् ।
ततो जप्त्वा पराविद्यामसृजज्जगदम्बिके ॥ ३० ॥
आदौ वायुं शिवः सृष्ट्वा ततः सृष्टिं यथेच्छया ।
इच्छामानं शिवे विश्वं विश्वेश्वरि चराचरम् ॥ ३१ ॥
ससर्ज लवमानं स शितिकण्ठः शिवः शिवे ।
इतीमां गुप्तविद्यां तु लब्ध्वा गुरुपदार्चनात् ॥ ३२ ॥
किं किं न साधयेल्लोके साधको मन्त्रसाधकः ।
वस्त्रं वहिं च कामं च धनं वृत्तं च साधकः ॥ ३३ ।।
वशीकुर्याधथाबुद्ध्या येन तुर्याकुलो भवेत् ।
श्रीचक्रमिदमाधारं देव्या विभवकारणम् ॥ ३४ ॥
गुह्यं सर्वस्वम्बायाः पूज्यं साधकसत्तमम् ।
चक्रं लिखेन्महादेवि पूज्यमब्जार्कयोर्दलैः ॥ ३५ ॥
येन देवी महामाया श्रीदुर्गाशु प्रसीदति ।
चक्रेशं पूजयेद्यस्तु नीलाभां दही द्युतिम् ॥ ३६ ॥
वहीन्दु सूर्याम्बुरजं मण्डलाकारमर्चयेत् ।
लसन्मुकुटरोचिष्णुः स भवेत्साधकोत्तमः ॥ ३७ ॥
तस्य शङ्खनिभा कीर्तिभ्रंमते भुवनत्रये ।
ससुरासुरगन्धर्वं वशं याति महेश्वरि ॥ ३८ ॥
शरासवरसानन्दमयो भूत्वा जपेन्मनुम् ।
खेटकास्तस्य तुष्यन्ति साधकस्याङ्गपूजनात् ॥ ३९ ॥
तस्य रोगा विनश्यन्ति सर्वेशूलादयोऽचिरात् ।
तर्जनीं तव वक्ष्यामि रिपवो यान्ति विद्रुताः ॥ ४० ॥
तस्य गेहं धनं गावो महिषा विष्टरं गजाः ।
दुर्गा रलवती भूमिस्तस्य पीठं मनोहरम् ॥ ४१ ॥
साधकस्य भवेदेवं सम्पत्तिर्बहुधार्चनात् ।
एवं ध्यायेन्महादेवी दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम् ॥ ४२ ॥
ध्यानेनानेन देवेन्द्रो भविष्यति हि साधकः ।
इतीदं देवि तत्त्वं ते कथिं परमादभतम ॥ ४३ ॥
अवक्तव्यमदातव्यं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ४४ ॥

हे परमेश्वरि ! जय नामक महादिव्य, बहुत लम्बा-चौड़ा, नाना रनों से सुसज्जित, करोड़ों सूर्यों के समान चमकने वाला, वीरबहुटी के रङ्ग का करोड़ों चन्द्रमा के समान मनोहर, अनुपम, अगण्य और सभी मतवादियों के लिये अगम्य दिव्य जय नामक भुवन है ।
वहीं पर दुर्गाजी निवास करती हैं, जो देवों की देवी, सारे संसार में एकमात्र सुन्दरी और संसार में दुर्गा नाम से जानी जाती हैं । वह सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं | महिषासुर – वध के लिये विष्णु भगवान् पहले तपस्या से परमेश्वरी दुर्गा की आराधना करके उन्हें भूलोक में लाये थे । वह सर्वदा योगमाया, महामाया तथा परमेश्वरी हैं । मैं रात-दिन उन्हीं का ध्यान करता हूँ और श्रीविद्या का जप करता हूँ । मैं उन विद्याचरण देने वाली के सम्बन्ध में तुम्हें बताऊँगा जिसे सुनकर ही शिव पञ्चनादात्मक शिव बन गये । जब वह शत्रु से हीन शुद्ध दुर्गा निष्कलरूपिणी रहती हैं तब वह साक्षाभुवनरूपा होने पर भी ज्योतिः स्वरूपिणी कहलाती हैं ।
हे महेश्वरि ! तब ज्योतिरूप शवह (शबल?) काल में दुर्गाजी के प्रभामण्डल से चेतन विभु शिव प्रकट हुए । उन्होंने संसार के उत्तम आधारभूत बीजमन्त्र को सुना । तुम्हारी माया के साररूप मन्त्रनायक (ह्रीं) की सर्वप्रथम सृष्टि हुई । उस शक्ति प्रणवरूपी परानाद के उत्पन्न होने पर उसे सुनकर, हे शिवे ! तब सहसा शिव ने तीनों लोकों के उस बीज का जप किया । शिव को आकाश से यह शब्द सुनाई पड़ा कि ‘हे महेशान ! इस माया (ह्रीं) शब्द का जप करो जो सदैव आनन्द का परमधाम है ।’ बिन्दुनादमय वह शिव तब परमेश्वर हो गये । तब ‘दुर्गा का भजन करो’ इस दृष्टि -कर्ण-विवर्जितनाद को सुनकर शिव पञ्चनादात्मक हो गये ।
इसके बाद जगदम्बिका ने परा विद्या का जप करके आदि में वायु की सृष्टि की । तदनन्तर शिव ने यथेच्छया सृष्टि को बनाया । हे महेश्वरि ! शिव की इच्छामात्र के रूप में यह चराचर जगत् है । इस विश्व को शिव ने क्षणमात्र में बना दिया । इस प्रकार मुझे तथा इस गुप्त विद्या को गुरु चरणों की सेवा से प्राप्त करके साधक मनुष्य क्या-क्या नहीं सिद्ध कर सकता । वस्त्र, अग्नि, काम, धन, वृत्त आदि सबको साधक अपनी बुद्धि के अनुसार वश में कर लेता है जिससे कि अन्त में वह ईश्वर का सायुज्य प्राप्त करता है ।
यह श्रीचक्र देवी का आधार है और यह मनुष्यों के लिये समृद्धि का कारण है । यह अम्बा का सर्वस्व एवं गोप्य उत्तम साधन है । हे महादेवि ! श्रीचक्र लिख करके कमल और सफेद मदार के पत्तों से उसकी पूजा करनी चाहिये जिससे महामाया दुगदिवी शीध्र प्रसन्न होती हैं । जो मनुष्य चक्रेश (श्रीचक्र) नीलाभायुक्त प्रचण्ड तेजोमयी ज्योत्सना, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य तथा कमल के समान सुशोभित मण्डलाकार चक्रेश (श्रीचक्र) की पूजा करता है वह चमकदार मुकुट को धारण किये व्यक्ति के समान समस्त साधकों में श्रेष्ठ साधक प्रकाशित होता है । शङ्ख के समान उसकी उज्जवल कीर्ति तीनों भुवनों में फैलती है । हे महेश्वरि ! मनुष्य, देवता, राक्षस तथा गन्धर्व सहित सभी उसके वश में हो जाते हैं ।
शर के उत्तम आसन पर आनन्दपूर्वक बैठकर मन्त्र का जप करना चाहिये । साधक द्वारा अङ्गों की पूजा से ग्रह सन्तुष्ट हो जाते हैं। शीघ्र ही उसके रोग और शूलादि नष्ट हो जाते हैं। तुम्हें तर्जनी बताऊँगा जिससे शत्रु पलायित हो जाते हैं। उस साधक के पास घर, धन, गायें, भैंसें, विस्तरे, हाथियाँ, दुर्गम रनों से भरी भूमि, मनमोहक पीठ आदि हो जाते हैं। बहुत दिनों तक पूजा करने से इस प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार दुःखों को विनष्ट करनेवाली महादेवी दुर्गा का ध्यान करना चाहिये । हे देवि ! इस ध्यान से साधक देवताओं का स्वामी इन्द्र बन जाता है । यह अद्भुत तत्व मैंने तुम्हें बतलाया है । इसे किसी को नहीं बताना चाहिये तथा अपनी योनि के समान इसे गुप्त रखना चाहिये ।
॥ इति दुर्गाभुवन वर्णन समाप्त ॥ (देवीरहस्यतन्त्रे, पटल ५१)

 

 

 

 

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