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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ९९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ९९
पौर्णमासी-व्रत-विधान एवं अमावास्या में श्राद्ध-तर्पण की महिमा तथा बुध के जन्म की कथा

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! पूर्णिमा तिथि चन्द्रमा को अत्यन्त पवित्र है क्योंकि पूर्णमासी तिथि वहीं होती है जिसमें मास की पूर्ति हो और इसी पूर्णमासी के दिन चन्द्रमा का देवों के साथ जयसूचक संग्राम हुआ था । जो समस्त प्राणियों के लिए भयावह था । पहले समय में तारा में प्रसक्त होने के नाते चन्द्रमा से और उसके पति बृहस्पति से भी यहाँ घोर संग्राम हुआ था ।
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युधिष्ठिर ने कहा — चक्र एवं गदाधारी भगवन् ! तारा किसकी पुत्री है और देवों समेत अपने शत्रु हन्ता बृहस्पति ने कुद्ध होकर चन्द्रमा के साथ घोर युद्ध क्यों किया ।

श्रीकृष्ण बोले — प्रजापति (ब्रह्मा) की पुत्री जो वृत्रासुर की कनिष्ठा भगिनी है ‘तारा’ नाम से विख्यात है । उस त्रैलोक्य सुन्दरी को उन्होंने देवों के आचार्य बृहस्पति को सविधान अर्पित किया । यद्यपि उस सुन्दरी तारा के रूपलावण्य द्वारा वे दोनों अत्यन्त मदन व्यथित थे तथापि वह अन्य स्त्रियों की भाँति बृहस्पति की सेवा करती थी । उस विशाल लोचना को, जो सौन्दर्य के निधान एवं मुग्धहास करने वाली थी, देखते ही चन्द्रमा काम पीडित होने लगे ।

उन्होंने संकेत करते हुए उससे मधुर शब्दों में कहा — तारा! आओ, आओ! विलम्ब न करो । इंगित आकार समझने वाली उस कुशल तारा ने चन्द्रमा की उस चेष्टा को देखकर शुद्ध भावना से पूर्ण एवं मधुर अक्षरों में कहा — वीर ! आप अंगिरा मुनि के पुत्र, सौम्य एवं सोमराट् हैं, और मैं भी उन्हीं अंगिरा मुनि की ही स्रुषा हूँ, अतः आप को मेरे साथ ऐसी चेष्टा करना उचित नहीं है । सौम्य होने के नाते ही आप की महान् एवं योग की सिद्धि हुई है — महर्षि-प्रवर अंगिरा ने देव, असुर और राक्षसों के लिए तुम्हें राज पद पर प्रतिष्ठत किया है, विधो ! क्या इसका भी स्मरण नहीं हो रहा है ! निशानाथ ! आज आप काम-पीडित क्यों हो रहे हैं । इसलिए मैं कह रहीं हूँ, आप का वह कार्य सिद्ध नहीं हो सकेगा । आप की जैसी इच्छा हो करें, किन्तु देवोत्तम ! मैं पराये की हो चुकी हूँ, अब आप के साथ गमन करना उचित नहीं है ।

इस प्रकार तारा के कहने पर भी उन्होंने काम पीड़ित होने के नाते उस का कहना नहीं माना और उसे पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया । बृहस्पति ने उसे देखकर चन्द्रमा की बड़ी निन्दा की । अनन्तर बहुत दिनों तक उन्हें यहीं निश्चय था कि — चन्द्रमा मेरी पत्नी स्वयं भेज देगें । किन्तु चिरकाल की प्रतीक्षा के उपरान्त भी उनके द्वारा भार्या के प्रेषण न करने पर उन्होंने अत्यन्त रुष्ट होकर, जिसमें उनके होंठ फड़क रहे थे, इन्द्र से चन्द्रमा की समस्त चेष्टाओं का विवरण निवेदन किया । उसे सुनकर देवराज ने समस्त देवों और ऋषिगणों को अपने यहाँ, आवाहित किया । किन्तु चन्द्रमा के उपस्थित न होने पर इन्द्र को यह जानते देर नहीं लगी कि — चन्द्रमा ने मेरी आज्ञा की अवहेलना की है । उन्होंने समस्त देवों के समक्ष चन्द्रमा की उस अनीति का स्पष्ट विवेचन किया जिसे सुनकर देव और गन्धर्वगण क्रोधान्ध एवं अत्यन्त क्षुब्ध होकर अपने अस्त्र-शस्त्र समेत रथ पर बैठकर युद्धार्थ चल पड़े । चन्द्रमा ने भी युद्धोन्मुख देवों के निश्चय को भलीभाँति जानकर दैत्य, दानव और राक्षसों को आवाहित कर रण की तैयारी की ली ।

एक परमोत्तम रथ पर बैठकर उन्होंने रण भूमि में पहुंचते ही संग्राम प्रारम्भ कर दिया । तारा गणाधीश्वर चन्द्रमा ने देव-दानवों के शर, तोमर, एवं शूलों द्वारा प्रारम्भ उस भयानक युद्ध में देवों का डटकर सामना करने के अनन्तर अपनी हिमवृष्टि द्वारा इन्द्रादि देवों को मर्माहत कर दिया । राजन्य सत्तम ! देव गन्धर्वो को पराजित करने पर हविभोक्ता अग्नि की भाँति उन्हें परमोत्तम श्री की प्राप्ति हुई । चन्द्रमा के तेज से आहत होने पर देवों ने स्वर्गवासियों के शरण्य भगवान् विष्णु की शरण में पहुँच कर चन्द्रमा की उस घृष्टता पूर्ण चेष्टा का विशद विवेचन किया और इन्द्र ने भली-भाँति उसका विवरण किया जिसे सुनकर भगवान् हृषीकेश ने रुष्ट होकर अपने पुष्पक समेत गरुड़ वाहन पर बैठ कर युद्ध करने का निश्चय किया और भीषण युद्ध प्रारम्भ करने के लिए देवों समेत रणस्थल को प्रस्थान किया । युद्धार्थ रण भूमि में उपस्थित विष्णु को देखकर समरामर्षी चन्द्रमा ने भी दैत्यगणों समेत रणस्थल में पहुँच कर शंख ध्वनि द्वारा अपनी उपस्थित की सूचना दी । प्राण-भक्षी शस्त्रास्त्रों द्वारा इन्द्र, वायु आदि प्रमुख देवों को पराजित कर उन्होंने विष्णु के साथ भी युद्ध करने के लिए निश्चय किया और उनके सम्मुख उपस्थित भी हो गये । चन्द्रमा को अपने साथ युद्ध स्थगित करते न देखकर भगवान् विष्णु ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर उन पर प्रहारार्थ अपने चक्र को ग्रहण किया ।

उस समय उन्हें क्रुद्ध देखकर ब्रह्मा ने देवेश, अजित एवं अव्यय भगवान् विष्णु से कहा — भगवान् अनघ ! आप मेघ मे समान अत्यन्त पुष्ट अंगवाले हैं और इस चक्र द्वरा त्रिभुवन की रक्षा करते हैं अतः मेरी प्रार्थना पर विशेष ध्यान देने की कृपा करें — मैंने चन्द्रमा को द्विजाधिपत्य पद पर प्रतिष्ठित किया है । इसलिए देवकार्यार्थ युद्ध के लिए उपस्थित आप इस प्रकार का अनर्थ न करें । इसे सुनकर भगवान् विष्णु ने देवों और ब्रह्मर्षियों के समक्ष कहा — सिनीवाली एवं कुहू नामक अमावास्या तिथि के दिन यही निशाकर चन्द्रमा नष्ट हो जायेगा और विनष्ट होकर पुनः नाम ग्रहण करेंगे इसमें संशय नहीं । राका (पूर्णिमा) को प्राप्त कर इनकी वृद्धि होगी । वृद्धि होने पर वे देवमन्त्रो के उच्चारण पूर्वक ब्राह्मणों द्वारा दिये गये पिण्डदान को पिता गण और हव्य-कव्य को देव लोग प्राप्त करेंगे । उत्पन्न होने पर इनकी वृद्धि कृष्ण पक्ष में न हो सकेगी । इस प्रकार के दृष्टिगोचर विधान में इनका अध्यापन (वृद्धि) भी ऐसा ही निर्मित है और मेरे इस अमोघ (अस्त्रों) में कभी भी विफलता होना असम्भव है, किन्तु दक्ष द्वारा दिये गये शाप का फल भागी इन्हें अवश्य होना है । इसलिए इनका सुदर्शन प्रेम भी वैसा ही बना रहेगा ।

भगवान् देवाधीश के इस भाँति कहने पर ब्रह्मा ने कहा — देवेश ! आप का सभी कहना परमोत्तम है । पुनः उन्होंने विनय-विनम्र उपस्थित उन चन्द्रमा से कहा तुम गुरु बृहस्पति की भार्या लौटा दो और पुनः कभी ऐसा करने का उत्साह न करना, उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर तारा बृहस्पति को समर्पित कर दिया और उसी समय समस्त देवों के समक्ष यह भी कहा कि इसमें जो गर्भ है वह मेरा है, अतः उत्पन्न होने पर वह संतान मेरी होगी । इसे सुनकर बृहस्पति ने भी कहा कि — गर्भ मेरी स्त्री में है, अतः मेरे क्षेत्र में उत्पन्न होने के नाते यह पुत्र मेरा होगा । क्योंकि वेद-शास्त्र के निपुण मर्मज्ञ ऋषियों ने कहा भी है कि — वायु द्वारा आहत अथवा किसी प्रकार बोये गये बीज का अंकुर जिसके क्षेत्र में उत्पन्न होता है, वह बीज उसी क्षेत्र वाले का होता है न कि बीज बोने वाले का ।

इसे सुनकर तत्त्ववेत्ता शशांक ने कहा — ‘आप ने भलीभाँति विचार कर नहीं कहा । क्योकि नृप विशारद एवं पुराणमर्मज्ञ मुनियों ने वह बताया है कि — पुत्र की माता उसके पिता की भस्त्रा (माठी) के समान है, अतः उससे उत्पन्न होने वाला पुत्र पिता का ही होता है । ब्रह्मा ने इन दोनों विवाद के निवारणार्थ तारा को एकान्त स्थान में ले जाकर उससे धीरे से कहा — मुझे बताओ, यह गर्भ किसका है ? उनके ऐसा कहने पर तारा ने लज्जा वश नम्रमुख करके कुछ भी नहीं कहा । किन्तु उसी समय स्वर्ग को देदीप्यमान गर्भ का उत्सर्जन किया । ब्रह्मा ने उस पुत्र से कहा — पुत्र ! आप किसके पुत्र हैं । उसने कहा — ब्रह्मन् ! मैं चन्द्रमा का पुत्र हूँ । मैंने कहा — यह तथ्य कह रहा है और देवों ने कहा — यह समस्त ज्ञानियों में परमोत्तम चेष्टा है अतः इसको बुध कहना चाहिए ।

अनन्तर चन्द्रमा ने पुत्र लेकर और बृहस्पति ने अपनी भार्या लेकर अपने-अपने गृह को प्रस्थान किया । पुत्र प्राप्ति होने पर सोम को अत्यन्त हर्ष हुआ । उन्होंने कहा —यह पूर्णमासी मनोरथ सफल करने वाली तिथि है । क्योंकि मैंने इसी दिन पुत्र और विजय दोनों की प्राप्ति की है । अतः सविधान व्रत को सुसम्पन्न करने के निमित्त मैं इसमें उपवास करूंगा । यद्यपि इसके समान अन्य व्रत भी मनोरथ सफल करने के लिए पूर्णाश एवं पूर्ण लक्षण युक्त हैं तथापि इस मेरी प्रेयसी तिथि के दिन भक्ति पूर्वक सविधान मेरी पूजा करने पर मैं प्रसन्न होकर उनकी सगस्त कामनाएँ सफल करता हूँ ।

व्रती को चाहिये कि पूर्णिमा के दिन प्रातः नदी आदि में स्नान कर देवता और पितरों का तर्पण करे । तदनन्तर घर आकर एक मण्डल बनाये और उसमें नक्षत्रों सहित चन्द्रमा को अंकित कर श्वेत गन्ध, अक्षत, श्वेत पुष्प, धूप, दीप, घृतपक्व नैवेद्य और श्वेत वस्त्र आदि उपचारों से चन्द्रमा का पूजन कर उनसे क्षमा-प्रार्थना करे और सायंकाल इस मन्त्र से चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे —

वसन्तबान्धव विभो शीतांशो स्वस्ति नः कुरु ।
गगनार्णवमाणिक्य चन्द्र दाक्षायणीपते ॥”
(उत्तरपर्व ९९ । ५४)
‘वसन्त बान्धव एवं शीतकिरण वाले विभो ! हमें कल्याण परम्परा प्रदान कर अनुगृहीत करें । आप, गगन-सागर की परमोत्तम रवि, चन्द्र तथा दाक्षायणी के पति हैं ।’

अनन्तर रात्रि में मौन होकर शाक एवं तिन्नी के चावल का भोजन करे । प्रत्येक मास की पौर्णमासी को इसी प्रकार उपवासपूर्वक चन्द्रमा की पूजा करनी चाहिये ।

यदि कृष्ण पक्ष की अमावास्या में कोई श्रद्धावान् व्यक्ति चन्द्रमा की पूजा करना चाहे तो उसके लिये भी यही विधि बतलायी गयी है । इससे सभी अभीष्ट सुख प्राप्त होते हैं । अमावास्या तिथि पितरों को अत्यन्त प्रिय है । इस दिन दान एवं तर्पण आदि करने से पितरों की तृप्ति प्राप्त होती है। जो अमावास्या को उपवास करता है, उसे अक्षय-वट के नीचे श्राद्ध करने का फल प्राप्ति होता है । यह अक्षय-वट पितरों के लिये उत्तम तीर्थ है । जो अमावास्या को अक्षय-वट में पितरों के उद्देश्य से श्राद्धादि क्रिया करता है, वह पुण्यात्मा अपने इक्कीस कुलों का उद्धार कर देता है । इस प्रकार एक वर्षपर्यन्त पूर्णिमा-व्रत करके नक्षत्र सहित चन्द्रमा की सुवर्ण की प्रतिमा बना करके वस्त्राभूषण आदि से उसका पूजन कर ब्राह्मण को दान कर दे । व्रती यदि इस व्रत को निरन्तर न कर सके तो एक पक्ष के व्रत को ही करके उद्यापन कर ले । पार्थ ! पौर्णमासी-व्रत करनेवाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो चन्द्रमा की तरह सुशोभित होता है और पुत्र-पौत्र, धन, आरोग्य आदि प्राप्तकर बहुत काल तक सुख भोग कर अस्त समय में प्रयाग में प्राण त्यागकर विष्णुलोक को जाता है । जो पुरुष पूर्णिमा को चन्द्रमा का पूजन और अमावास्या को पितृ-तर्पण, पिण्डदान आदि करते हैं, वे कभी धन-धान्य, संतान आदि से च्युत नहीं होते ।
(अध्याय ९९)

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