December 21, 2024 | vadicjagat | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 02 ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः दूसरा अध्याय परमात्मा के महान उज्ज्वल तेजःपुञ्ज, गोलोक, वैकुण्ठलोक और शिवलोक की स्थिति का वर्णन तथा गोलोक में श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्ण के परात्पर स्वरूप का निरूपण शौनक जी ने पूछा — सूतनन्दन ! आपने कौन-सा परम अद्भुत, अपूर्व और अभीष्ट पुराण सुना है, वह सब विस्तारपूर्वक कहिये । पहले परम उत्तम ब्रह्मखण्ड की कथा सुनाइये । सौति ने कहा — मैं सर्वप्रथम अमित तेजस्वी गुरुदेव व्यास जी के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ । तत्पश्चात् श्रीहरि को, सम्पूर्ण देवताओं को और ब्राह्मणों को प्रणाम करके सनातन धर्मों का वर्णन आरम्भ करता हूँ । मैंने व्यास जी के मुख से जिस सर्वोत्तम ब्रह्मखण्ड को सुना है, वह अज्ञानान्धकार का विनाशक और ज्ञान मार्ग का प्रकाशक है । ब्रह्मन् ! पूर्ववर्ती प्रलयकाल में केवल ज्योतिष्पुञ्ज प्रकाशित होता था, जिसकी प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान थी । वह ज्योतिर्मण्डल नित्य है और वही असंख्य विश्व का कारण है । वह स्वेच्छामय रूपधारी सर्वव्यापी परमात्मा का परम उज्ज्वल तेज है । उस तेज के भीतर मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं । विप्रवर ! तीनों लोकों के ऊपर गोलोक–धाम है, जो परमेश्वर के समान ही नित्य है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है । वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है । परम महान तेज ही उसका स्वरूप है । उस चिन्मय लोक की भूमि दिव्य रत्नमयी है । योगियों को स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं होता । परंतु वैष्णव भक्तजन भगवान् की कृपा से उसको प्रत्यक्ष देखते और वहाँ जाते हैं । अप्राकृत आकाश अथवा परम व्योम में स्थित हुए उस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा ने अपनी योगशक्ति से धारण कर रखा है । वहाँ आधि, व्याधि, जरा, मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं है । उच्चकोटि के दिव्य रत्नों द्वारा रचित असंख्य भवन सब ओर से उस लोक की शोभा बढ़ाते हैं । प्रलयकाल में वहाँ केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप-गोपियों से भरा रहता है । गोलोक से नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण भाग में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है । ये दोनों लोक भी गोलोक के समान ही परम मनोहर हैं । मण्डलाकार वैकुण्ठ लोक का विस्तार एक करोड़ योजन है । वहाँ भगवती लक्ष्मी और भगवान् नारायण सदा विराजमान रहते हैं । उनके साथ उनके चार भुजा वाले पार्षद भी रहते हैं । वैकुण्ठ लोक भी जरा-मृत्यु आदि से रहित है । उसके वामभाग में शिवलोक है, जिसका विस्तार एक करोड़ योजन है । वहाँ पार्षदों सहित भगवान् शिव विराजमान हैं । गोलोक के भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है, जो परम आह्लादजनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है । योगीजन योग एवं ज्ञानदृष्टि से सदा उसी का चिन्तन करते हैं । वह ज्योति ही परमानन्ददायक, निराकार एवं परात्पर ब्रह्म है । उस ब्रह्म-ज्योति के भीतर अत्यन्त मनोहर रूप सुशोभित होता है, जो नूतन जलधर के समान श्याम है । उसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्ल दिखायी देते हैं । उसका निर्मल मुख शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करने वाला है । उसके रूप-लावण्य पर करोड़ों कामदेव निछावर किये जा सकते हैं । वह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है । उसके दो भुजाएँ हैं । एक हाथ में मुरली सुशोभित है । अधरों पर मन्द मुस्कान खेलती रहती है । उसके श्रीअंग दिव्य रेशमी पीताम्बर से आवृत हैं । सुन्दर रत्नमय आभूषणों के समुदाय उसके अलंकार हैं । वह भक्तवत्सल है । उसके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित तथा कस्तूरी और कुङ्कुम से अलंकृत हैं । उसका श्रीवत्सभूषित वक्षःस्थल कान्तिमान कौस्तुभ से प्रकाशित है । मस्तक पर उत्तम रत्नों के सार-तत्त्व से रचित किरीट-मुकुट जगमगाते रहते हैं । वह श्याम-सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी वनमाला उसकी शोभा बढ़ाती है । उसी को परब्रह्म परमात्मा एवं सनातन भगवान् कहते हैं । वे भगवान स्वेच्छामय रूपधारी, सबके आदि कारण, सर्वाधार तथा परात्पर परमात्मा हैं । उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है । वे सदा गोप-वेष धारण करते हैं । करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं की शोभा से सम्पन्न हैं तथा अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये आकुल रहते हैं । वे ही निरीह, निर्विकार, परिपूर्णतम तथा सर्वव्यापी परमेश्वर हैं तथा वे ही रासमण्डल में विराजमान, शान्तचित्त, परम मनोहर रासेश्वर हैं; मंगलकारी, मंगल-योग्य, मंगलमय तथा मंगलदाता हैं; परमानन्द के बीज, सत्य, अक्षर और अविनाशी हैं; सम्पूर्ण सिद्धियों के स्वामी, सर्व सिद्धिस्वरूप तथा सिद्धिदाता हैं; प्रकृति से परे विराजमान, ईश्वर, निर्गुण, नित्य-विग्रह, आदिपुरुष और अव्यक्त हैं । बहुत-से नामों द्वारा उन्हीं को पुकारा जाता है । बहुसंख्यक पुरुषों ने विविध स्तोत्रों द्वारा उन्हीं का स्तवन किया है । वे सत्य, स्वतन्त्र, एक, परमात्मस्वरूप, शान्त तथा सबके परम आश्रय हैं । शान्तचित्त वैष्णवजन उन्हीं का ध्यान करते हैं । ऐसा उत्कृष्ट रूप धारण करने वाले उन एकमात्र भगवान ने प्रलय काल में दिशाओं और आकाश के साथ सम्पूर्ण विश्व को शून्य रूप देखा । ॥ श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे परब्रह्मनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe