श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-026
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
छब्बीसवाँ अध्याय
व्याध तथा राक्षस द्वारा अनजाने में ही गणेशजी के ऊपर शमीपत्र के गिर जाने से प्रसन्न विनायक द्वारा उन दोनों को अपने लोक की प्राप्ति कराना
अथः षड्विंशतितमोऽध्यायः
भीमराक्षसमोक्षणं

मुनि व्यासजी बोले — [हे ब्रह्मन्!] व्याध ने कौन-सा कर्म किया था ? उसने कैसे शमीपत्र चढ़ाया ? उसका क्या नाम था और कैसे उसने विनायक के सालोक्य को प्राप्त किया ? यह सब आप मुझे बतलाइये ॥ १ ॥

ब्रह्माजी बोले — विदर्भ नामक देश में मदिष नाम वाला एक नगर था। वह नगर तीनों लोकों में विख्यात था और कुबेर की नगरी अलकापुरी के समान था ॥ २ ॥ उस नगर में भीम नाम का एक व्याध था, जो मांस का विक्रय करता था। यद्यपि दूसरे के दोषों का कथन करने में दोष होता है, तथापि पूछे जाने पर यथार्थरूप से उसका वर्णन करना चाहिये, ईर्ष्या-द्वेषवश नहीं ॥ ३१/२

बहुत-से दोषों से व्याप्त वह भीम नामक व्याध बाण, धनुष, बाणों से भरा तरकश, खड्ग, चाप तथा छूरी लेकर नित्य वन में जाता था और प्राणियों का वधकर अपने कुटुम्ब के भरण में परायण रहता था ॥ ४-५ ॥ वह निर्दयी व्याध निर्जन वन में पथिकों तथा ब्राह्मणों का भी वध कर डालता था। किसी समय की बात है, उस मदिष नामक नगर में एक महोत्सव प्रारम्भ हुआ । वह व्याध बहुत अधिक मांस की प्राप्ति की इच्छा से प्रातःकाल ही वन में चला गया। वह धन का लोभी व्याध उस मांस को बेचने की इच्छा रखने वाला था और उसी से अपने कुटुम्ब का पोषण करना चाहता था ॥ ६-७ ॥ उसने अनेक मृगसमूहों का वध किया और उनके मांस के भार से लदा हुआ ज्यों ही वह नगर में प्रविष्ट होना चाहता था, उसी समय एक महान् राक्षस वहाँ आ पहुँचा। मनुष्य की गन्ध पाकर वह राक्षस अत्यन्त प्रसन्न होकर क्षणभर में ही उस व्याध के पास आ पहुँचा। उस राक्षस का नाम पिंगाक्ष था । उसके नेत्र पीले थे और वह सबके लिये महाभयंकर था ॥ ८-९ ॥

मनुष्यों तथा हिंसक पशुओं का भी भक्षण करने वाला वह व्याध कभी तृप्त न होने वाली अग्नि के समान सदा अतृप्त रहता था, किंतु उस राक्षस को देखकर वह व्याध काँप उठा और भूमि पर गिर पड़ा ॥ १० ॥ उस व्याध के सभी शस्त्र गिर पड़े और आँखें भी बन्द हो गयीं। जब बलपूर्वक उसने आँखों को खोला तो उसे समीप में एक शमी का वृक्ष दिखायी दिया ॥ ११ ॥ वह भीम नामक व्याध उस वृक्ष पर चढ़ गया । उसी के पीछे वह राक्षस भी वृक्ष में चढ़ गया। तभी उस व्याध ने शमीवृक्ष की एक शाखा को राक्षस पर फेंका। उस शाखा से एक पत्र वायु द्वारा उड़कर गणनाथ के मस्तक के ऊपर गिर पड़ा। उस गणनाथ-विग्रह को वामन ने स्थापित किया था। पत्र के मस्तक पर गिरने से गणनाथ प्रसन्न हो गये; क्योंकि वे गणनाथ उन दोनों व्याध तथा राक्षस द्वारा स्पष्ट रूप से पूजित हो गये थे ॥ १२-१३ ॥

बलि पर विजय प्राप्त करने की इच्छा वाले महर्षि कश्यप के पुत्र वामन को वर प्रदान करने के लिये जो गजानन स्पष्ट रूप से प्रकट हुए थे, वे देव दूर्वा तथा शमीपत्रों से ही अत्यन्त सन्तुष्ट हो जाते हैं। मनुष्यों द्वारा अनेक प्रकार के रत्नों, सुवर्ण तथा दिव्य वस्त्रों से समन्वित की गयी पूजा भी यदि दूर्वांकुरों से रहित होती है, तो वह निष्फल हो जाती है। वह पूजा जब दूर्वांकुरों अथवा शमीपत्र के द्वारा की जाती है तो ही सफल, अन्यथा निष्फल रहती है ॥ १४-१६ ॥ वे प्रभु विनायकदेव, यज्ञ, दान, व्रतोपवास, तप, नियम अथवा सुवर्ण तथा रत्नों के समूहों के समर्पित करने से वैसे प्रसन्न नहीं होते, जैसे कि दूर्वा और शमीपत्र के चढ़ाने से प्रसन्न होते हैं। उन दोनों भीम नामक व्याध तथा राक्षस पर प्रसन्न देवाधिदेव विनायक ने उन दोनों को अपने धाम पहुँचाने के लिये अपने ही समान स्वरूप धारण करने वाले पार्षदों को उत्तम विमान के साथ अपने लोक से भेजा। उन पार्षदों का दर्शन करने से उन दोनों की पर्वत के समान पापराशि नष्ट हो गयी ॥ १७–१९ ॥

भगवान् गणेशजी के कृपाप्रसाद से राक्षस तथा भीम नामक व्याध दोनों की पापराशियाँ उसी प्रकार नष्ट हो गयीं, जैसे अग्निकणों के सम्पर्क से तृणों के पर्वत जलकर नष्ट हो जाते हैं। वे दोनों अपना शरीर त्यागकर दिव्य देह धारणकर उस विमान में आरूढ़ हुए और गणेशजी के पार्षदों द्वारा विविध प्रकार के वस्त्रों, आभूषणों तथा विलेपनों द्वारा पूजित हुए ॥ २०-२१ ॥ अप्सराओं तथा गन्धर्वों से समन्वित उस महान् यान में हो रही नाना प्रकार के वाद्यों की ध्वनि के साथ उन दोनों को देव विनायक के समीप ले जाया गया और उन दोनों ने विनायक को प्रणाम किया। वे दोनों सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो गये और उन्होंने भगवान् गणपति के सारूप्य को प्राप्त किया। उन गणपति ने उन्हें एक कल्प तक के लिये प्रतिष्ठित कर दिया ॥ २२-२३ ॥

अपने धाम में इस प्रकार वे गणेश भावनाप्रिय हैं और भक्तिभाव से प्रसन्न होने वाले हैं। इसी प्रकार के भक्तिभाव से सन्तुष्ट होने वाले वे विनायक शुक्ल नामक ब्राह्मण के द्वारा प्रदत्त एक मुट्ठी भर अन्न से उसपर अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन शुक्ल नामक ब्राह्मण को उन्होंने अलकापुरी के सदृश दिव्य भवन प्रदान किया ॥ २४१/२

अतः दूर्वा तथा शमीपत्रों के बिना की गयी पूजा निष्फल हो जाती है । वे गजानन दम्भपूर्वक की गयी महान् पूजा से वैसे प्रसन्न नहीं होते, जैसे कि भक्तिभावपूर्वक की गयी स्वल्प पूजा से ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ २५-२६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘भीम और राक्षस के मोक्ष का वर्णन’ नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥

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