श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-036
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
छत्तीसवाँ अध्याय
गजानन की पूजा किये बिना यज्ञारम्भ करने पर विघ्नस्वरूप देवी सावित्री का रुष्ट होना और उन देवों तथा मुनियों को जलरूप (नदीरूप) प्राप्त करने का शाप देना, पुनः ब्रह्माजी के कहने पर देवपत्नियों का शमीपत्र द्वारा गणेशजी का पूजन करना, प्रसन्न होकर गजानन का उन्हें दर्शन देना
अथः षट्त्रिंशत्तमोऽध्यायः
बालचरिते शमीपत्रार्पणप्रसन्नेन विनायकेन देवाङ्नाभ्यः स्वरूपदर्शनं

गृत्समद बोले — सह्याद्रिपर्वत के महाप्रभाव सम्पन्न पुण्यक्षेत्र में भगवान् शंकर देवी गिरिजा और अपने गणों तथा मुनियों के साथ निवास करते थे ॥ १ ॥

एक बार की बात है, देवताओं, गन्धर्वों तथा किन्नरों को साथ लेकर लोकपितामह ब्रह्माजी अपनी दोनों पत्नियों सहित भगवान् शिव का दर्शन करने के लिये वहाँ आये ॥ २ ॥ भगवान् शंकर का दर्शनकर तथा उनकी पूजा करके ब्रह्माजी ने अपने आगमन का कारण उन्हें बताया। तब भगवान् सदाशिव ने जमदग्नि, वसिष्ठ, मार्कण्डेय, नारद, कपिल, पुलह, कण्व, विश्वामित्र, त्रित तथा द्वित- इन प्रधान ऋषियों को वहाँ बुलाया ॥ ३-४ ॥ भगवान् शिव के द्वारा बुलाये गये वे सभी ऋषि- महर्षि तथा अन्य भी सभी उनके दर्शन की अभिलाषा से वहाँ आये। उन्होंने ऊषाकाल में शुभ मुहूर्त निकालकर यज्ञ का समारम्भ किया ॥ ५ ॥

शीघ्रतावश यज्ञारम्भ करते समय वे ऋषि- महर्षि मंगलमयी विनायकपूजा को करना भूल गये । उस समय ब्रह्माजी की पत्नी देवी सावित्री गृह के कामों में लगी थीं, अतः उन मुनीश्वरों ने सावित्री को छोड़कर ब्रह्माजी की दूसरी पत्नी गायत्री को ही बैठाकर पुण्याहवाचन किया। तदनन्तर मातृकापूजन करने के पश्चात् आभ्युदयिक श्राद्ध सम्पन्न किया ॥ ६-७ ॥ इसके पश्चात् वे मुनिगण ज्योंही अग्निकुण्ड में अग्नि की स्थापना करने लगे, त्योंही देवी सावित्री वहाँ उपस्थित हो गयीं और यज्ञ का आरम्भ देखकर अत्यन्त क्रोध में भर गयीं । क्रोध से रक्त नेत्रवाली वे सभी सभासदों को देखकर कहने लगीं ॥ ८१/२

सावित्री बोलीं — मेरा तिरस्कार करके प्रारम्भ किया गया यह यज्ञ सफल नहीं होगा ॥ ९ ॥

ऋषि बोले — चराचर जगत् ‌को जला डालने की इच्छा से अपने मुख से अग्नि की ज्वाला को छोड़ते हुए उन्होंने देवताओं तथा मुनियों को शाप दे डाला कि तुम सब जड़ हो जाओगे; क्योंकि तुम सबने यज्ञ की अनधिकारिणी उस गायत्री को यज्ञ में नियुक्त किया ॥ १० ॥ तब देवता अत्यन्त दुखीमन होते हुए उन्हें प्रणाम करके सबकी जननी उन सावित्री से उच्च स्वर से प्रार्थना करने लगे । हे शुभे ! ड और ल-में भेद न होने के कारण हम जडरूप रूप में नहीं, अपितु जलरूप अर्थात् नदी – नद के रूप में हो जायँगे ॥ ११-१२ ॥

उन देवी सावित्री के द्वारा ‘ऐसा ही हो’ यह कहे जाने पर वे सभी देवता नदीरूप को प्राप्त हो गये। भगवान् महेश्वर वेणी नामक नदी बन गये तथा कृष्ण कृष्णा नामक नदी हो गये। इस प्रकार वे सभी देवता तत्तद् नामवाले नदी बन गये ॥ १३१/२

जहाँ पर अज्ञानियों के द्वारा सर्वप्रथम विघ्नराज गणेशजी की पूजा नहीं होती, वहाँ निश्चित ही विघ्न उपस्थित होते हैं, जैसे कि पूर्वकाल में त्रिपुरासुर के वध के समय गणेशजी का पूजन न करने से शंकरजी को विघ्न उपस्थित हुए थे ॥ १४-१५ ॥ यज्ञ में विघ्न उपस्थित हो जाने पर ब्रह्माजी को यह महान् चिन्ता हुई कि मेरे ही प्रयोजन के कारण सभी देवताओं को नदीरूप होना पड़ा। न जाने किस कर्म के कारण सभी लोकों में मेरा अपमान हो गया । मेरे संकल्प में यह अत्यन्त कठिन बाधा आज कैसे उपस्थित हुई ?॥ १६-१७ ॥ इस यज्ञ के प्रारम्भ में विघ्नों का हरण करने वाले जगन्नाथ गणेशजी का न तो स्मरण किया गया और न उनकी पूजा ही हुई, इसी कारण सभी देवता मोह में पड़ गये। अब मैं उन गणेशजी को प्रसन्न करूँगा, तदनन्तर यज्ञ सम्पन्न होगा ॥ १८१/२ ॥ 

ब्रह्माजी जब इस प्रकार से विचार कर ही रहे थे कि उसी समय सभी देवांगनाएँ देवताओं को नदीरूप में परिवर्तित जानकर ब्रह्माजी के समीप में आयीं ॥ १९१/२

पुलोमा की पुत्री शची इन्द्राणी, पार्वती, छाया, कमला तथा अन्य भी देवपत्नियाँ उन कमलासन ब्रह्माजी से कहने लगीं — आपने यज्ञ कैसे आरम्भ किया ? जो मान्य थे, उनकी पूजा क्यों नहीं की? आपने सर्वप्रथम विघ्नों का हरण करने वाले गजानन की पूजा क्यों नहीं की? आप यदि भूल गये थे तो देवों ने क्यों नहीं आपको स्मरण दिलाया ?  अब हमारे द्वारा क्या किया जाना चाहिये अथवा जलरूपधारी देवों को क्या करना चाहिये ? हे कमलोद्भव ब्रह्माजी! हे देव! आपको छोड़कर अब हम किसकी शरण में जायँ ? ॥ २०-२३ ॥

उनके इस प्रकार के वचनों को सुनकर ब्रह्माजी उनसे बोले — आपलोग भयभीत न हों, मैं ऐसा यज्ञ करूँगा, जिससे आप सभी लोगों का कल्याण होगा ॥ २४ ॥ भगवान् गजानन के प्रसन्न हो जाने पर उनके भक्तों के लिये क्या असाध्य रहता है! आप सब लोग उनकी आराधना कीजिये, वे गणेश आप सभी का प्रिय करेंगे ॥ २५ ॥ मैं भी जगत् के ईश्वर, सभी कारणों के भी परम कारण तथा आदि-अन्त से रहित, उन भगवान् विनायक को प्रसन्न करूँगा ॥ २६ ॥

इस प्रकार से कही गयीं वे सभी देवियाँ ब्रह्माजी के निर्देशानुसार दूरस्थित कल्याणकारी कर्नाटक देश को गयीं और वे वहाँ मन्दारवृक्ष के मूल में स्थित विघ्नेश का ध्यान करने लगीं ॥ २७ ॥ उन विघ्नेश विनायक की पूर्वकाल में भगवान् श्रीराम ने वक्रतुण्ड नाम से स्थापना की थी और उनसे विविध वरों को प्राप्तकर वे भगवान् श्रीराम प्रधान राक्षसों को मारकर विजयी हुए थे। साथ ही विख्यात राक्षसराज रावण का वधकर अपनी पत्नी सीता को प्राप्तकर उन्होंने अपना धाम प्राप्त किया था। वहीं पर उन सभी देवांगनाओं ने कठोर तप किया ॥ २८-२९ ॥

कोई देवी गणेशजी के नाममन्त्र का जप करने लगी, कोई उनका मन्त्र जपने लगी और कोई पद्मासन में स्थित होकर उन परमेश्वर गणेश का ध्यान करने लगी ॥ ३० ॥ कोई वीरासन में स्थित हो गयी, कोई निराहार व्रत में स्थित हो गयी। कोई-कोई मन्दिर के दरवाजों की, चौराहों की तथा घरों की सफाई करने लगी ॥ ३१ ॥ कोई-कोई प्रदक्षिणा तथा बार-बार नमस्कार करती हुई श्रेष्ठ आराधना करने लगी, कोई पैर के एक अँगूठे में खड़ी होकर विनायक के ध्यान में निमग्न हो गयी ॥ ३२ ॥ कोई नेत्रों को बन्द करके उनके स्तोत्रों का पाठ करने लगी। इस प्रकार आराधना करते हुए बहुत-सा समय व्यतीत हो जाने पर भी वे विनायक प्रसन्न नहीं हुए ॥ ३३ ॥

तब वे अत्यन्त चिन्तित हो उठीं और अब हम क्या करें, ऐसा सोचते हुए व्याकुल हो गयीं । तदनन्तर कुछ देवियों ने पुष्पों की विशाल राशि को, दूसरी देवियों ने बहुत से दूर्वादलों को समर्पित करके धूप, दीप, नैवेद्य तथा स्वर्ण द्वारा देव विनायक का पूजन किया। किसी देवी ने मन्दार के पुष्पों से तथा किसी ने स्वर्णकमलों द्वारा उनकी पूजा की ॥ ३४-३५ ॥

तभी उन्होंने आकाशवाणी सुनी कि ‘शमीपत्र के बिना की गयी पूजा से विभु गणेश प्रसन्न नहीं होते’ । तदनन्तर उन सभी देवियों ने शमीपत्रों के द्वारा परम भक्तिभाव से उन. देवाधिदेव गजानन की पूजा की। शमीदलों के द्वारा पूजित होने पर दयार्द्रहृदय होकर वे भगवान् गणेश उनके सामने प्रत्यक्ष प्रकट हो गये ॥ ३६-३७ ॥

उस समय वे चार भुजाओं के द्वारा अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे । उन्होंने किरीट तथा बाजूबन्द धारण कर रखा था। वे माला तथा कुण्डलों से मण्डित थे ॥ ३८ ॥ उनके कान लम्बे थे। उनका गण्डस्थल सुशोभित हो रहा था। वे दो दाँतों से मण्डित थे । वे सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो पत्नियों से समन्वित थे। उनका वाहन मूषक भी साथ में था। वे पीले वस्त्रों को धारण किये हुए थे। उन सभी देवियों ने करोड़ों सूर्यों के समान कान्ति वाले उन भगवान् गणेश का दर्शन किया । उन्होंने अपनी आँखों को बन्द करके भूमि पर गिरकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया ॥ ३९-४० ॥ उनका दर्शनकर उनका मुखमण्डल अत्यन्त प्रसन्न हो गया, वे परम आनन्द में निमग्न हो गयीं, तब उन्होंने सौम्य तेज से आच्छन्न विग्रह वाले उन भगवान् गजानन की स्तुति करनी प्रारम्भ की ॥ ४१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘शमी और मन्दार की प्रशंसा का वर्णन’ नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३६ ॥

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