June 15, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 086 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ छियासीवाँ अध्याय निर्वाण–दीक्षा के अन्तर्गत विद्याकला के शोधन विद्याविशोधनविधानम् भगवान् शिव कहते हैं — स्कन्द ! पूर्ववर्तिनी कला-प्रतिष्ठा के साथ विद्याकला का संधान करे तथा पूर्ववत् उसमें तत्त्व-वर्ण आदि का चिन्तन भी करे। उसके लिये मन्त्र इस प्रकार है — ॐ हां हीं हूं हां – यह संधान-मन्त्र है। राग, शुद्ध विद्या, नियति, कला, काल, माया तथा अविद्या — ये सात तत्त्व तथा र, ल, व, श, ष, स — ये छ वर्ण विद्याकला के अन्तर्गत बताये गये हैं। प्रणव आदि इक्कीस पद भी उसी के अन्तर्गत हैं । ‘ॐ नमः शिवाय सर्वप्रभवे शिवाय ईशान मूर्ध्ने तत्पुरुषवक्त्राय अघोरहृदयाय वामदेवगुह्याय सद्योजातमूर्तये ॐ नमो नमः गुह्यातिगुह्याय गोप्त्रे अनिधनाय सर्वयोगाधिकृताय सर्वयोगाधिपाय ज्योतीरूपाय परमेश्वराय अचेतन अचेतन व्योमन् व्योमन् ।’ — ये इक्कीस पद हैं ॥ १-५ ॥’ अब रुद्रों और भुवनों का स्वरूप बताया जाता है — प्रमथ, वामदेव, सर्वदेवोद्भव, भवोद्भव, वज्रदेह, प्रभु धाता, क्रम, विक्रम, सुप्रभ, बुद्ध, प्रशान्तनामा, ईशान, अक्षर, शिव सशिव, बभ्रु, अक्षय, शम्भु, अदृष्टरूपनामा, रूपवर्धन, मनोन्मन, महावीर, चित्राङ्ग तथा कल्याण — ये पचीस भुवन एवं रुद्र जानने चाहिये ॥ ६-९ ॥ विद्याकला में अघोर-मन्त्र है, ‘म’ और ‘र’ बीज हैं, पूषा और हस्तिजिह्वा – दो नाड़ियाँ हैं, व्यान और नाद ये दो प्राणवायु हैं। एकमात्र रूप ही विषय है। पैर और नेत्र दो इन्द्रियाँ हैं। शब्द, स्पर्श तथा रूप ये तीन गुण कहे गये हैं। सुषुति अवस्था है और रुद्रदेव कारण हैं। भुवन आदि समस्त वस्तुओं को भावना द्वारा विद्या के अन्तर्गत देखे। इसके लिये संधान मन्त्र है — ॐ हूं हैं हां।’ तत्पश्चात् रक्तवर्ण एवं स्वस्तिक के चिह्न से अङ्कित त्रिकोणाकार मण्डल का चिन्तन करे। शिष्य के वक्ष में ताडन, कलापाश का छेदन, शिष्य के हृदय में प्रवेश, उसके जीवचैतन्य का पाश-बन्धन से वियोजन तथा हृदयप्रदेश से जीवचैतन्य एवं विद्याकला का आकर्षण और ग्रहण करे ॥ १०-१३ ॥ जीवचैतन्य का अपने आत्मा में आरोपण करके कलापाश का संग्रहण एवं कुण्ड में स्थापन भी पूर्वोक्त पद्धति से करे। कारणरूप रुद्र देवता का आवाहन पूजन आदि करके शिष्य के प्रति बन्धनकारी न होने के लिये उनसे प्रार्थना करे। पिता-माता का आवाहन आदि करके शिशु (शिष्य) के हृदय में ताड़न करे। पूर्वोक्त विधि के अनुसार पहले अस्त्र- मन्त्र द्वारा हृदय में प्रवेश करके जीवचैतन्य को कलापाश से विलग करे। फिर उसका आकर्षण एवं ग्रहण करके अपने आत्मा में संयोजन करे। फिर वामा उद्भवमुद्रा द्वारा वागीश्वरीदेवी के गर्भ में उसके स्थापित होने की भावना करे। इसके बाद देह-सम्पादन करे। जन्म, अधिकार, भोग, लय, स्रोतः शुद्धि, तत्त्वशुद्धि, निःशेष मलकर्मादि के निवारण, पाश-बन्धन की निवृत्ति एवं निष्कृति के हेतु स्वाहान्त अस्त्र-मन्त्र से सौ आहुतियाँ दे। तदनन्तर अस्त्र-मन्त्र से पाश- बन्धन को शिथिल करना, मलशक्ति का तिरोधान करना, कलापाश का छेदन, मर्दन, वर्तुलीकरण, दाह, अकुराभाव- सम्पादन तथा प्रायश्चित्त कर्म पूर्वोक्त रीति से करे। इसके बाद रुद्रदेव का आवाहन, पूजन एवं रूप और गन्ध का समर्पण करे। उसके लिये मन्त्र इस प्रकार है — ॐ हां रूपगन्धौ शुल्कं रुद्र गृहाण स्वाहा ।’ ॥ १४-१९ ॥ शंकरजी की आज्ञा सुनाकर कारणस्वरूप रुद्रदेव का विसर्जन करे। इसके बाद जीवचैतन्य का आत्मा में स्थापन करके उसे पाशसूत्र में निवेशित करे। फिर जलबिन्दु-स्वरूप उस चैतन्य का शिष्य के सिर पर न्यास करके माता-पिता का विसर्जन करे। तत्पश्चात् समस्त विधि की पूर्ति करनेवाली पूर्णाहुति का विधिवत् हवन करे ॥ २०-२१ ॥ विद्या में ताडन आदि कार्य पूर्वोक्त विधि से ही करना चाहिये। अन्तर इतना ही है कि उसमें सर्वत्र अपने बीज का प्रयोग होगा। यह सब विधान पूर्ण करने से विद्याकला का शोधन होता है ॥ २२ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘निर्वाण-दीक्षा के अन्तर्गत विद्याकला का शोधन नामक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८६ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe