अग्निपुराण – अध्याय 094
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
चौरानबेवाँ अध्याय
शिलान्यास की विधि
शिलाविन्यासविधानम्

भगवान् शिव कहते हैं — स्कन्द ! ईशान आदि कोणों में वास्तुमण्डल के बाहर पूर्ववत् चर की आदि का पूजन करे। प्रत्येक देवता के लिये क्रमशः तीन-तीन आहुतियाँ दे । भूतबलि देकर नियत लग्न में शिलान्यास का उपक्रम करे। खात के मध्यभाग में आधार शक्ति का न्यास करे। वहाँ अनन्त ( शेषनाग ) के मन्त्र से अभिमन्त्रित उत्तम कलश स्थापित करे। ‘लं पृथिव्यै नमः ।’– इस मूल मन्त्र से इस कलश पर पृथिवी स्वरूपा शिला का न्यास करे। उसके पूर्वादि दिग्भागों में क्रमश: सुभद्र आदि आठ कलशों की स्थापना करे। पहले उनके लिये गड्ढे खोदकर उनमें आधार शक्ति का न्यास करने के पश्चात् उक्त कलशों को इन्द्रादि लोकपालों के मन्त्रों द्वारा स्थापित करना चाहिये । तदनन्तर उन कलशों पर क्रमशः नन्दा आदि शिलाओं को रखे ॥ १-४ ॥’

तत्त्वमूर्तियों के अधिदेवता-सम्बन्धी शस्त्रों से युक्त वे शिलाएँ होनी चाहिये। जैसे दीवार में मूर्ति तथा अस्त्र आदि अङ्कित होते हैं, उसी प्रकार उन शिलाओं में शर्व आदि मूर्ति, देवताओं के अस्त्र- शस्त्र अङ्कित रहें। उक्त शिलाओं पर कोण और दिशाओं के विभागपूर्वक धर्म आदि आठ देवताओं की स्थापना करे। सुभद्र आदि चार कलशों पर नन्दा आदि चार शिलाएँ अग्नि आदि चार कोणों में स्थापित करनी चाहिये। फिर जय आदि चार कलशों पर अजिता आदि चार शिलाओं की पूर्व आदि चार दिशाओं में स्थापना करे। उन सबके ऊपर ब्रह्माजी तथा व्यापक महेश्वर का न्यास करके मन्दिर के मध्यवर्ती ‘आकाश’ नामक अध्वा का चिन्तन करे। इन सबको बलि अर्पित करके विघ्नदोष के निवारणार्थ अस्त्र-मन्त्र का जप करे। जहाँ पाँच ही शिलाएँ स्थापित करने की विधि है, उसके पक्ष में भी कुछ निवेदन किया जाता है ॥ ५-८ ॥

मध्यभाग में सुभद्र कलश के ऊपर पूर्णा नामक शिला की स्थापना करे और अग्नि आदि कोणों में क्रमशः पद्म आदि कलशों पर नन्दा आदि शिलाएँ स्थापित करे। मध्यशिला के अभाव में चार शिलाएँ भी मातृभाव से सम्मानित करके स्थापित की जा सकती हैं। उक्त पाँचों शिलाओं की प्रार्थना इस प्रकार करे —

ॐ पूर्णे त्वं महावद्ये सर्वसन्दोहलक्षणे ।
सर्वसम्पूर्णमेवात्र कुरुष्वाङिगिरसः सुते ॥ १० ॥
ॐ नन्दे त्वं नन्दिनी पुंसां त्वामत्र स्थापयाम्यहं ।
प्रासादे तिष्ठ सन्तृप्ता यावच्चन्द्रार्कतारकं ॥ ११ ॥
आयुः कामं श्रियन्नन्दे देहि वासिष्ठि देहिनां ।
अस्मिन् रक्षा सदा कार्य्या प्रासादे यत्नतस्त्वया ॥ १२ ॥
ॐ भद्रे त्वं सर्वदा भद्रं लोकानां कुरु काश्यपि ।
आयुर्दा कामदा देवि श्रीप्रदा च सदा भव ॥ १३ ॥
ॐ जयेऽत्र सर्वदा देवि श्रीदाऽऽयुर्दा सदा भव ॥ १४ ॥
ॐ जयेऽत्र सर्वदा देवि तिष्ठ त्वं स्थापितामय ।
नित्यञ्जयाय भूत्यै च स्वामिनी भव भार्गवि ॥ १५ ॥
ॐ रिक्तेऽतिरिक्तदोषघ्ने सिद्धिमुक्तिप्रदे शुभे ।
सर्वदा सर्वदेशस्थे तिष्ठास्मिन् विश्वरूपिणि ॥ १६ ॥

ॐ सर्वसंदोहस्वरूपे महाविद्ये पूर्णे! तुम अङ्गिरा ऋषि की पुत्री हो। इस प्रतिष्ठाकर्म में सब कुछ सम्यक् रूप से ही पूर्ण करो। नन्दे ! तुम समस्त पुरुषों को आनन्दित करनेवाली हो। मैं यहाँ तुम्हारी स्थापना करता हूँ। तुम इस प्रासाद में सम्पूर्णतः तृप्त होकर तबतक सुस्थिरभाव से स्थित रहो, जब तक कि आकाश में चन्द्रमा, सूर्य और तारे प्रकाशित होते रहें। वसिष्ठनन्दिनि नन्दे ! तुम देहधारियों को आयु, सम्पूर्ण मनोरथ तथा लक्ष्मी प्रदान करो। तुम्हें प्रासाद में सदा स्थित रहकर यत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिये । ॐ कश्यपनन्दिनि भद्रे ! तुम सदा समस्त लोकों का कल्याण करो। देवि! तुम सदा ही हमें आयु मनोरथ और लक्ष्मी प्रदान करती रहो। ॐ देवि जये! तुम सदा-सर्वदा हमारे लिये लक्ष्मी तथा आयु प्रदान करनेवाली होओ। भृगुपुत्रि देवि जये ! तुम स्थापित होकर सदा यहीं रहो और इस मन्दिर के अधिष्ठाता मुझ यजमान को नित्य निरन्तर विजय तथा ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली बनो। ॐ रिक्ते! तुम अतिरिक्त दोष का नाश करनेवाली तथा सिद्धि और मोक्ष प्रदान करनेवाली हो। शुभे ! सम्पूर्ण देश-काल में तुम्हारा निवास है। ईशरूपिणि! तुम सदा इस प्रासाद में स्थित रहो’ ॥ ९-१६ ॥

तत्पश्चात् आकाशस्वरूप मन्दिर का ध्यान करके उसमें तीन तत्त्वों का न्यास करे। फिर विधिवत् प्रायश्चित्त होम करके यज्ञ का विसर्जन करे ॥ १७ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘शिलान्यास की विधि का वर्णन’ नामक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९४ ॥

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