June 28, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 184 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ चौरासीवाँ अध्याय अष्टमी-सम्बन्धी विविध व्रत अष्टमीव्रतानि अग्निदेव कहते हैं — मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ ! चैत्रमास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को व्रत करे और उस दिन ब्रह्मा आदि देवताओं तथा मातृगणों का जप-पूजन करे। कृष्णपक्ष की अष्टमी को एक वर्ष श्रीकृष्ण की पूजा करके मनुष्य संतानरूप अर्थ की प्राप्ति कर लेता है ॥ १ ॥ अब मैं ‘कालाष्टमी’ का वर्णन करता हूँ। यह व्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को करना चाहिये। रात्रि होने पर व्रत करने वाला स्नानादि से पवित्र हो, भगवान् ‘शंकर’ का पूजन करके गोमूत्र से व्रत का पारण करे। रात्रि को भूमि पर शयन करे। पौष मास में ‘शम्भु’ का पूजन करके घृत का आहार तथा माघ में ‘महेश्वर’ की अर्चना करके दुग्ध का पान करे। फाल्गुन में ‘महादेव’ की पूजा करके अच्छी प्रकार उपवास करने के बाद तिल का भोजन करे। चैत्र में ‘स्थाणु’ का पूजन करके जौ का भोजन करे। वैशाख में ‘शिव’ की पूजा करे और कुशजल से पारण करे। ज्येष्ठ में ‘पशुपति’ का पूजन करके शृङ्गजल (झरने के जल) का पान करे। आषाढ़ में ‘उग्र’ की अर्चना करके गोमय का भक्षण और श्रावण में ‘शर्व’ का पूजन करके मन्दार के पुष्प का भक्षण करे। भाद्रपद में रात्रि के समय ‘ त्र्यम्बक’ का पूजन करके बिल्वपत्र का भक्षण करे। आश्विन में ‘ईश’ की अर्चना करके चावल और कार्तिक में ‘रुद्र’ का पूजन करके दधि का भोजन करे। वर्ष की समाप्ति होनेपर होम करे और सर्वतो (लिङ्गतो)- भद्र का निर्माण करके उसमें भगवान् शंकर का पूजन करे। तदनन्तर आचार्य को गौ, वस्त्र और सुवर्ण का दान करे। अन्य ब्राह्मणों को भी उन्हीं वस्तुओं का दान करे। ब्राह्मणों को आमन्त्रित करके भोजन कराकर मनुष्य भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ २-७१/२ ॥ ‘ प्रत्येक मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तिथियों को रात्रि में भोजन करे और वर्ष के पूर्ण होने पर गोदान करे। इससे मनुष्य इन्द्रपद को प्राप्त कर लेता है। यह ‘स्वर्गति व्रत’ कहा जाता है। कृष्ण अथवा शुक्ल – किसी भी पक्ष में अष्टमी को बुधवार का योग हो, उस दिन व्रत रखे और एक समय भोजन करे। जो मनुष्य अष्टमी का व्रत करते हैं, उनके घर में कभी सम्पत्ति का अभाव नहीं होता। दो अँगुलियाँ छोड़कर आठ मुट्ठी चावल ले और उसका भात बनाकर कुशयुक्त आम्रपत्र के दोने में रखे। कुलाम्बिकासहित बुध का पूजन करना चाहिये और ‘बुधाष्टमी व्रत की कथा सुनकर भोजन करे। तदनन्तर ब्राह्मण को ककड़ी और चावलसहित यथाशक्ति दक्षिणा दे ॥ ८-१२ ॥ (‘बुधाष्टमी व्रत की कथा निम्नलिखित है —) धीर नामक एक ब्राह्मण था उसकी पत्नी का नाम था रम्भा और पुत्र का नाम कौशिक था। उसके एक पुत्री भी थी, जिसका नाम विजया था। उस ब्राह्मण के धनद नाम का एक बैल था। कौशिक उस बैल को ग्वालों के साथ चराने को ले गया। कौशिक गङ्गा में स्नानादि कर्म करने लगा, उस समय चोर बैल को चुरा ले गये। कौशिक जब नदी से नहाकर निकला, तब बैल को वहाँ न पाकर अपनी बहिन विजया के साथ उसकी खोज में चल पड़ा। उसने एक सरोवर में देवलोक की स्त्रियों का समूह देखा और उनसे भोजन माँगा । इस पर उन स्त्रियों ने कहा — ‘आप आज हमारे अतिथि हुए हैं, इसलिये व्रत करके भोजन कीजिये।’ तदनन्तर कौशिक ने ‘बुधाष्टमी का व्रत करके भोजन किया। उधर धीर वनरक्षक के पास पहुँचा और अपना बैल लेकर विजया के साथ लौट आया। धीर ब्राह्मण ने यथासमय विजया का विवाह कर दिया और स्वयं मृत्यु के पश्चात् यमलोक को प्राप्त हुआ। परंतु कौशिक व्रत के प्रभाव से अयोध्या का राजा हुआ। विजया अपने माता-पिता को नरक की यातना भोगते देख यमराज के शरणापन्न हुई। कौशिक जब मृगया के उद्देश्य से वन में आया, तब उसने पूछा — ‘मेरे माता-पिता नरक से मुक्त कैसे हो सकते हैं ?’ उस समय यमराज ने वहाँ प्रकट होकर कहा — ‘बुधाष्टमी के दो व्रतों के फल से। ‘ तब कौशिक ने अपने माता-पिता के उद्देश्य से दो बुधाष्टमी व्रतों का फल दिया। इससे उसके माता- पिता स्वर्ग में चले गये। तदनन्तर विजया ने भी हर्षित होकर भोग- मोक्षादि की सिद्धि के लिये इस व्रत का अनुष्ठान किया ॥ १३–२०१/२ ॥ वसिष्ठ ! चैत्र मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को जब पुनर्वसु नक्षत्र का योग हो, उस समय जो मनुष्य अशोक-पुष्प की आठ कलिकाओं का रस- पान करते हैं, वे कभी शोक को प्राप्त नहीं होते । (कलिकाओं का रसपान निम्नलिखित मन्त्र से करना चाहिये) — त्वामशोकहराभीष्ट मधुमाससमुद्भगव ॥ २२ ॥ पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु । ‘चैत्र मास में विकसित होनेवाले अशोक! तुम भगवान् शंकर के प्रिय हो। मैं शोक से संतप्त होकर तुम्हारी कलिकाओं का पान करता हूँ। अपनी ही तरह मुझे भी सदा के लिये शोकरहित कर दो।’ चैत्रादि मासों की अष्टमी को मातृगण की पूजा करनेवाला मनुष्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है ॥ २१-२३ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘अष्टमी के विविध व्रतों का वर्णन’ नामक एक सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८४ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe