June 30, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 200 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ दो सौवाँ अध्याय दीपदान – व्रत की महिमा एवं विदर्भराजकुमारी ललिता का उपाख्यान दीपदानव्रतं अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले ‘दीपदान व्रत ‘का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य देवमन्दिर अथवा ब्राह्मण के गृह में एक वर्ष तक दीपदान करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। चातुर्मास्य में दीपदान करने वाला विष्णुलोक को और कार्तिक में दीपदान करने वाला स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। दीपदान से बढ़कर न कोई व्रत है, न था और न होगा ही। दीपदान से आयु और नेत्रज्योति की प्राप्ति होती है। दीपदान से धन और पुत्रादि की भी प्राप्ति होती है। दीपदान करने वाला सौभाग्ययुक्त होकर स्वर्गलोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है। विदर्भराजकुमारी ललिता दीपदान के पुण्य से ही राजा चारुधर्मा की पत्नी हुई और उसकी सौ रानियों में प्रमुख हुई। उस साध्वी ने एक बार विष्णुमन्दिर में सहस्र दीपों का दान किया। इस पर उसकी सपत्नियों ने उससे दीपदान का माहात्म्य पूछा। उनके पूछने पर उसने इस प्रकार कहा- ॥ १-५ ॥ ‘ ललिता बोली — पहले की बात है, सौवीरराज के यहाँ मैलेय नामक पुरोहित थे। उन्होंने देवि का नदी के तट पर भगवान् श्रीविष्णु का मन्दिर बनवाया। कार्तिक मास में उन्होंने दीपदान किया। बिलाव के डर से भागती हुई एक चुहिया ने अकस्मात् अपने मुख के अग्रभाग से उस दीपक की बत्ती को बढ़ा दिया। बत्ती के बढ़ने से वह बुझता हुआ दीपक प्रज्वलित हो उठा। मृत्यु के पश्चात् वही चुहिया राजकुमारी हुई और राजा चारुधर्मा की सौ रानियों में पटरानी हुई। इस प्रकार मेरे द्वारा बिना सोचे- समझे जो विष्णुमन्दिर के दीपक की वर्तिका बढ़ा दी गयी, उसी पुण्य का मैं फल भोग रही हूँ। इसी से मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी है। इसलिये मैं सदा दीपदान किया करती हूँ। एकादशी को दीपदान करने वाला स्वर्गलोक में विमान पर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है। मन्दिर का दीपक हरण करने वाला गूँगा अथवा मूर्ख हो जाता है। वह निश्चय ही ‘अन्धतामिस्र’ नामक नरक में गिरता है, जिसे पार करना दुष्कर है। वहाँ रुदन करते हुए मनुष्यों से यमदूत कहता है — “अरे ! अब यहाँ विलाप क्यों करते हो? यहाँ विलाप करने से क्या लाभ है ? पहले तुमलोगों ने प्रमादवश सहस्रों जन्मों के बाद प्राप्त होनेवाले मनुष्य- जन्म की उपेक्षा की थी। वहाँ तो अत्यन्त मोहयुक्त चित्त से तुमने भोगों के पीछे दौड़ लगायी। पहले तो विषयों का आस्वादन करके खूब हँसे थे, अब यहाँ क्यों रो रहे हो? तुमने पहले ही यह क्यों नहीं सोचा कि किये हुए कुकर्मों का फल भोगना पड़ता है। पहले जो परनारी का कुचमर्दन तुम्हें प्रीतिकर प्रतीत होता था, वही अब तुम्हारे दुःख का कारण हुआ है। मुहूर्तभर का विषयों का आस्वादन अनेक करोड़ वर्षों तक दुःख देनेवाला होता है। तुमने परस्त्री का अपहरण करके जो कुकर्म किया, वह मैंने बतलाया। अब ‘हा! मातः’ कहकर विलाप क्यों करते हो? भगवान् श्रीहरि के नाम का जिह्वा से उच्चारण करने में कौन- सा बड़ा भार है ? बत्ती और तेल अल्प मूल्य की वस्तुएँ हैं और अग्नि तो वैसे ही सदा सुलभ है। इस पर भी तुमने दीपदान न करके विष्णु- मन्दिर के दीपक का हरण किया, वही तुम्हारे लिये दुःखदायी हो रहा है। विलाप करने से क्या लाभ? अब तो जो यातना मिल रही हैं, उसे सहन करो” ॥ ६-१८ ॥ अग्निदेव कहते हैं — ललिता की सौतें उसके द्वारा कहे हुए इस उपाख्यान को सुनकर दीपदान के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त हो गयीं। इसलिये दीपदान सभी व्रतों से विशेष फलदायक है ॥ १९ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘दीपदान की महिमा का वर्णन’ नामक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २०० ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe