ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 37
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
सैंत्तीसवाँ अध्याय
दशाक्षरी महाविद्या तथा काली कवच का वर्णन

नारदजी ने कहा — सर्वज्ञ नाथ ! अब मैं आपके मुख से भद्रकाली कवच तथा उस दशाक्षरी महाविद्या को सुनना चाहता हूँ ।

श्रीनारायण बोले — नारद! मैं दशाक्षरी महाविद्या तथा तीनों लोकों में दुर्लभ उस गोपनीय कवच का वर्णन करता हूँ, सुनो। ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’ यही दशाक्षरी महाविद्या है। इसे पुष्करतीर्थ में सूर्य ग्रहण के अवसर पर दुर्वासा ने राजा को दिया था । उस समय राजा ने दस लाख जप करके मन्त्र सिद्ध किया और इस उत्तम कव चके पाँच लाख जप से ही वे सिद्ध-कवच हो गये । तत्पश्चात् वे अयोध्या में लौट आये और इसी कवच की कृपा से उन्होंने सारी पृथ्वी को जीत लिया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारदजी ने कहा — प्रभो ! जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, उस दशाक्षरी महाविद्या को तो मैंने सुन लिया। अब मैं कवच सुनना चाहता हूँ, वह मुझसे वर्णन कीजिये ।

॥ कालीकवचम् ॥

॥ नारायण उवाच ॥
शृणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परमाद्‌भुतम् ।
नारायणेन यद्‌दत्तं कृपया शूलिने पुरा ॥ ७ ॥
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च ।
तदेव शूलिना दत्तं पूरा दुर्वाससे मुने ॥ ८ ॥
दुर्वाससा च यद्‌दत्तं सुचन्द्राय महात्मने ।
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रोघविग्रहम् ॥ ९ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदाऽवतु ।
क्लीं कालिके रक्ष स्वाहा दन्तान्सदाऽवतु ॥ ११ ॥
क्लीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम् ।
ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ॥ १२ ॥
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहाकर्णयुग्मं सदाऽवतु ।
ॐ क्रीं क्रीं क्ली काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम ॥ १३ ॥
ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः सदाऽवतु ।
ॐ क्लीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदाऽवतु ॥ १४ ॥
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्ठं सदाऽवतु ।
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदाऽवतु ॥ १५ ॥
ॐ हीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्‌गं मे सदाऽवतु ॥ १६ ॥
प्राच्यां पातु महाकाली चाग्नेय्यां रक्तदन्तिका ।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातुकालिका ॥ १७ ॥
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका ।
उत्तरे विकटास्या चाप्यैशान्यां साट्टहासिनी ॥ १८ ॥
पातूर्ध्वं लोलजिह्वा सा मायाद्या पात्वधः सदा ।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसूः सदा ॥ १९ ॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम् ॥ २० ॥
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादतः ।
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपतिः ॥ २१ ॥
प्रचेता लोमशश्चैव यतः सिद्धो बभूव ह ।
यतो हि योगिनां श्रेष्ठः सौभरिः पिप्पलायनः ॥ २२ ॥
यदि स्यात्सिद्धकवचः सर्वसिद्धेश्वरो भवेत् ।
महादानानि सर्वाणि तपांस्येवं व्रतानि च ।
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २३ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत्कालीं जगत्प्रसूम् ।
शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ २४ ॥

श्रीनारायण बोले — विप्रेन्द्र ! पूर्वकाल में त्रिपुर-वध के भयंकर अवसर पर शिव की विजय के लिये नारायण ने कृपा करके शिव को जो परम अद्भुत कवच प्रदान किया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। मुने! वह कवच अत्यन्त गोपनीयों से भी गोपनीय तत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है । उसी को पूर्वकाल में शिवजी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा सुचन्द्र को प्रदान किया था ।

‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे । ‘क्लीं’ कपाल की तथा ‘ह्रीं ह्रीं ह्रीं’ नेत्रोंकी रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा’ सदा मेरी नासिका की रक्षा करे । ‘क्रीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा’ सदा दाँतों की रक्षा करे । ‘ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा’ मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’ सदा कण्ठ की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा’ सदा दोनों कानों की रक्षा करें। ‘ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा’ सदा मेरे कंधों की रक्षा करे । ‘ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा’ सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे । ‘ॐ क्रीं कालिकायै स्वाहा’ सदा मेरी नाभि की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा’ सदा मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करे । ‘रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा’ सदा हाथों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा’ सदा पैरों की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा’ सदा मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करे । पूर्व में ‘महाकाली’ और अग्निकोण में ‘रक्तदन्तिका’ रक्षा करें। दक्षिण में चामुण्डा रक्षा करें। नैऋत्यकोण में ‘कालिका’ रक्षा करें। पश्चिम में ‘श्यामा’ रक्षा करें। वायव्यकोण में ‘चण्डिका‘, उत्तर में ‘विकटास्या’ और ईशानकोण में ‘अट्टहासिनी’ रक्षा करें। ऊर्ध्वभाग में ‘लोलजिह्वा‘ रक्षा करें। अधोभाग में सदा ‘आद्यामाया’ रक्षा करें। जल, स्थल और अन्तरिक्ष में सदा ‘विश्वप्रसू’ रक्षा करें।

वत्स! यह कवच समस्त मन्त्रसमूह का मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचों का सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है; इसे मैंने तुम्हें बतला दिया । इसी कवच की कृपा से राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे। इसी कवच के प्रभाव से पृथ्वीपति मान्धाता सप्तद्वीपवती पृथ्वी के अधिपति हुए थे। इसी के बल से प्रचेता और लोमश सिद्ध हुए थे तथा इसी के बल से सौभरि और पिप्पलायन योगियों में श्रेष्ठ कहलाये । जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है । जो इस कवच को जाने बिना जगज्जननी काली का भजन करता है, उसके लिये एक करोड़ जप करने पर भी यह मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।   (अध्याय ३७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे भद्रकालीकवचनिरूपणं नाम संप्तत्रिशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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