ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 39
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
उनतालीसवाँ अध्याय
दुर्गा कवच का वर्णन

नारदजी ने कहा प्रभो ! महालक्ष्मी के मनोहर कवच का वर्णन तो आपने कर दिया। ब्रह्मन् ! अब दुर्गतिनाशिनी दुर्गा के उस उत्तम कवच को बतलाइये, जो पद्माक्ष के प्राणतुल्य, जीवनदाता, बल का हेतु, कवचों का सार तत्त्व और दुर्गा की सेवा का मूल कारण है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

॥ ब्रह्माण्ड-विजय दुर्गा-कवच ॥
॥ नारायण उवाच ॥
शृणु नारद वक्ष्यामि दुर्गायाः कवचं शुभम् ।
श्रीकृष्णेनैव यद्‌दत्तं गोलोके ब्रह्मणे पुरा ॥ ३ ॥
ब्रह्मा त्रिपुरसंग्रामे शंकराय ददौ पुरा ।
जघान त्रिपुरं रुद्रो यद्धृत्वा भक्तिपूर्वकम् ॥ ४ ॥
हरो ददौ गौतमाय पद्माक्षाय च गौतमः ।
यतो बभूव पद्माक्षः सप्तद्वीपेश्वरो जयी ॥ ५ ॥
यच्छ्रुत्वा पठनाद्‌ब्रह्मा ज्ञानवाञ्छक्तिमान्भुवि ।
शिवो बभूव सर्वज्ञो योगिनां च गुरुर्यतः ।
शिवतुल्यो गौतमश्च बभूव मुनिसत्तमः ॥ ६ ॥
ब्रह्माण्डविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी दुर्गतिनाशिनो ॥ ७ ॥
ब्रह्माण्डविजये चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ।
पुण्यतीर्थं च महतां कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
ॐ ह्रीं मे पातु कपालं चाप्यों ह्रीं श्रीं पातुलोचने ॥ ९ ॥
पातु मे कर्णयुग्मं चाप्यों दुर्गायै नमः सदा ।
ॐ ह्रीं श्रीमिति नासां मे सदा पातु च सर्वतः ॥ १० ॥
ह्रीं श्रीं ह्रूमिति दन्तांश्चपातु क्लीमोष्ठयुग्मकम् ।
क्लीं क्लीं क्लीं पातु कण्ठं च दुर्गे रक्षतुगण्डके ॥ ११ ॥
स्कन्धं महाकालि दुर्गे स्वाहा पातु निरन्तरम् ।
वक्षो विपद्विनाशिन्यै स्वाहा मे पातु सर्वतः ॥ १२ ॥
दुर्गे दुर्गे रक्ष पाश्वौ स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।
दुर्गे दुर्गे देहि रक्षां पृष्ठं मे पातु सर्वतः ॥ १३ ॥
ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च हस्तौ पादौ सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च सर्वाङ्‌गं मे सदाऽवतु ॥ १४ ॥
प्राच्यां पातु महामाया चाऽऽग्नेय्यां पातु कालिका ।
दक्षिणे दक्षकन्या च नैर्ऋत्यां शिवसुन्दरी ॥ १५ ॥
पश्चिमे पार्वती पातु वाराही वारुणे सदा ।
कुबेरमाता कौबेर्यामैशान्यामीश्वरी सदा ॥ १६ ॥
ऊर्ध्वं नारायणी पातु त्वम्बिकाऽधः सदाऽवतु ।
ज्ञानं ज्ञानप्रदा पातु स्वप्ने निद्रा सदाऽवतु ॥ १७ ॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
ब्रह्माण्डविजयं नाम कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ १८॥
सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत्फलम् ।
सर्वव्रतोपवासे च तत्फलं लभते नरः ॥ १९ ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारक्तदनैः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ कवचं धारयेत्तु यः ॥ २० ॥
स च त्रैलोक्यविजयी सर्वशत्रुप्रमर्दकः ॥ २१ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेद्‌दुर्गतिनाशिनीम् ।
शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ २२॥
कवचं कण्वशाखोक्तमुक्तं नारद सिद्धिदम् ।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं सदुर्लभम् ॥ २३ ॥

श्रीनारायण बोले — नारद! प्राचीन काल में श्रीकृष्ण ने गोलोक में ब्रह्मा को दुर्गा का जो शुभप्रद कवच दिया था, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो। पूर्वकाल में त्रिपुर-संग्राम के अवसर पर ब्रह्माजी ने इसे शंकर को दिया, जिसे भक्तिपूर्वक धारण करके रुद्र ने त्रिपुर का संहार किया था। फिर शंकर ने इसे गौतम को और गौतम ने पद्माक्ष को दिया, जिसके प्रभाव से विजयी पद्माक्ष सातों द्वीपों का अधिपति हो गया। जिसके पढ़ने एवं धारण करने से ब्रह्मा भूतल पर ज्ञानवान् और शक्तिसम्पन्न हो गये। जिसके प्रभाव से शिव सर्वज्ञ और योगियों के गुरु हुए और मुनिश्रेष्ठ गौतम शिव-तुल्य माने गये। इस ‘ब्रह्माण्डविजय’ नामक कवच के प्रजापति ऋषि हैं। गायत्री छन्द है । दुर्गतिनाशिनी दुर्गा देवी हैं और ब्रह्माण्डविजय के लिये इसका विनियोग किया जाता है । यह परम अद्भुत कवच महापुरुषों का पुण्यतीर्थ है।

‘ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं’ मेरे कपाल की और ‘ॐ ह्रीं श्रीं’ नेत्रों की रक्षा करे। ‘ॐ दुर्गायै नमः ‘ सदा मेरे दोनों कानों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं श्रीं’ सदा सब ओर से मेरी नासिका की रक्षा करे । ‘ह्रीं श्रीं हूं’ दाँतों की और ‘क्लीं‘ दोनों ओष्ठों की रक्षा करे । ‘क्रीं क्रीं क्रीं’ कण्ठ की रक्षा करे । ‘दुर्गे’ कपोलों की रक्षा करे । ‘दुर्गविनाशिन्यै स्वाहा’ निरन्तर कंधों की रक्षा करे । ‘विपद्विनाशिन्यै स्वाहा’ सब ओर से मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे । ‘दुर्गे दुर्गे रक्षणीति स्वाहा’ सदा नाभि की रक्षा करे । ‘दुर्गे दुर्गे रक्ष रक्ष’ सब ओर से मेरी पीठ की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा’ सदा हाथ-पैरों की रक्षा करे। ‘ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा’ सदा मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करे । पूर्व में ‘महामाया’ रक्षा करे। अग्निकोण में ‘कालिका‘, दक्षिण में ‘दक्षकन्या’ और नैर्ऋत्यकोण में ‘शिवसुन्दरी’ रक्षा करे । पश्चिम में ‘पार्वती’, वायव्यकोण में ‘वाराही’, उत्तर में ‘कुबेरमाता’ और ईशानकोण में ‘ईश्वरी’ सदा-सर्वदा रक्षा करें। ऊर्ध्वभाग में ‘नारायणी’ रक्षा करें और अधोभाग में सदा ‘अम्बिका’ रक्षा करें। जाग्रत् काल में ‘ज्ञानप्रदा’ रक्षा करें और सोते समय ‘निद्रा’ सदा रक्षा करें।

वत्स! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह ‘ब्रह्माण्डविजय’ नामक कवच बतला दिया। यह परम अद्भुत तथा सम्पूर्ण मन्त्र-समुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है । समस्त तीर्थों में भली-भाँति गोता लगाने से, सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान करने से तथा सभी प्रकार के व्रतोपवास करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल मनुष्य इस कवच के धारण करने से पा लेता है । जो विधिपूर्वक वस्त्र, अलंकार और चन्दन से गुरु की पूजा करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करनेवाला तथा त्रिलोक-विजयी होता है । जो इस कवच को न जानकर दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का भजन करता है, उसके लिये एक करोड़ जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता। नारद ! यह काण्वशाखोक्त सुन्दर कवच, जिसका मैंने वर्णन किया है, परम गोपनीय तथा अत्यन्त दुर्लभ है। इसे जिस किसी को नहीं देना चाहिये । (अध्याय ३९)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गतिनाशिनीकवचं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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