ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 44
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौवालीसवाँ अध्याय
पार्वती की शिव से प्रार्थना, परशुराम को देखकर उन्हें मारने के लिये उद्यत होना, परशुराम द्वारा इष्टदेव का ध्यान, भगवान्‌ का वामनरूप से पधारना, शिव-पार्वती को समझाना और नामाष्टक-गणेश-स्तोत्र को प्रकट करना

पार्वती ने कहा — प्रभो ! जगत् में सभी लोग शंकर की किंकरी मुझ दुर्गा को जानते हैं कि यह अपेक्षारहित दासी है, उसका जीवन व्यर्थ है । परंतु ईश्वर के लिये तृण से लेकर पर्वत-पर्यन्त सभी जातियाँ समान हैं; अतः दासी-पुत्र गणेश और आपके शिष्य परशुराम — इन दोनों में किसका दोष है, इस पर विचार करना उचित है; क्योंकि आप धर्मज्ञों में श्रेष्ठ हैं । वीरभद्र, कार्तिकेय और पार्षदगण इसके साक्षी हैं। भला, गवाही के काम में झूठ कौन कहेगा । साथ ही ये दोनों भाई इन लोगों के लिये समान हैं। यों तो धर्म-निर्णय के अवसर पर गवाही देते समय सत्पुरुषों के लिये शत्रु और मित्र समान हो जाते हैं (अर्थात् उनकी पक्षपात की भावना नहीं रहती); क्योंकि जो गवाह गवाही के विषय को ठीक-ठीक जानते हुए भी सभा में काम, क्रोध, लोभ अथवा भय के कारण झूठी गवाही देता है, वह अपनी सौ पीढ़ियों को नरक में गिराकर स्वयं भी कुम्भीपाक नरक में जाता है । यद्यपि मैं इन दोनों को समझाने तथा इसका निर्णय करने में समर्थ हूँ, तथापि आपके समक्ष मेरा आज्ञा देना श्रुति में निन्दित कहा गया है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

प्रभो ! सभा में राजा के वर्तमान रहते भृत्यों की प्रभा का उसी प्रकार मूल्य नहीं होता, जैसे सूर्य के उदय होने पर पृथ्वी पर जुगनू की कोई गणना नहीं होती । सदा परित्याग के भय से डरी हुई मैंने चिरकाल तक तपस्या करके आपके चरणकमलों को पाया है; अतः जगन्नाथ ! दारुण पुत्र-स्नेह के कारण क्रोध, शोक और मोह के वशीभूत होकर मैंने जो कुछ कहा है, उसे क्षमा कीजिये। यदि आपने मेरा परित्याग कर दिया तो उस पुत्र से क्या लाभ ? क्योंकि उत्तम कुल में उत्पन्न हुई पतिव्रता नारी के लिये पति सौ पुत्रों से बढ़कर है। जो नारी नीच कुल में उत्पन्न, दुष्ट-स्वभाव वाली, ज्ञानहीन और माता-पिता के दोष से निन्दित होती है, वह अपने पति को नहीं मानती ।

कुत्सितं पतितं मूढं दरिद्रं रोगिणं जडम् ।
कुलजा विष्णुतुल्यं च कान्तं पश्यति संततम् ॥ १३ ॥
हुताशनो वा सूर्यो वा सर्वतेजस्विनां वरः ।
पतिव्रतातेजसश्च कलां नार्हति षोडशीम् ॥ १४ ॥
महादानानि पुण्यानि व्रतान्यनशनानि च ।
तपांसि पतिसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १५ ॥

उत्तम कुल में पैदा हुई स्त्री अपने निन्दित, पतित, मूर्ख, दरिद्र, रोगी और जड पति को भी सदा विष्णु के समान समझती है । समस्त तेजस्वियों में श्रेष्ठ अग्नि अथवा सूर्य पतिव्रता की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते। महादान, पुण्यप्रद व्रतोपवास और तप- ये सभी पति सेवा के सोलहवें अंश की समता करने के योग्य नहीं हैं । उत्तम कुल में जन्म लेने वाली स्त्रियों के लिये चाहे पुत्र हो, पिता हो अथवा सहोदर भाई हो, कोई भी पति के समान नहीं होता।

स्वामी से इतना कहकर दुर्गा ने अपने सामने परशुराम को देखा, जो निर्भय होकर शम्भु के चरणकमलों की सेवा कर रहे थे। तब पार्वती उनसे बोलीं ।

पार्वती ने कहा हे महाभाग राम! तुम ब्रह्मवंश में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी बुद्धि सदसत् का विवेचन करनेवाली है। तुम जमदग्नि के पुत्र और योगियों के गुरु इन महादेव के शिष्य हो । सती-साध्वी रेणुका, जो लक्ष्मी के अंश से उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हैं, तुम्हारी माता हैं । तुम्हारे नाना विष्णुभक्त और मामा उनसे भी बढ़कर वैष्णव हैं। तुम मनु के वंश में उत्पन्न हुए राजा रेणुक के दौहित्र हो । साधुस्वभाव वाले शूरवीर राजा विष्णुयशा तुम्हारे मामा हैं । तुम किसके दोष से ऐसे दुर्धर्ष हो गये हो? इस अशुद्धि का कारण मुझे ज्ञात नहीं हो रहा है; क्योंकि जिनके दोष से मनुष्य दूषित हो जाता है, तुम्हारे वे सभी सम्बन्धी शुद्ध मन वाले हैं ।

तुमने करुणासागर गुरु और अमोघ फरसा पाकर पहले क्षत्रिय-जाति पर परीक्षा करके पुनः गुरु-पुत्र पर परीक्षा की है । कहाँ तो श्रुति में ‘गुरु को दक्षिणा देना उचित है’ — यों सुना जाता है और कहाँ तुमने गुरुपुत्र के दाँत को ही तोड़ दिया, अब उसका मस्तक भी काट डालो। शंकर के वरदान तथा अमोघवीर्य फरसे से तो चूहों को खाने वाला सियार सिंह और शार्दूल को भी मार सकता है। जितेन्द्रिय पुरुषों में श्रेष्ठ गणेश तुम्हारे जैसे लाखों- करोड़ों जन्तुओं को मार डालने की शक्ति रखता है, परंतु वह मक्खी पर हाथ नहीं उठाता । श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुआ यह गणेश तेज में श्रीकृष्ण के ही समान है । अन्य देवता श्रीकृष्ण की कलाएँ हैं । इसी से इसकी अग्रपूजा होती है ।

यों कहकर पार्वती क्रोधवश उन परशुराम को मारने के लिये उद्यत हो गयीं। तब परशुराम ने मन-ही-मन गुरु को प्रणाम करके अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण का स्मरण किया । इतने में ही दुर्गा ने अपने सामने एक अत्यन्त बौने ब्राह्मण-बालक को उपस्थित देखा । उसकी कान्ति करोड़ों सूर्यों के समान थी । उसके दाँत स्वच्छ थे। वह शुक्ल वस्त्र, शुक्ल यज्ञोपवीत, दण्ड, छत्र और ललाट पर उज्ज्वल तिलक धारण किये हुए था। उसके गले में तुलसी की माला पड़ी थी। उसका रूप परम मनोहर था, मुख पर मन्द मुसकान थी और वह रत्नों के बाजूबंद, कङ्कण और रत्नमाला से विभूषित था। पैरों में रत्नों के नूपुर थे । मस्तक पर बहुमूल्य रत्नों के मुकुट की उज्ज्वल छटा थी और कपोलों पर रत्ननिर्मित दो कुण्डल झलमला रहे थे, जिससे उसकी विशेष शोभा हो रही थी । वह भक्तों का ईश और भक्तवत्सल था तथा भक्तों को बायें हाथ से स्थिरमुद्रा और दाहिने हाथ से अभयमुद्रा दिखा रहा था। उसके साथ नगर के हँसते हुए बालक और बालिकाओं का समूह था और कैलासवासी आबालवृद्ध सभी उसकी ओर हर्षपूर्वक देख रहे थे। उस बालक को देखकर पुत्रों तथा भृत्यों सहित शम्भु ने घबराकर भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम किया। तत्पश्चात् दुर्गा ने भी दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर नमस्कार किया । तब बालक ने सबको अभीष्टप्रद आशीर्वाद दिया ।

उसे देखकर सभी बालक भय के कारण महान् आश्चर्य में पड़ गये । तदनन्तर शिवजी ने भक्तिपूर्वक उसे षोडशोपचार समर्पित करके उस परिपूर्णतम की वेदोक्त-विधि से पूजा की और फिर सिर झुकाकर काण्वशाखा में कहे हुए स्तोत्र द्वारा उन सनातन भगवान् की स्तुति की। उस समय उनके सर्वाङ्ग में रोमाञ्च हो आया था । पुनः जो रत्नसिंहासन पर आसीन थे और अपने उत्कृष्ट तेज से जिन्होंने सबको आच्छादित कर रखा था, उन वामन-भगवान् से स्वयं शंकरजी कहने लगे ।

शंकरजी ने कहा — ब्रह्मन् ! जो आत्माराम हैं, उनके विषय में कुशलप्रश्न करना अत्यन्त विडम्बना की बात है; क्योंकि वे स्वयं कुशल के आधार और कुशल-अकुशल के प्रदाता हैं। श्रीकृष्ण की सेवा के फलोदय से आज आप जो मुझे अतिथिरूप से प्राप्त हुए हैं, इससे मेरा जन्म सफल और जीवन धन्य हो गया । कृपासागर परिपूर्णतम श्रीकृष्ण लोगों के उद्धार के लिये पुण्यक्षेत्र भारत में अपनी कला से अवतीर्ण हुए हैं। जिसने अतिथि का आदर-सत्कार किया है, उसने मानो सम्पूर्ण देवताओं की पूजा कर ली; क्योंकि जिस पर अतिथि प्रसन्न हो जाता है, उस पर स्वयं श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं । समस्त तीर्थों में स्नान करने से, सर्वस्व दान करने से, सभी प्रकार के व्रतोपवास से, सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षा ग्रहण करने से, सभी प्रकार की तपस्याओं से और नित्य-नैमित्तिकादि विविध कर्मानुष्ठानों से जो फल प्राप्त होता है — वह अतिथि-सेवा की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकता। अतिथि जिसके गृह से निराश एवं रुष्ट होकर चला जाता है, उसका पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है।

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! शंकर के वचन सुनकर जगत्पति स्वयं श्रीहरि संतुष्ट हो गये और मेघ के समान गम्भीर वाणी द्वारा उनसे बोले ।

विष्णु ने कहा —शिवजी ! आप लोगों के कोलाहल को जानकर कृष्णभक्त परशुराम की रक्षा करने के लिये इस समय मैं श्वेतद्वीप से आ रहा हूँ; क्योंकि इन कृष्ण-भक्तों का कहीं अमङ्गल नहीं होता। गुरु को अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं में मैं हाथ में चक्र लेकर उनकी रक्षा करता रहता हूँ । गुरु के रुष्ट होने पर मैं रक्षा नहीं करता; क्योंकि गुरु की अवहेलना बलवती होती है। जो गुरु की सेवा से हीन है, उससे बढ़कर पापी दूसरा नहीं है । अहो ! जिसकी कृपा से मानव सब कुछ देखता है, वह पिता सबके लिये सबसे बढ़कर माननीय और पूजनीय होता है। वह मनुष्यों के जन्म देने के कारण जनक, रक्षा करने के कारण पिता और विस्तीर्ण करने के कारण कलारूप से प्रजापति है उस पिता से माता गर्भ में धारण करने एवं पालन- पोषण करने से सौगुनी बढ़कर वन्दनीया, पूज्या और मान्या है। वह प्रसव करने वाली वसुन्धरा के समान है। अन्नदाता माता से भी सौगुना वन्दनीय, पूज्य और मान्य है; क्योंकि अन्न के बिना शरीर नष्ट हो जाता है और विष्णु ही कलारूप से अन्नदाता होते हैं । अभीष्टदेव अन्नदाता से भी सौगुना श्रेष्ठ कहा जाता है। किंतु विद्या और मन्त्र प्रदान करनेवाला गुरु अभीष्टदेव से भी सौगुना बढ़कर है।

जो अज्ञानरूपी अन्धकार से आच्छादित समस्त पदार्थों को ज्ञानदीपकरूपी नेत्र से दिखलाता है, उससे बढ़कर बान्धव कौन है ? गुरु द्वारा दिये गये मन्त्र और तप से अभीष्ट सुख, सर्वज्ञता और समस्त सिद्धियों की प्राप्ति होती है; अतः गुरु से बढ़कर बान्धव दूसरा कौन है ? गुरु द्वारा दी गयी विद्या के बल से मनुष्य सर्वत्र समय पर विजयी होता है, इसलिये जगत् में गुरु से बढ़कर पूज्य और उनसे अधिक प्रिय बन्धु कौन हो सकता है ? जो मूर्ख विद्यामद अथवा धनमद से अंधा होकर गुरु की सेवा नहीं करता, वह ब्रह्महत्या आदि पापों से पापों का भागी होता है; इसमें संशय नहीं है । जो दरिद्र, पतित एवं क्षुद्र गुरु के साथ साधारण मानव की भाँति आचरण करता है, वह तीर्थ-स्नायी होने पर भी अपवित्र है और उसका कर्मों के करने में अधिकार नहीं है।

शिव ! जो छल-कपट करके माता, पिता, भार्या, गुरुपत्नी और गुरुका पालन-पोषण नहीं करता, वह महान् पापी है। गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही महेश्वरदेव, गुरु ही परब्रह्म, गुरु ही सूर्यरूप, गुरु ही चन्द्र, इन्द्र, वायु, वरुण और अग्निरूप हैं । यहाँतक कि गुरु स्वयं सर्वरूपी ऐश्वर्यशाली परमात्मा हैं । वेद से उत्तम दूसरा शास्त्र नहीं है, श्रीकृष्ण से बढ़कर दूसरा देवता नहीं है, गङ्गा के समान दूसरा तीर्थ नहीं है और तुलसी से उत्तम दूसरा पुष्प नहीं है । पृथ्वी से बढ़कर दूसरा क्षमावान् नहीं है, पुत्र से अधिक दूसरा कोई प्रिय नहीं है, दैव से बढ़कर शक्ति नहीं है और एकादशी से उत्तम व्रत नहीं है। शालग्राम से बढ़कर यन्त्र, भारत से उत्तम क्षेत्र और पुण्यस्थलों में वृन्दावन के समान पुण्यस्थान नहीं है । मोक्षदायिनी पुरियों में काशी और वैष्णवों में शिव के समान दूसरा नहीं है। न तो पार्वती से अधिक कोई पतिव्रता है और न गणेश से उत्तम कोई जितेन्द्रिय है। न तो विद्या के समान कोई बन्धु है और न गुरु से बढ़कर कोई अन्य पुरुष है । विद्या प्रदान करने वाले के पुत्र और पत्नी भी निस्संदेह उसी के समान होते हैं । गुरु की स्त्री और पुत्र की परशुराम ने अवहेलना कर दी है, उसी का सम्मार्जन करने के लिये मैं तुम्हारे घर आया हूँ ।

श्रीनारायण कहते हैं — नारद ! वहाँ भगवान् विष्णु शिवजी से ऐसा कहकर दुर्गा को समझाते हुए सत्य के साररूप उत्तम वचन बोले ।

विष्णु ने कहा — देवि ! मैं नीतियुक्त, वेदका तत्त्वरूप तथा परिणाम में सुखदायक वचन कहता हूँ, मेरे उस शुभ वचन को सुनो। गिरिराजकिशोरी ! तुम्हारे लिये जैसे गणेश और कार्तिकेय हैं, निस्संदेह उसी प्रकार भृगुवंशी परशुराम भी हैं । सर्वज्ञे ! इनके प्रति तुम्हारे अथवा शंकरजी के स्नेह में भेदभाव नहीं है । अतः मातः ! सब पर विचार करके जैसा उचित हो, वैसा करो । पुत्र के साथ पुत्र का यह विवाद तो दैवदोष से घटित हुआ है | भला, दैव को मिटाने में कौन समर्थ हो सकता है ? क्योंकि दैव महाबली है । वत्से! देखो, तुम्हारे पुत्र का ‘एकदन्त’ नाम वेदों में विख्यात है वरानने! सभी देव उसे नमस्कार करते हैं । ईश्वर ! सामवेद में कहे हुए अपने पुत्र के नामाष्टक स्तोत्र को ध्यान देकर श्रवण करो। मातः ! वह उत्तम स्तोत्र सम्पूर्ण विघ्नों का नाशक है।

॥ श्रीगणेश नामाष्टकं स्तोत्रं ॥
॥ विष्णुरुवाच ॥
गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं विघ्ननायकम् ।
लम्बोदरं शूर्पकर्णं गजवक्त्रं गुहाग्रजम् ॥ ८५ ॥
अष्टाख्यार्थं च पुत्रस्य शृणु मातहरप्रिये ।
स्तोत्राणां सारभूतं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥ ८६ ॥
ज्ञानार्थवाच गश्च णश्च निर्वाणवाचकः ।
तयोरीशं परं ब्रह्म गणेशं प्रणमाम्यहम् ॥ ८७ ॥
एकशब्दः प्रधानार्थो दन्तश्च बलवाचकः ।
बलं प्रधानं सर्वस्मादेकदन्तं नमाम्यहम् ॥ ८८ ॥
दीनार्थवाचको हेश्च रम्बः पालकवाचकः ।
पालकं दीनलोकानां हेरम्बं प्ररा० ॥ ८९ ॥
विपत्तिवाचको विघ्नो नायकः खण्डनार्थकः ।
विपत्खण्डनकारं तं प्रणमे विघ्ननयध्वम् ॥ ९० ॥
विष्णुदत्तैश्च नैवेद्यैर्यस्य लम्बं पुरोदरम् ।
पित्रा वत्तैश्च विविधैर्वत्वे लम्बोदरं च तम् ॥ ९१ ॥
शूर्पाकारौ च यत्कर्णौ विघ्नवारणकारकौ ।
संपदौ ज्ञानरूपौ च शूर्पकर्णं नमाम्यहम् ॥ ९२ ॥
विष्णुप्रसादं मुनिना दत्तं यन्मूर्ध्नि पुष्पकम् ।
तद्‌गजेन्द्रमुखं कान्तं गजववत्रं नमाम्यहम् ॥ ९३ ॥
गुहस्याग्रे च जातोऽयमाविर्भूतो हरालये ।
वन्दे गुहाग्रजं देवं सर्वदेवाग्रपूऽजितम् ॥ ९४ ॥
एतन्नागाष्टक्। दुर्गे नानाशक्तियुतं परम् ।
एतन्नामाष्टकं स्तोत्रं नानार्थसहितं शुभम् ॥ ९५ ॥
त्रिसध्यं यः पठेन्नित्यं स सुखी सर्वतो जयी ।
ततो विघ्नाः पलायन्ते वैगतेयाद्यथोरगाः ॥ ९६ ॥
गणेशरप्रसादेन महाज्ञानी भवेद्‌ध्रुवम् ।
पुत्रार्थो लभते पुत्रं भार्यार्थी कुशलां स्त्रियम् ॥ ९७ ॥
महाराडः कवीन्द्रश्च विद्यावांश्च भवेद्धुवम् ।
पुत्र त्वं पश्य वेदे च तथा कोपं च नो कुरु ॥ ९८ ॥

मातः ! तुम्हारे पुत्र के गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननायक, लम्बोदर, शूर्पकर्ण, गजवक्त्र और गुहाग्रज – ये आठ नाम हैं। इन आठों नामों का अर्थ सुनो। शिवप्रिये ! यह उत्तम स्तोत्र सभी स्तोत्रों का सारभूत और सम्पूर्ण विघ्नों का निवारण करनेवाला है । ‘ग’ ज्ञानार्थवाचक और ‘ण’ निर्वाणवाचक है । इन दोनों (ग+ण) – के जो ईश हैं; उन परब्रह्म ‘गणेश’ को मैं प्रणाम करता हूँ । ‘एक’ शब्द प्रधानार्थक है और ‘दन्त’ बलवाचक है; अतः जिनका बल सबसे बढ़कर है; उन ‘एकदन्त’ को मैं नमस्कार करता हूँ । ‘हे’ दीनार्थवाचक और ‘रम्ब’ पालक का वाचक है; अतः दीनों का पालन करने वाले ‘हेरम्ब’ को मैं शीश नवाता हूँ । ‘विघ्न’ विपत्तिवाचक और ‘नायक’ खण्डनार्थक है, इस प्रकार जो विपत्ति के विनाशक हैं; उन ‘विघ्ननायक’ को मैं अभिवादन करता हूँ। पूर्वकाल में विष्णु द्वारा दिये गये नैवेद्यों तथा पिता द्वारा समर्पित अनेक प्रकार के मिष्टान्नों के खाने से जिनका उदर लम्बा हो गया है; उन ‘लम्बोदर’ की मैं वन्दना करता हूँ। जिनके कर्ण शूर्पाकार, विघ्न निवारण के हेतु, सम्पदा के दाता और ज्ञानरूप हैं; उन ‘शूर्पकर्ण’ को मैं सिर झुकाता हूँ। जिनके मस्तक पर मुनि द्वारा दिया गया विष्णु का प्रसादरूप पुष्प वर्तमान है और जो गजेन्द्र के मुख से युक्त हैं; उन ‘गजवक्त्र’ को मैं नमस्कार करता हूँ। जो गुह (स्कन्द ) -से पहले जन्म लेकर शिव-भवन में आविर्भूत हुए हैं तथा समस्त देवगणों में जिनकी अग्रपूजा होती है; उन ‘गुहाग्रज’ देव की मैं वन्दना करता हूँ ।

दुर्गे ! अपने पुत्र के नामों से संयुक्त इस उत्तम नामाष्टक स्तोत्र को पहले वेद में देख लो, तब ऐसा क्रोध करो। जो इस नामाष्टक स्तोत्र का, जो नाना अर्थों से संयुक्त एवं शुभकारक है, नित्य तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह सुखी और सर्वत्र विजयी होता है । उसके पास से विघ्न उसी प्रकार दूर भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ के निकट से साँप । गणेश्वर की कृपा से वह निश्चय ही महान् ज्ञानी हो जाता है, पुत्रार्थी को पुत्र और भार्या की कामना वाले को उत्तम स्त्री मिल जाती है तथा महामूर्ख निश्चय ही विद्वान् और श्रेष्ठ कवि हो जाता है ।   (अध्याय ४४)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशस्तोत्रकथनं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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