January 28, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 15 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पन्द्रहवाँ अध्याय भगवती तुलसी के प्रादुर्भाव का प्रसङ्ग भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी था। वह राजा के साथ गन्धमादन पर्वत पर सुन्दर उपवन में आनन्द करती थी । यों दीर्घकाल बीत गया, किंतु उन्हें इसका ज्ञान न रहा कि कब दिन बीता, कब रात । तदनन्तर राजा धर्मध्वज के हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने हास-विलास से विलग होना चाहा; परंतु माधवी अभी तृप्त नहीं हो सकी थी, फिर भी उसे गर्भ रह गया। उसका गर्भ प्रतिदिन बढ़ता और उसकी शोभा बढ़ाता रहा। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारद! कार्तिक की पूर्णिमा के दिन उसके गर्भ से एक कन्या प्रकट हुई। उस समय शुभ दिन, शुभ योग, शुभ क्षण, शुभ लग्न और शुभ ग्रह का संयोग था । ऐसे योग से सम्पन्न शुक्रवार के दिन देवी माधवी ने लक्ष्मी के अंश से प्रादुर्भूत उस कन्या को जन्म दिया । कन्या का मुख ऐसा मनोहर था मानो शरद् ऋतु की पूर्णिमा का चन्द्रमा हो । नेत्र शरत्कालीन प्रफुल्ल कमल के समान सुन्दर थे। अधर पके हुए बिम्बाफल की तुलना कर रहे थे । मन को मुग्ध करने वाली उस कन्या के हाथ और पैर के तलवे लाल थे। उसकी नाभि गहरी थी । शीतकाल में सुख देने के लिये उसके सम्पूर्ण अङ्ग गरम रहते थे और उष्णकाल में वह शीतलाङ्गी बनी रहती थी। वह सदा सोलह वर्ष की किशोरी जान पड़ती थी। उसके सुन्दर केश ऐसे थे मानो वटवृक्ष को घेरकर शोभा पानेवाले बरोह हों । उसकी कान्ति पीले चम्पक की तुलना कर रही थी। वह असंख्य सुन्दरियों में एक थी । स्त्री और पुरुष उसे देखकर किसी के साथ तुलना करने में असमर्थ हो जाते थे; अतएव विद्वान् पुरुषों ने उसका नाम ‘तुलसी’ रखा। भूमि पर पधारते ही वह ऐसी सुयोग्या बन गयी, मानो साक्षात् प्रकृति देवी ही हो । सब लोगों के मना करने पर भी उसने तपस्या करने के विचार से बदरीवन को प्रस्थान किया । वहाँ रहकर वह दीर्घकाल तक कठिन तपस्या करती रही। उसके मन का निश्चित उद्देश्य यह था कि स्वयं भगवान् नारायण मेरे स्वामी हों। ग्रीष्मकाल में वह पञ्चाग्नि तपती और जाड़े के दिनों में जल में रहकर तपस्या करती। वर्षा ऋतु में वह वृष्टि की धारा का वेग सहन करती हुई खुले मैदान में आसन लगाकर बैठी रहती। हजारों वर्षों तक वह फल और जल पर रही; फिर हजारों वर्षों तक वह केवल पत्ते चबाकर रही और हजारों वर्षों तक केवल वायु के आधार पर उसने प्राणों को टिका कर रखा । इससे उसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था । तदनन्तर वह सहस्रों वर्षों तक बिलकुल निराहार रही । निर्लक्ष्य होकर एक पैर पर खड़ी हो वह तपस्या करती रही। उसे देखकर ब्रह्मा उत्तम वर देने के विचार से बदरिकाश्रम में पधारे। हंस पर बैठे हुए चतुर्मुख ब्रह्मा को देखकर तुलसी ने प्रणाम किया। तब जगत् की सृष्टि करने में निपुण विधाता ने उससे कहा । ब्रह्माजी बोले — तुलसी ! तुम मनोऽभिलषित वर माँग सकती हो। भगवान् श्रीहरि की भक्ति, उनकी दासी बनना अथवा अजर एवं अमर होना जो भी तुम्हारी इच्छा हो, मैं देने के लिये तैयार हूँ । तुलसी ने कहा — तात पितामह! सुनिये, मेरे मन में जो अभिलाषा है, उसे बता रही हूँ, आप सर्वज्ञ हैं; अतः आपके सामने मुझे लज्जा ही क्या है। पूर्वजन्म में मैं तुलसी नाम की गोपी थी। गोलोक मेरा निवास-स्थान था । भगवान् श्रीकृष्ण की प्रिया, उनकी अनुचरी, उनकी अर्द्धाङ्गिनी तथा उनकी प्रेयसी सखी — सब कुछ होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त था । गोविन्द नाम से सुशोभित उन प्रभु के साथ मैं हास- विलास में रत थी । उस परम सुख से अभी मैं तृप्त नहीं थी। इतने में एक दिन रास की अधिष्ठात्री देवी भगवती राधा ने रासमण्डल में पधारकर रोष से मुझे यह शाप दे दिया कि ‘तुम मानव-योनि में उत्पन्न होओ।’ उसी समय भगवान् गोविन्द ने मुझसे कहा — ‘देवी! तुम भारतवर्ष में रहकर तपस्या करो। ब्रह्मा वर देंगे, जिससे मेरे स्वरूपभूत अंश चतुर्भुज श्रीविष्णु को तुम पतिरूप से प्राप्त कर लोगी।’ इस प्रकार कहकर देवेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण भी अन्तर्धान हो गये । गुरो ! मैंने अपना वह शरीर त्याग दिया और अब इस भूमण्डल पर उत्पन्न हुई हूँ । सुन्दर विग्रह वाले शान्तस्वरूप भगवान् नारायण को मैं प्रियतम पतिरूप से प्राप्त करने के लिये वर माँग रही हूँ । आप मेरी अभिलाषा पूर्ण करने की कृपा करें। ब्रह्माजी बोले — भगवान् श्रीकृष्ण के अङ्ग से प्रकट सुदामा नामक एक गोप भी इस समय राधिका शाप से भारतवर्ष में उत्पन्न है । उस परम तेजस्वी गोप को श्रीकृष्ण का साक्षात् अंश कहते हैं। शापवश उसे दनु के कुल में उत्पन्न होना पड़ा है । ‘शङ्खचूड़ ‘ नाम से वह प्रसिद्ध है । त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं है जो उससे बढ़कर हो । वह सुदामा इस समय समुद्र में विराजमान है । भगवान् श्रीकृष्ण का अंश होने से उसे पूर्वजन्म की सभी बातें स्मरण हैं। सुन्दरि! शोभने ! तुम भी पूर्वजन्म के सभी प्रसङ्गों से परिचित हो। इस जन्म में वह श्रीकृष्ण का अंश तुम्हारा पति होगा। इसके बाद शान्तस्वरूप भगवान् नारायण तुम्हें पतिरूप से प्राप्त होंगे। लीलावश वे ही नारायण तुम को शाप दे देंगे। अतः अपनी कला से तुम्हें वृक्ष बनकर भारत में रहना पड़ेगा और समस्त जगत् को पवित्र करने की योग्यता तुम्हें प्राप्त होगी । सम्पूर्ण पुष्पों में तुम प्रधान मानी जाओगी। भगवान् विष्णु तुम्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय मानेंगे। तुम्हारे बिना पूजा निष्फल समझी जायगी। वृन्दावन में वृक्षरूप से रहते समय लोग तुम्हें ‘वृन्दावनी’ कहेंगे। तुमसे उत्पन्न पत्तों से गोपी और गोपों द्वारा भगवान् माधव की पूजा सम्पन्न होगी । तुम मेरे वर के प्रभाव से वृक्षों की अधिष्ठात्री देवी बनकर गोपरूप से विराजने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के साथ स्वेच्छापूर्वक निरन्तर आनन्द भोगोगी । नारद ! ब्रह्मा की यह अमरवाणी सुनकर तुलसी के मुख पर हँसी छा गयी। उसके मन में अपार हर्ष हुआ । उसने महाभाग ब्रह्मा को प्रणाम किया और वह कहने लगी। तुलसी ने कहा — पितामह! मैं बिलकुल सच्ची बातें कहती हूँ – दो भुजा से शोभा पानेवाले श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्ण को पाने के लिये मेरी जैसी अभिलाषा है, वैसी चतुर्भुज श्रीविष्णु के लिये नहीं है; परंतु उन गोविन्द की आज्ञा से ही मैं चतुर्भुज श्रीहरि के लिये प्रार्थना करती हूँ । ओह! वे गोविन्द मेरे लिये परम दुर्लभ हो गये हैं । भगवन्! आप ऐसी कृपा करें कि उन्हीं गोविन्द को मैं पुनः निश्चय ही प्राप्त कर सकूँ । साथ ही मुझे राधा के भय से भी मुक्त कर दीजिये । ब्रह्माजी बोले — देवी! मैं तुम्हारे प्रति भगवती राधा के षोडशाक्षर मन्त्र का उपदेश करता हूँ । तुम इसे हृदय में धारण कर लो। मेरे वर के प्रभाव से अब तुम राधा को प्राण के समान प्रिय बन जाओगी। सुभगे ! भगवान् गोविन्द के लिये तुम वैसी ही प्रेयसी बन जाओगी जैसी राधा हैं । मुने ! इस प्रकार कहकर जगद्धाता ब्रह्मा ने तुलसी को भगवती राधा का षोडशाक्षर-मन्त्र बता दिया । साथ ही स्तोत्र, कवच, पूजा की सम्पूर्ण विधियाँ तथा किस क्रम से अनुष्ठान करना चाहिये- ये सभी बातें बतला दीं। तब तुलसी ने भगवती राधा की उपासना की और उनके कृपा-प्रसाद से वह देवी राधा के समान ही सिद्ध हो गयी । मन्त्र के प्रभाव से ब्रह्माजी ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही फल तुलसी को प्राप्त हो गया । तपस्या-सम्बन्धी जो भी क्लेश थे, वे मन में प्रसन्नता उत्पन्न होने के कारण दूर हो गये; क्योंकि फल सिद्ध हो जानेपर मनुष्यों का दुःख ही उत्तम सुख के रूप में परिणत हो जाता है । (अध्याय १५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने तुलसीवरप्रदानं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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