ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 20
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
बीसवाँ अध्याय
भगवान् शंकर और शङ्खचूड़ का युद्ध, शंकर के त्रिशूल से शङ्खचूड़ का भस्म होना तथा सुदामा गोप के स्वरूप में उसका विमान द्वारा गोलोक पधारना

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! भगवान् शिव तत्त्व जानने में परम प्रवीण हैं। भद्रकाली द्वारा युद्ध की सारी बातें सुनकर वे स्वयं अपने गणों के साथ संग्राम में पहुँच गये। उन्हें देखकर शङ्खचूड़ विमान से उतर गया और उसने परम भक्ति के साथ पृथ्वी पर मस्तक टेककर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। यों भक्तिविनम्र होकर प्रणाम करने के पश्चात् वह तुरंत रथ पर सवार हो गया और भगवान् शिव के साथ युद्ध करने लगा ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


ब्रह्मन् ! उस समय शिव और शङ्खचूड़ में बहुत लंबे काल तक युद्ध होता रहा। कोई किसी से न जीतते थे और न हारते थे। कभी समयानुसार शङ्खचूड़ शस्त्र रखकर रथ पर ही विश्राम कर लेता और कभी भगवान् शंकर भी शस्त्र रखकर वृषभ पर ही आराम कर लेते। शंकर के बाणों से असंख्य दानवों का संहार हुआ । इधर संग्राम में देवपक्ष के जो-जो योद्धा मरते थे, उनको विभु शंकर पुनः जीवित कर देते थे। उसी समय भगवान् श्रीहरि एक अत्यन्त आतुर बूढ़े ब्राह्मण का वेष बनाकर युद्धभूमि में आये और दानवराज शङ्खचूड़ से कहने लगे।

वृद्ध ब्राह्मण के वेष में पधारे हुए श्रीहरि ने कहा — राजेन्द्र ! तुम मुझ ब्राह्मण को भिक्षा देने की कृपा करो। इस समय सम्पूर्ण शक्तियाँ प्रदान करने की तुममें पूर्ण योग्यता है । अतः तुम मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं निरीह, तृषित एवं वृद्ध ब्राह्मण हूँ। पहले तुम देने के लिये सत्य प्रतिज्ञा कर लो, तब मैं तुमसे कहूँगा ।

राजेन्द्र शङ्खचूड़ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा — ‘हाँ, हाँ, बहुत ठीक – आप जो चाहें सो ले सकते हैं।’

तब अतिशय माया फैलाते हुए उन वृद्ध ब्राह्मण ने कहा — ‘मैं तुम्हारा ‘कृष्णकवच’ चाहता हूँ।’

उनकी बात सुनकर सत्यप्रतिज्ञ शङ्खचूड़ ने तुरंत वह दिव्य कवच उन्हें दे दिया और उन्होंने उसे ले भी लिया । फिर वे ही श्रीहरि शङ्खचूड़ का रूप बनाकर तुलसी के निकट गये। वहाँ जाकर कपटपूर्वक उन्होंने उससे हास-विलास किया। ( इस प्रकार शङ्खचूड़ की पत्नी के रूप में उसका सतीत्व भङ्ग हो गया । यद्यपि तत्त्वरूप से तो वह श्रीहरि की परम प्रेयसी पत्नी ही थी ।) ठीक इसी समय शंकर ने शङ्खचूड़ पर चलाने के लिये श्रीहरि का दिया हुआ त्रिशूल हाथ में उठा लिया।

वह त्रिशूल इतना प्रकाशमान था, मानो ग्रीष्म ऋतु का मध्याह्नकालीन सूर्य हो, अथवा प्रलयकालीन प्रचण्ड अग्नि । वह दुर्निवार्य, दुर्धर्ष, अव्यर्थ और शत्रुसंहारक था । सम्पूर्ण शस्त्रों के सारभूत उस त्रिशूल की तेज में चक्र के साथ तुलना की जाती थी । उस भयंकर त्रिशूल को शिव अथवा केशव — ये दो ही उठा सकते थे । अन्य किसी के मान का वह नहीं था । वह साक्षात् सजीव ब्रह्म ही था । उसके रूप का कभी परिवर्तन नहीं होता और सभी उसे देख भी नहीं पाते थे ।

नारद ! अखिल ब्रह्माण्ड का संहार करने की उस त्रिशूल में पूर्ण शक्ति थी । भगवान् शंकर ने लीला से ही उसे उठाकर हाथ पर जमाया और शङ्खचूड़ पर फेंक दिया। तब उस बुद्धिमान् नरेश ने सारा रहस्य जानकर अपना धनुष धरती पर फेंक दिया और वह बुद्धिपूर्वक योगासन लगाकर भक्ति के साथ अनन्य-चित्त से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल का ध्यान करने लगा । त्रिशूल कुछ समय तक तो चक्कर काटता रहा । तदनन्तर वह शङ्खचूड़ के ऊपर जा गिरा। उसके गिरते ही तुरंत वह दानवेश्वर तथा उसका रथ सभी जलकर भस्म हो गये ।

दानव-शरीर के भस्म होते ही उसने एक दिव्य गोप का वेष धारण कर लिया। उसकी किशोर अवस्था थी । वह दो दिव्य भुजाओं से सुशोभित था । उसके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी और रत्नमय आभूषण उसके शरीर को विभूषित कर रहे थे। इतने में अकस्मात् सर्वोत्तम दिव्य मणियों द्वारा निर्मित एक दिव्य विमान गोलोक से उतर आया। उसमें चारों ओर असंख्य गोपियाँ बैठी थीं। शङ्खचूड़ उसी पर सवार होकर गोलोक के लिये प्रस्थित हो गया।

मुने ! उस समय वृन्दावन में रासमण्डल के मध्य भगवान् श्रीकृष्ण और भगवती श्रीराधिका विराजमान थीं। वहाँ पहुँचते ही शङ्खचूड़ ने भक्ति साथ मस्तक झुकाकर उनके चरणकमलों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया। अपने चिरसेवक सुदामा को देखकर उन दोनों के श्रीमुख प्रसन्नता से खिल उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उसे अपनी गोद में उठा लिया । तदनन्तर वह त्रिशूल बड़े वेग से आदरपूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण के पास लौट आया।

शङ्खचूड़ की हड्डियों से शङ्ख की उत्पत्ति हुई। वही शङ्ख अनेक प्रकार के रूपों में विराजमान होकर देवताओं की पूजा में निरन्तर पवित्र माना जाता है । उसके जल को श्रेष्ठ मानते हैं; क्योंकि देवताओं को प्रसन्न करने के लिये वह अचूक साधन है। उस पवित्र जल को तीर्थमय माना जाता है। उसके प्रति केवल शंकर की आदरबुद्धि नहीं है । जहाँ- कहीं भी शङ्खध्वनि होती है, वहीं लक्ष्मीजी सम्यक् प्रकार से विराजमान रहती हैं। जो शङ्ख के जल से स्नान कर लेता है, उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है । शङ्ख साक्षात् भगवान् श्रीहरि का अधिष्ठान है। जहाँ पर शङ्ख रहता है, वहाँ भगवान् श्रीहरि भगवती लक्ष्मीसहित सदा निवास करते हैं। अमङ्गल दूर से ही भाग जाता है ।

उधर शिव भी शङ्खचूड़ को मारकर अपने लोक को पधार गये । उनके मन में अपार हर्ष था । वे वृषभ पर आरूढ़ होकर अपने गणोंसहित चले गये। अपना राज्य पा जाने के कारण देवताओं के हर्ष की सीमा नहीं रही। स्वर्ग में देव-दुन्दुभियाँ बज उठीं और गन्धर्व तथा किन्नर यशोगान करने लगे। भगवान् शंकर के ऊपर पुष्पों की वर्षा आरम्भ हो गयी। देवताओं और मुनिगणों ने भगवान् शंकर की भूरि-भूरि प्रशंसा की । ( अध्याय २०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे तुलस्युपाख्याने शंखचूडवधे शंखप्रस्तावो नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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