February 3, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 34 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ चौंतीसवाँ अध्याय भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप, महत्त्व और गुणों की अनिर्वचनीयता सावित्री ने कहा — देव! अब आप मुझे सारभूत एवं परम दुर्लभ हरिभक्ति का उपदेश दीजिये । अन्य सब बातें मैंने आपसे सुन ली हैं । इस समय और किसी विषय को सुनना शेष नहीं है। अब तो मुझे भगवान् श्रीकृष्ण के गुण-कीर्तन रूप कुछ धर्म की बात बताइये । वही लाखों मनुष्यों के उद्धार का बीज है । वही नरक के समुद्र से पार उतारने वाला है। श्रीकृष्ण के गुणों का कीर्तन मुक्ति के सारभूत तत्त्व की प्राप्ति का कारण तथा समस्त अमङ्गलों का निवारण करने वाला है। वह कर्ममय वृक्षों को उखाड़ फेंकने वाला तथा किये हुए पाप-समूहों को हरने वाला है। प्रभो ! मुक्तियाँ कितने प्रकार की हैं? उनके लक्षण क्या हैं ? हरिभक्ति का स्वरूप क्या है ? उसके भेद कितने हैं ? तथा निषेक ( कृतकर्मभोग) का भी क्या लक्षण है ? वह सारभूत तत्त्वज्ञान क्या है ? यह आप बताइये । अपना सर्वस्व दान कर देना, उपवास-व्रत करना, तीर्थों में नहाना, व्रत रखना और तप करना — ये सब-के-सब ज्ञानहीन को ज्ञान देने से जो पुण्य होता है, उसकी सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हो सकते। भगवन् ! यह निश्चय है कि गौरव की दृष्टि से पिता की अपेक्षा माता का स्थान सौगुना ऊँचा है। परंतु ज्ञानदाता गुरु माता से भी सौगुना अधिक पूजनीय होता है । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय यम बोले — बेटी ! मैं पहले ही तुम्हें यह वर दे चुका हूँ कि तुम्हारे मन में जो अभीष्ट प्रश्न होगा, वह सब मैं बताऊँगा — तुम जो कुछ जानना चाहोगी, उसका ज्ञान कराऊँगा । अतः इस समय मेरे वर से तुम्हें भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त हो । कल्याणि ! तुम जो भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों का कीर्तन सुनना चाहती हो, वह बहुत ही उत्तम है। यह प्रश्न प्रश्नकर्ता के, उत्तर देने वाले के और श्रोताओं के कुल का भी उद्धार करने वाला है। परंतु है यह बहुत कठिन । सहस्र मुख वाले शेष भी इसे कहने में असमर्थ हैं । मृत्युञ्जय भगवान् शंकर यदि अपने पाँच मुखों से कहने लगें तो वे भी पार नहीं पा सकते । ब्रह्माजी चारों वेदों तथा अखिल जगत् के स्रष्टा हैं। चार मुखों से उनकी परम शोभा होती है। भगवान् विष्णु सर्वज्ञ हैं, परंतु ये दोनों प्रधान देव भी श्रीकृष्ण के गुणों का सम्यक् प्रकार से वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। स्वामी कार्तिकेय अपने छः मुखों से वर्णन करते रहें तो भी अन्त नहीं पा सकते। महाभाग गणेशजी को योगीन्द्रों के गुरु-का-गुरु कहा जाता है; किंतु भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन कर पाना उनके लिये भी असम्भव है । सम्पूर्ण शास्त्रों के सारतत्त्व चार वेद हैं। ये वेद तथा इनसे परिचित विद्वान् भी श्रीकृष्ण के गुणों की एक कला भी जानने में असमर्थ सिद्ध हो जाते हैं । श्रीकृष्ण की महिमा के वर्णन करने में साक्षात् सरस्वती भी जड के समान होकर असमर्थता प्रकट करने लगती हैं । सनत्कुमार, धर्म, सनक, सनातन सनन्द, कपिल तथा सूर्य — ये तथा श्रीब्रह्माजी के अन्यान्य सुयोग्य पुत्र भी उनके महत्त्व का वर्णन करने में सफलता नहीं प्राप्त कर सके, तब फिर अन्य व्यक्तियों से क्या आशा की जा सकती है ? श्रीकृष्ण के जिन गुणों की व्याख्या सिद्ध, मुनीन्द्र तथा योगीन्द्र भी नहीं कर सकते, उनका वर्णन अन्य पुरुष कैसे कर सकते हैं? तथा मैं ही कैसे कर सकता हूँ ? ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रभृति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते हैं, वे भक्तों के लिये जितने सुगम हैं, उतने ही भक्तहीन जनों के लिये दुर्लभ भी हैं। श्रीकृष्ण का गुणानुवाद परम पवित्र है। कुछ लोग किंचिन्मात्र उसे जानते हैं । परम ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मा तथा उनके पुत्र आदि अधिक परिचित हैं । ज्ञानियों के गुरु गणेशजी उनसे भी अधिक जानते हैं। सबसे अधिक सर्वज्ञ भगवान् शंकर ही जानते हैं; क्योंकि परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने पूर्वकाल में इनको ज्ञान प्रदान किया था । गोलोक के अत्यन्त निर्जन रमणीय रासमण्डल में श्रीकृष्ण ने जो शिव को अपने गुणों के कीर्तन का महत्त्व बताया था, उसका स्वयं शिवजी ने अपनी पुरी में धर्म के प्रति उपदेश किया था । महाभाग सूर्य के पूछने पर धर्म ने पुष्कर में उनके सामने इसकी व्याख्या की थी। साध्वि ! मेरे पिता भगवान् सूर्य ने तपस्या द्वारा धर्म की आराधना करके मुझे प्राप्त किया था । सुव्रते ! पूर्व समय में मेरे पिताजी यत्नपूर्वक मुझे यमपुरी का राज्य दे रहे थे; किंतु मैं लेना नहीं चाहता था । वैराग्य हो जाने के कारण मेरे मन में तपस्या करने की बात आती थी । तब पिताजी ने मेरे सामने भगवान् के गुणों का जो वर्णन किया था, वह अत्यन्त दुर्गम है। मैं आगम के अनुसार उसे कुछ कहता हूँ, सुनो। वरानने! श्रीकृष्ण के इतने अमित गुण हैं कि उन्हें वे स्वयं ही पूरा नहीं जानते; तब दूसरों की तो बात ही क्या है ? जैसे आकाश स्वयं ही अपना अन्त नहीं जानता, उसी तरह भगवान् भी अपने गुणों का अन्त नहीं जानते । भगवान् सबके अन्तरात्मा एवं सम्पूर्ण कारणों के कारण हैं; वे सर्वेश्वर, सर्वाद्य, सर्ववित् और सर्वरूपधारी हैं, वे नित्यस्वरूप, नित्यविग्रह, नित्यानन्द, निराकार, निरङ्कुश, निःशङ्क, निर्गुण (प्राकृतगुणरहित), निरामय, निर्लिप्त, सर्वसाक्षी, सर्वाधार एवं परात्पर हैं । प्रकृति उन्हीं से उत्पन्न हुई है और सम्पूर्ण प्राकृत पदार्थ प्रकृति के कार्य हैं। स्वयं परमपुरुष श्रीकृष्ण ही प्रकृति हैं और वे प्रकृति से परे भी हैं । रूपहीन होते हुए भी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे नाना प्रकार रूप धारण करते हैं । अतीव कमनीयं च सुन्दरं सुमनोहरम् । नवीननीरदश्यामं किशोरं गोपवेषकम् ॥ ३० ॥ कन्दर्पकोटिलावण्यलीलाधाम मनोहरम् । शरन्मध्याह्नपद्मानां शोभामोषकलोचनम् ॥ ३१ ॥ शरत्पार्वणकोटीन्दुशोभासंशोभिताननम् । अमूल्यरत्नखचितरत्नाभरणभूषितम् ॥ ३२ ॥ सस्मितं शोभितं शश्वदमूल्याऽऽपीतवाससा । परं ब्रह्मस्वरूपं च ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ ३३ ॥ सुखदृश्यं च शान्तं च राधाकान्तमनन्तकम् । गोपीभिर्वीक्ष्यमाणं च सस्मिताभिः समन्ततः ॥ ३४ ॥ रासमण्डलमध्यस्थं रत्नसिंहासनस्थितम् । वंशीं क्वणन्तं द्विभुजं वनमालाविभूषितम् ॥ ३५ ॥ कौस्तुभेन मणीन्द्रेण सुन्दरं वक्षसोज्ज्वलम् । कुङ्कुमागरुकस्तूरीचन्दनार्चितविग्रहम् ॥ ३६ ॥ चारुचम्पकमालाब्जमालतीमाल्यमण्डितम् । चारुचम्पकशोभाढ्यचूडावक्त्रिमराजितम् ॥ ३७ ॥ उनका दिव्य चिन्मय स्वरूप अत्यन्त कमनीय, सुन्दर और परम मनोहर है। वे नवीन मेघमाला के समान श्याम कान्ति धारण करते हैं। उनकी किशोर अवस्था है। वे गोपवेष में सुशोभित होते हैं । कोटि-कोटि कामदेवों की लावण्य-लीला के धाम हैं। उनकी मोहिनी झाँकी मन को मोहे लेती है । उनके नेत्र शरत्काल के मध्याह्न में पूर्णत: विकसित हुए कमलों की शोभा को छीने लेते हैं। उनका मुख शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं की शोभा को तिरस्कृत करने वाला है। अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित दिव्य आभूषण उनके श्रीअङ्गों की शोभा बढ़ाते हैं । मन्द मुस्कान से सुशोभित मुख एवं सर्वाङ्ग बहुमूल्य पीताम्ब रसे सतत शोभायमान है । वे परब्रह्मस्वरूप हैं और ब्रह्मतेज से उद्भासित होते हैं । भक्तजनों को सुखपूर्वक उनका दर्शन सुलभ होता है। वे शान्तस्वरूप राधा-वल्लभ अनन्त गुण और महिमा से सम्पन्न हैं । प्रेममयी गोपियाँ सब ओर से घेरकर उन्हें मन्द मुस्कराहट के साथ निहारती रहती हैं । वे रासमण्डल के मध्यभाग में रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके दो भुजाएँ हैं । वे वनमाला से विभूषित हैं और मुरली बजा रहे हैं। मणिराज कौस्तुभ सदा ही उनके वक्षःस्थल को उद्भासित करता रहता है। केसर, रोली, अबीर, कस्तूरी तथा चन्दन से उनका श्रीविग्रह चर्चित है । वे मनोहर चम्पा, कमल और मालती की मालाओं से अलंकृत हैं । चारु चम्पा के फूलों से सुशोभित चूड़ामणि (मुकुट ) – की बंकिमा (लटक) उनके मनोहर सौन्दर्य की वृद्धि कर रही है । भक्ति-रस से ओतप्रोत भक्तजन भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसे ही स्वरूप का ध्यान करते हैं । जगद्धाता ब्रह्मा उन्हीं का भय मानकर सृष्टि का विधान तथा सम्पूर्ण प्राणियों के भाग्य का उनके कर्म के अनुसार लेखन करते हैं। उन्हीं की आज्ञा के अनुसार सबको तपस्याओं तथा कर्मों का फल देते हैं। उन्हीं के भय से पालक भगवान् विष्णु सदा सबका पालन करते हैं। उनसे भीत रहने वाले कालाग्निरुद्र द्वारा अखिल जगत् का संहार होता है । जो ज्ञानियों के गुरु-के-गुरु एवं मृत्युञ्जय नाम से प्रसिद्ध भगवान् शिव हैं, वे भी उन्हीं को जानने तथा उनका ज्ञान प्रदान करने से सिद्धेश, योगीश तथा सर्वज्ञ हुए हैं। भक्ति एवं ज्ञान से युक्त तथा परमानन्द से सम्पन्न हैं । साध्वि ! उन्हीं के कृपा- प्रसाद से शीघ्रगामियों में श्रेष्ठ पवनदेवता चलते तथा सूर्य उन्हीं के भय से निरन्तर तपते हैं । उन्हीं की आज्ञा के अनुसार इन्द्र वर्षा करते, मृत्यु समस्त प्राणियों पर प्रभाव डालती, अग्नि जलाती एवं जल शीतल रहता तथा अत्यन्त भयभीत दिक्पाल दिशाओं की रक्षा करते हैं। उन्हीं के भय से ग्रह राशिचक्रों पर भ्रमण करते हैं। वृक्ष जो फूलते और फलते हैं, इसमें भी उनका भय ही कारण है। उन्हीं की आज्ञा से फल पकते हैं तथा बहुत-से वृक्ष फलहीन रह जाते हैं । उनकी आज्ञा से ही जलचर जीव स्थल में और स्थलचर प्राणी जल में जीवित नहीं रह पाते हैं। उन्हीं के भय से मैं (यमराज) धर्माधर्म के विषय में नियन्त्रण करता हूँ । उनकी आज्ञा से ही काल सबको अपना ग्रास बनाता और सर्वत्र चक्कर लगाता ही रहता है । उन्हीं के भय से मृत्यु तथा काल किसी को असमय में नहीं मार सकते। कोई जलती हुई आग में या गहरे जलाशय अथवा समुद्र में गिर जाय, वृक्ष के ऊपर से नीचे पड़ जाय, तीखी तलवार पर गिर पड़े, सर्प आदि के मुँह में पड़ जाय, संग्राम में तथा अन्य विषम संकटों में फँसकर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों क्षत-विक्षत हो जाय तो भी जिनका भय मानकर काल उसे अकाल में नहीं ले जा सकता तथा जिनकी आज्ञा मिल जाने पर फूल और चन्दन से सजी हुई सेज पर तन्त्र-मन्त्र तथा भाई- बन्धुओं से सुरक्षित होकर सोते हुए मनुष्य को भी काल समय आने पर अवश्य उठा ले जाता है, वे भगवान् ही सर्वोपरि हैं। उनके भय से ही काल सब कुछ करता है। उन्हीं की आज्ञा से वायु जलराशि को, जलराशि कच्छप को, कच्छप शेषनाग को, शेषनाग पृथ्वी को तथा क्षमारूप पृथ्वी समुद्रों, सातों पर्वतों तथा नाना प्रकार के रूप वाले चराचर जगत् को धारण करती है। उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण से सम्पूर्ण भूत प्रकट होते और अन्त में उन्हीं के भीतर लीन हो जाते हैं । पतिव्रते ! इकहत्तर दिव्य युगों की इन्द्र की आयु होती है। ऐसे अट्ठाईस इन्द्रों का पतन हो जाने पर ब्रह्मा का एक दिन-रात होता है। इसी प्रकार तीस दिनों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु तथा छः ऋतुओं का एक वर्ष होता है। ऐसे सौ वर्ष की ब्रह्मा की आयु होती है। जब तक ब्रह्मा का पतन नहीं होता तब तक श्रीहरि की आँखें खुली रहती हैं – उनकी पलक उठी रहती है । जब वे आँख मूँदते या पलक गिराते हैं, तब ब्रह्माजी का पतन एवं प्रलय होता है । उसी को ‘प्राकृतिक प्रलय’ कहते हैं। उस प्राकृतिक प्रलय के समय सम्पूर्ण प्राकृत पदार्थ एवं देवता आदि चराचर प्राणी ब्रह्मा में लीन हो जाते हैं । और ब्रह्मा भगवान् श्रीकृष्ण के नाभिकमल में लीन हो जाते हैं । क्षीरसागर में शयन करने वाले श्रीविष्णु तथा वैकुण्ठवासी चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व में लीन हो जाते हैं । रुद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुगामी हैं, वे मङ्गलाधार सनातन ज्ञानानन्दस्वरूप शिव में लीन होते हैं। ज्ञान के अधिष्ठाता भगवान् शिव उन परमात्मा महादेव श्रीकृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं। सम्पूर्ण शक्तियाँ विष्णुमाया दुर्गा में तिरोहित हो जाती हैं। विष्णुमाया दुर्गा भगवान् श्रीकृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती हैं; क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। नारायण के अंश स्वामिकार्तिकेय उनके वक्षःस्थल में लीन हो जाते हैं । सुव्रते ! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान् श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं। गोपियाँ तथा सम्पूर्ण देवपत्नियाँ भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं । सावित्री, वेद एवं सम्पूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं। सरस्वती परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती हैं। गोलोक के सम्पूर्ण गोप भगवान् श्रीकृष्ण के रोमकूपों में लीन हो जाते हैं। उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों के प्राणस्वरूप वायु का, उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का तथा उनकी जिह्वा के अग्रभाग में जल का लय हो जाता है। जो सार से भी सारतर हैं तथा भक्तिरसामृत का पान करते हैं, वे भक्त वैष्णवजन अत्यन्त आनन्दित हो उन भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में विलीन हो जाते हैं । क्षुद्र विराट् महान् विराट् में और महान् विराट् परमात्मा श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं। श्रीकृष्ण के ही रोमकूपों में सम्पूर्ण विश्व की स्थिति है। उन्हीं के आँख मीचने पर महाप्रलय होता है तथा उनकी आँख खुलते ही पुनः सृष्टि का कार्य आरम्भ हो जाता है। भगवान् की पलक जितनी देर उठी या खुली रहती है, उतनी ही देर तक बंद भी रहती है। दोनों में बराबर ही समय लगता है । ब्रह्मा के सौ वर्षों तक सृष्टि चालू रहती है, फिर उतने ही समय के लिये प्रलय हो जाता है। सुव्रते ! ब्रह्मा की सृष्टि और प्रलय की कोई गिनती ही नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे भूमि के धूलिकणों की कोई गणना नहीं की जा सकती। जिन सर्वान्तरात्मा श्रीकृष्ण के नेत्रों की पलक गिरते ही जगत् का प्रलय हो जाता है और पलक के उठते ही उन परमेश्वर की इच्छा से सृष्टि आरम्भ हो जाती है, उनके गुणों का कीर्तन करने में कौन समर्थ है ? मैंने पिताजी के मुख से जैसा जैसा सुना है, वैसा-वैसा आगमों के अनुसार वर्णन किया है । चारों वेदों ने मुक्ति के चार भेद बतलाये हैं । उन सबसे प्रभु की भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि इसके सामने सभी तुच्छ हैं। भक्ति मुक्ति भी बड़ी है। एक मुक्ति ‘सालोक्य’ प्रदान करने वाली, दूसरी ‘सारूप्य’ देने में निपुण, तीसरी ‘सामीप्य’ प्रदान करने वाली है और चौथी ‘निर्वाणपद’ पर पहुँचाने वाली कही जाती है। भक्त पुरुष परमप्रभु परमात्मा की सेवा छोड़कर इन मुक्तियों की इच्छा नहीं करते। वे सिद्धत्व, अमरत्व और ब्रह्मत्व की भी अवहेलना करते हैं । मुक्ति सेवारहित होती है और भक्ति में निरन्तर सेवाभाव का उत्कर्ष होता रहता है। यही भक्ति और मुक्ति का भेद है। अब निषेक का लक्षण सुनो। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि किये हुए कर्मों का भोग ही निषेक है। उस कर्मभोग या प्रारब्ध का भी खण्डन करके कल्याण प्रदान करने वाली है – श्रीकृष्ण की उत्तम सेवा । साध्वि ! यह तत्त्वज्ञान लोक और वेद का सार है । यह विघ्नों का नाशक तथा शुभदायक है। बेटी ! अब तुम सुखपूर्वक अपने घर को जाओ । इस प्रकार कहकर सूर्यपुत्र यमराज ने सावित्री के पति सत्यवान् को जीवन प्रदान करके सावित्री को शुभ आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् वे वहाँ से जाने के लिये उद्यत हो गये । उन्हें जाते देख सावित्री उनके चरणों में मस्तक झुका दोनों पैर पकड़कर रोने लगी। सच है, सत्पुरुषों का बिछोह बड़ा ही दुःखदायक होता है । नारद! सावित्री को रोती देख कृपानिधान यम भी रो पड़े और मन-ही-मन संतुष्ट हो उससे इस प्रकार बोले । यम ने कहा — सावित्री ! तुम पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में लाख वर्षों तक सुख भोगने के अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण के गोलोकधाम में जाओगी। भद्रे ! अब तुम अपने घर जाओ और भगवती सावित्री का व्रत करो। चौदह वर्षों तक करने पर यह व्रत नारियों को मोक्ष प्रदान करता है । ज्येष्ठमास के कृष्णपक्ष में चतुर्दशी तिथि को यह व्रत करना चाहिये । भाद्रपद- मास के शुक्लपक्ष में अष्टमी तिथि के दिन महालक्ष्मी का शुभ व्रत होता है । यह व्रत सोलह वर्षों तक प्रत्येक वर्ष के प्रतिमास के शुक्लपक्ष में करना चाहिये । जो नारी भक्तिपूर्वक इस व्रत का पालन करती है, उसे भगवान् श्रीहरि का परमपद प्राप्त हो जाता है । प्रत्येक मङ्गलवार को मङ्गल प्रदान करने वाली भगवती मङ्गलचण्डिका की पूजा करनी चाहिये । प्रत्येक मास के शुक्लपक्ष में षष्ठी के दिन मङ्गलप्रदा भगवती षष्ठी (देवसेना) – की उपासना करने का विधान है। इसी प्रकार आषाढ़ की संक्रान्ति के अवसर पर सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करने वाली भगवती मनसा की पूजा होती है। कार्तिकमास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि को रासमण्डल में विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण की प्राणाधिका श्रीराधा की उपासना करनी चाहिये तथा प्रत्येक मास की शुक्ला अष्टमी के दिन दुर्गतिनाशिनी, विष्णुमाया भगवती दुर्गा का व्रत करना चाहिये । जो नारी विशुद्ध पतिव्रताओं में, श्रीयन्त्र आदि में तथा प्रतिमाओं में पतिपुत्रवती सती प्रकृतिस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा की भावना करके धन और संतति की प्राप्ति के लिये भक्तिपूर्वक पूजा करती है, वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीहरि के परमपद को प्राप्त होती है । इस प्रकार कहकर धर्मराज अपने स्थान पर पधार गये । सावित्री भी पतिदेव को लेकर अपने घर लौट गयी । नारद! यों सावित्री और सत्यवान् दोनों जब घर पर चले आये, तब सावित्री ने सत्यवान् से तथा अन्य बान्धवों से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। फिर वर के प्रभाव से सावित्री के पिता क्रमशः सौ पुत्र वाले हो गये । उसके श्वशुर की आँखें ठीक हो गयीं और वे अपना राज्य पा गये । सावित्री स्वयं भी बहुत-से पुत्रों की जननी बन गयी। उस पतिव्रता सावित्री ने पुण्यभूमि भारतवर्ष में अनेक वर्षों तक सुख भोग किया। तत्पश्चात् वह अपने पति के साथ गोलोकधाम में चली गयी। जो सविता की अधिदेवी, सवितृदेवता के मन्त्रों की अधिष्ठात्री तथा वेदों की सावित्री (जननी) हैं, वे देवी इन्हीं गुणों के कारण ‘सावित्री’ कही गयी हैं । वत्स ! इस प्रकार सावित्री का श्रेष्ठ उपाख्यान तथा प्राणियों के कर्मविपाक – ये प्रसङ्ग तुम्हें बता दिये । अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय ३४) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्र्युपाख्याने सावित्र्या यमोपदेशसमाप्तिर्नाम चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related