ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 39
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
उनतालीसवाँ अध्याय
इन्द्र के द्वारा महालक्ष्मी के ध्यान तथा स्तवन किये जाने और पुनः अधिकार प्राप्त किये जाने का वर्णन

नारदजी ने कहा — प्रभो ! मैं भगवान् श्रीहरि का मङ्गलमय गुणानुवर्णन, उत्तम ज्ञान तथा भगवती लक्ष्मी का अभीष्ट उपाख्यान सुन चुका। अब आप ध्यान और स्तोत्र का प्रसङ्ग बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! प्राचीन समय की बात है, देवराज इन्द्र ने क्षीर-समुद्र के तट पर तीर्थ में स्नान किया, दो स्वच्छ वस्त्र पहने, एक कलश स्थापित किया और छः देवताओं की पूजा की। वे छः देवता हैं- गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और दुर्गा । इन देवताओं की गन्ध, पुष्प आदि उपचारों से भक्तिपूर्वक भली-भाँति पूजा करने के पश्चात् इन्द्र ने परम ऐश्वर्यस्वरूपिणी भगवती महालक्ष्मी का आवाहन किया। अपने पुरोहित बृहस्पति तथा ब्रह्माजी के बताये अनुसार पूजा सम्पन्न की।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मुने! उस समय उस पवित्र देश में अनेक मुनिगण, ब्राह्मण समाज, गुरुदेव, श्रीहरि, देववृन्द तथा आनन्दमय ज्ञानस्वरूप भगवान् शंकर विराजमान थे। नारद! देवराज ने पारिजात का चन्दन-चर्चित पुष्प लेकर भगवती महालक्ष्मी का ध्यान किया और उनकी पूजा की। पूर्वकाल में भगवान् श्रीहरि ने ब्रह्माजी को जो ध्यान बतलाया था, उसी सामवेदोक्त ध्यान से इन्द्र ने भगवती का चिन्तन किया। मैं वह ध्यान तुम्हें बताता हूँ, सुनो-

सहस्रदलपद्मस्य कर्णिकावासिनीं पराम् ।
शरत्पार्वणकोटीन्दुप्रभाजुष्टकरां वराम् ॥ १० ॥
स्वतेजसा प्रज्वलन्तीं सुखदृश्यां मनोहराम् ।
प्रतप्तकाञ्चननिभां शोभां मूर्तिमतीं सतीम् ॥ ११ ॥
रत्नभूषणभूषाढ्यां शोभितां पीतवाससा ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रम्यां सुस्थिरयौवनाम् ॥ १२ ॥
सर्वसम्पत्प्रदात्रीं च महालक्ष्मीं भजे शुभाम् ।
ध्यानेनानेन तां ध्यात्वा चोपहारैस्सुसंयुतः ॥ १३ ॥

‘परम पूज्या भगवती महालक्ष्मी सहस्र दल वाले कमल की कर्णिकाओं पर विराजमान हैं। इनकी सुन्दर साड़ी शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं की शोभा से सम्पन्न है । ये परम साध्वी देवी स्वयं अपने तेज से प्रकाशित हो रही हैं। इन परम मनोहर देवी का दर्शन पाकर मन आनन्द से खिल उठता है। इनकी अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है । रत्नमय भूषण इनकी छवि बढ़ा रहे हैं। इन्होंने पीताम्बर पहन रखा है। इन प्रसन्न वदनवाली भगवती महालक्ष्मी के मुख पर मुस्कान छा रही है । ये सदा युवावस्था से सम्पन्न रहती हैं और सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाली हैं। ऐसी कल्याणस्वरूपिणी भगवती महालक्ष्मी की मैं उपासना करता हूँ।’

नारद ! इस प्रकार ध्यान करके ब्रह्माजी के आज्ञानुसार सोलह प्रकार उपचारों से देवराज इन्द्र ने असंख्य गुणों वाली उन भगवती महालक्ष्मी पूजा की । प्रत्येक वस्तु को भक्तिपूर्वक मन्त्र पढ़ते हुए विधि के साथ समर्पण किया । अनेक प्रकार की उत्तम वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपस्थित कीं ।

[आसन]
प्रशंस्यानि प्रहृष्टानि दुर्लभानि वराणि च ।
अमूल्यरत्नखचितं निर्मितं विश्वकर्मणा ।
आसनं च विचित्रं च महालक्ष्मि प्रगृह्यताम् ॥ १५ ॥
‘भगवती महालक्ष्मी ! जो अमूल्य रत्नों का सार है तथा विश्वकर्मा जिसके निर्माता हैं, ऐसा यह विचित्र आसन सेवामें प्रस्तुत है, इसे स्वीकार कीजिये ।
[ पाद्य]
शुद्धं गङ्गोदकमिदं सर्ववन्दितमीप्सितम् ।
पापेध्मवह्निरूपं च गृह्यतां कमलालये ॥ १६ ॥
कमलालये! इस शुद्ध गङ्गाजल को सब लोग मस्तक पर चढ़ाते हैं। सभी को इसे पाने की इच्छा लगी रहती है । पापरूपी ईंधन को जलाने के लिये यह अग्निस्वरूप है । आप इसे पाद्यरूप में स्वीकार करें।
[अर्घ्य]
पुष्पचन्दनदूर्वादिसंयुतं जाह्नवीजलम् ।
शङ्खगर्भस्थितं शुद्धं गृह्यतां पद्मवासिनि ॥ १७ ॥
पद्मवासिनि ! शङ्ख में पुष्प, चन्दन, दूर्वा आदि श्रेष्ठ वस्तुएँ तथा गङ्गाजल रखकर शुद्ध अर्घ्य प्रस्तुत है । इसे ग्रहण कीजिये ।
[सुगन्धित तैल]
सुगन्धियुक्ततैलं च सुगन्धामलकीजलम् ।
देहसौन्दर्य्यबीजं च गृह्यतां श्रीहरिप्रिये ॥ १८ ॥
श्रीहरिप्रिये ! यह उत्तम गन्ध वाले पुष्पों से सुवासित तैल तथा सुगन्धपूर्ण आमलकी फल शरीर की सुन्दरता बढ़ाने का परम साधन है । आप इस स्नानोपयोगी वस्तु को स्वीकार करें ।
[धूप]
वृक्षनिर्यासरूपं च गन्धद्रव्यादिसंयुतम् ।
कृष्णकान्ते पवित्रो वै धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥ १९ ॥
श्रीकृष्णकान्ते ! वृक्ष का रस सूखकर निर्यास (गोंद) – के रूप में परिणत हो गया है। इसमें सुगन्धित द्रव्य मिला दिये गये हैं। ऐसा यह पवित्र धूप स्वीकार कीजिये ।
[ चन्दन]
मलयाचलसंभूतं वृक्षसारं मनोहरम् ।
सुगन्धियुक्तं सुखदं चन्दनं देवि गृह्यताम् ॥ २० ॥
देवि ! यह मनोहर चन्दन मलयगिरि से उत्पन्न हुआ है। यह चन्दन-वृक्ष का सार तत्त्व है, सुगन्धयुक्त एवं सुखदायक है । सेवामें समर्पित हुए इस चन्दन को स्वीकार करें ।
[ दीप]
जगच्चक्षुस्स्वरूपं च ध्वान्तप्रध्वंसकारणम् ।
प्रदीपं शुद्धरूपं च गृह्यतां परमेश्वरि ॥ २१ ॥
परमेश्वरि! जो जगत् के लिये चक्षुःस्वरूप है, जिसके सामने अन्धकार टिक नहीं सकता तथा जो शुद्धस्वरूप है, ऐसे इस प्रज्वलित दीप को स्वीकार कीजिये ।
[नैवेद्य]
नानोपहाररूपं च नानारससमन्वितम् ।
नानास्वादुकरं चैव नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ २२ ॥
देवि ! यह नाना प्रकार का उपहारस्वरूप नैवेद्य नाना प्रकार के रस से पूर्ण तथा विविध स्वाद से युक्त है । इसे स्वीकार कीजिये ।
[अन्न]
अन्नं ब्रह्मस्वरूपं च प्राणरक्षणकारणम् ।
तुष्टिदं पुष्टिदं चान्नं मधुरं प्रतिगृह्यताम् ॥ २३ ॥
देवि ! अन्न को ब्रह्मस्वरूप माना गया है। प्राण की रक्षा इसी पर निर्भर है। तुष्टि और पुष्टि प्रदान करना इसका सहज गुण है। आप इसे ग्रहण कीजिये ।
[खीर]
शाल्यक्षतसुपक्वं च शर्करागव्यसंयुतम् ।
सुस्वादु रम्यं पद्मे च परमान्नं प्रगृह्यताम् ॥ २४ ॥
महालक्ष्मी ! यह उत्तम पक्वान्न (खीर) चीनी और घृत से युक्त है, इसे अगहनी के चावल से तैयार किया गया है । आप कृपया इसे स्वीकार कीजिये ।
[स्वस्तिक नामक मिष्टान्न]
शर्करागव्यपक्वं च सुस्वादु सुमनोहरम् ।
मया निवेदितं लक्ष्मि स्वस्तिकं प्रतिगृह्यताम् ॥ २५ ॥
लक्ष्मि ! शर्करा और घृत में सिद्ध किया हुआ यह परम मनोहर स्वादिष्ट स्वस्तिक ( कल्याणप्रद सेवई) नामक नैवेद्य है । इसे आपकी सेवामें समर्पित किया गया है, स्वीकार करें।
[फल]
नानाविधानि रम्याणि पक्वानि च फलानि तु ।
स्वादुरस्यानि कमले गृह्यन्तां फलदानि च ॥ २६ ॥
कमले ! ये अनेक प्रकार के सुन्दर पके हुए फल हैं, जो स्वादिष्ट होने के साथ ही मनोवाञ्छित फल देने वाले हैं। इन्हें ग्रहण कीजिये ।
[दुग्ध]
सुरभिस्तनसम्भूतं सुस्वादु सुमनोहरम् ।
मर्त्यामृतं च गव्यं वै गृह्यतामच्युतप्रिये ॥ २७ ॥
अच्युतप्रिये ! सुरभी गौ के स्तन से निकला हुआ यह मृत्युलोक के लिये अमृतस्वरूप परम सुस्वादु दुग्ध है। आप इसे स्वीकार कीजिये ।
[गुड़]
सुस्वादुरससंयुक्तमिक्षुवृक्षरसोद्भवम् ।
अग्निपक्वमपक्वं वा गुडं वै देवि गृह्यताम् ॥ २८ ॥
देवि ! ईख के स्वादभरे रस को अग्नि पर पकाकर बनाया गया यह गुड़ है। इसे ग्रहण कीजिये ।
[मिष्टान्न]
यवगोधूमसस्यानां चूर्णरेणुसमुद्भवम् ।
सुपक्वगुडगव्याक्तं मिष्टान्नं देवि गृह्यताम् ॥ २९ ॥
देवि ! जौ, गेहूँ आदि के चूर्ण से तैयार किया हुआ यह मिष्टान्न है। गुड़ और घृत के साथ अग्नि पर यह सिद्ध किया गया है । इसे आप स्वीकार करें ।
[पिष्टक]
सस्यचूर्णोद्भवं पक्वं स्वस्तिकादिसमन्वितम् ।
मया निवेदितं देवि पिष्टकं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३० ॥
देवि ! धान्य के चूर्ण बनाये गये स्वस्तिक आदि चिह्नों से युक्त इस पिष्टक को भक्तिपूर्वक आपकी सेवामें समर्पित किया है; स्वीकार कीजिये ।
[ईख]
पार्थिवं वृक्षभेदं च विविधैर्द्रव्यकारकम् ।
सुस्वादु रससंयुक्तमैक्षवं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३१ ॥
देवि ! ईख इस भूतल का एक विशिष्ट वृक्ष है, इससे गुड़ आदि अनेक पदार्थ तैयार किये जाते हैं; अतः यह सुस्वादु रस से युक्त ईख सेवामें अर्पित है। इसे ग्रहण करें ।
[व्यजन]
शीतवायुप्रदं चैव दाहे च सुखदं परम् ।
कमले गृह्यतां चेदं व्यजनं श्वेतचामरम् ॥ ३२ ॥
कमले ! शीतल वायु प्रदान करने वाला यह व्यजन तथा स्वच्छ चँवर उष्णकाल के लिये परम सुखदायी है । इसे ग्रहण कीजिये ।
[ताम्बूल]
ताम्बूलं च वरं रम्यं कर्पूरादिसुवासितम् ।
जिह्वाजाड्यच्छेदकरं ताम्बूलं देवि गृह्यताम् ॥ ३३ ॥
देवि ! यह उत्तम ताम्बूल कर्पूर आदि सुगन्धित वस्तुओं से सुवासित एवं जिह्वा को स्फूर्ति प्रदान करने वाला है । इसे आप स्वीकार कीजिये ।
[जल]
सुवासितं शीतलं च पिपासानाशकारणम् ।
जगज्जीवनरूपं च जीवनं देवि गृह्यताम् ॥ ३४ ॥
देवि ! प्यास को शान्त करने वाला अत्यन्त शीतल, सुवासित एवं जगत् के लिये जीवन-स्वरूप यह जल स्वीकार कीजिये ।
[माल्य]
देहसौन्दर्य्यबीजं च सदा शोभाविवर्द्धनम् ।
कार्पासजं च कृमिजं वसनं देवि गृह्यताम् ॥ ३५ ॥
देवि ! विविध ऋतुओं के पुष्पों से गूँथी गयी, असीम शोभा को देने वाली तथा देवराज के लिये भी परम प्रिय इस पवित्र माला को स्वीकार करें ।
[शय्या]
रत्नस्वर्णविकारं च देहसौख्यविवर्द्धनम् ।
शोभाधानं श्रीकरं च भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३६ ॥
देवि ! यह अमूल्य रत्नों से बनी हुई सुन्दर शय्या वस्त्र और आभूषणों से सजायी गयी है, पुष्प और चन्दन से चर्चित है। इसे आप स्वीकार करें ।
[अपूर्व द्रव्य]
नानाकुसुमसन्दर्भं बहुशोभाप्रदं परम् ।
सुरलोकप्रियं शुद्धं माल्यं देवि प्रगृह्यताम् ॥ ३७ ॥
देवि ! यही नहीं, किंतु पृथ्वी पर जितने भी अपूर्व द्रव्य शरीर को सजाने के लिये परम उपयोगी हैं तथा देवराज इन्द्र के भी योग्य हैं, वे दुर्लभ वस्तुएँ आपकी सेवामें उपस्थित हैं। इन्हें स्वीकार करें ।
[गन्ध द्रव्य]
शुद्धिदं शुद्धिरूपं च सर्वमङ्गलमङ्गलम् ।
गन्धवस्तूद्भवं रम्यं गन्धं देवि प्रगृह्यताम् ॥ ३८ ॥
हे देवि ! शुद्धिप्रद, शुद्धिरूप, सभी मंगलों के मंगल, सुगन्धित वस्तु से उत्पन्न और रम्य इस गन्ध को स्वीकार करो ।
[आचमनीय]
पुण्यतीर्थोदकं चैव विशुद्धं शुद्धिदं सदा ।
गृहाण कृष्णकान्ते त्वं रम्यमाचमनीयकम् ॥ ३९ ॥
कृष्णकान्ते ! यह पवित्र तीर्थ-जल, स्वयं शुद्ध तथा अन्य को भी सदा शुद्ध करने वाला है । इसे आप रम्य आचमनीय के रूप में स्वीकार करें।
[शय्या]
रत्नसारैस्संग्रथितं पुष्पचन्दनसंयुतम् ।
रत्नभूषणभूषाढ्यं सुतल्पं प्रतिगृह्यताम् ॥ ४० ॥
रत्नों के सार भाग से सिली हुई, पुष्प चन्दन युक्त एवं रत्नों के भूषणों से सुशोभित, इस सुन्दर शय्या को ग्रहण करो।
[राजसी द्रव्य]
यद्यद्द्रव्यमपूर्वं च पृथिव्यामस्ति दुर्लभम् ।
देवभूषाढ्यभोग्यं च तद्द्रव्यं देवि गृह्यताम् ॥ ४१ ॥
हे देवि ! इस धरातल पर जो-जो अपूर्व- अत्यन्त दुर्लभ तथा देवताओं और राजाओं के उपभोग के योग्य द्रव्य है उसे स्वीकार करो ।

मुने! देवराज इन्द्र ने इस सूत्ररूप मन्त्र को पढ़कर भगवती महालक्ष्मी को उपर्युक्त द्रव्य समर्पण करने के पश्चात् भक्तिपूर्वक विधिसहित उनके मूलमन्त्र का दस लाख जप किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें मन्त्र-सिद्धि प्राप्त हो गयी । यह मूल-मन्त्र सभी के लिये कल्पवृक्ष के समान है । ब्रह्माजी की कृपा से यह उन्हें प्राप्त हुआ था । पूर्व में श्रीबीज (श्रीं), मायाबीज (ह्रीं), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (ऐं) का प्रयोग करके ‘कमलवासिनी’ इस शब्द के अन्त में ‘ङे’ विभक्ति लगाने पर अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द जोड़ दिया जाय (श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा ) – यही इस मन्त्रराज का स्वरूप है। कुबेर ने इसी मन्त्र से भगवती महालक्ष्मी की आराधना करके परम ऐश्वर्य प्राप्त किया । इसी मन्त्र के प्रभाव से दक्षसावर्णि मनु को राजाधिराज की पदवी प्राप्त हुई है तथा मङ्गल सातों द्वीपों के राजा हुए हैं। नारद! प्रियव्रत, उत्तानपाद तथा राजा केदार – इन सिद्धपुरुषों को राजेन्द्र कहलाने का सौभाग्य इसी मन्त्र ने दिया है ।

इस मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर भगवती महालक्ष्मी ने इन्द्र को दर्शन दिये। उस समय वे वरदायिनी सर्वोत्तम रत्न से निर्मित विमान पर विराजमान थीं और अपनी प्रभा से सप्तद्वीपवती पृथ्वी को आच्छादित कर रही थीं। उनकी अङ्गकान्ति श्वेत चम्पा के पुष्प के समान थी । रत्नमय भूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। उनके मुख पर मुस्कान छायी थी । भक्त पर कृपा करने के लिये वे परम आतुर थीं। उनके गले में रत्नों का हार शोभा पा रहा था । असंख्य चन्द्रमा के समान उनकी प्रभा थी । ऐसी शान्तस्वरूपा जगदम्बा भगवती महालक्ष्मी को देखकर देवराज इन्द्र उनकी स्तुति करने लगे। उस समय इन्द्र के सर्वाङ्ग में पुलकावली छा गयी थी। उनके नेत्र आनन्द के आँसुओं से पूर्ण थे और उनकी अञ्जलि बँधी थी । ब्रह्माजी की कृपा से सम्पूर्ण अभीष्ट प्रदान करने वाला वैदिक स्तोत्रराज उन्हें स्मरण था । इसी को पढ़कर उन्होंने स्तुति आरम्भ की।

॥ इन्द्र उवाच ॥
ॐ नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नमः ।
कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो नमः ॥ ५२ ॥
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नमः ।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥ ५३ ॥
सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै नमो नमः ।
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो नमः ॥ ५४ ॥
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नमः ।
कृष्णवक्षस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः ॥ ५५ ॥
कृष्णशोभास्वरू पायै रत्नाढ्यायै नमो नमः ।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नमः ॥ ५६ ॥
सस्याधिष्ठातृदेव्यै च सस्यलक्ष्म्यै नमो नमः ।
नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो नमः ॥ ५७ ॥
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्लक्ष्मीः क्षीरोदसागरे ।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥ ५८ ॥
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता ।
सुरभिस्सा गवां माता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥ ५९ ॥
अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये ।
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ॥ ६० ॥
त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥ ६१ ॥
क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च शुभानना ।
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ॥ ६२ ॥
यया विना जगत्सर्वं भस्मीभूतमसारकम् ।
जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया विना ॥ ६३ ॥
सर्वेषां च परा त्वं हि सर्वबान्धवरूपिणी ।
यया विना न संभाष्यो बान्धवैर्बान्धवः सदा ॥ ६४ ॥
त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्तः सबान्धवः ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥ ६५ ॥
स्तनन्धयानां त्वं माता शिशूनां शैशवे यथा ।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वविश्वतः ॥ ६६ ॥
त्यक्तस्तनो मातृहीनः स चेज्जीवति दैवतः ।
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥ ६७ ॥
सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मे प्रसन्ना भवाम्बिके ।
वैरिग्रहस्तद्विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥ ६८ ॥
वयं यावत्त्वया हीना बन्धुहीनाश्च भिक्षुकाः ।
सर्वसंपद्विहीनाश्च तावदेव हरिप्रिये ॥ ६९ ॥
राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि ।
कीर्तिं देहि धनं देहि पुत्रान्मह्यं च देहि वै ॥ ७० ॥
कामं देहि मतिं देहि भोगान्देहि हरिप्रिये ।
ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ॥ ७१ ॥
सर्वाधिकारमेवं वै प्रभावं च प्रतापकम् ।
जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्य्यमेव च ॥ ७२ ॥

देवराज इन्द्र बोले — भगवती कमलवासिनी को नमस्कार है। देवी नारायणी को बार-बार नमस्कार है । संसार की सारभूता कृष्णप्रिया भगवती पद्मा को अनेकशः नमस्कार है । कमलरत्न के समान नेत्रवाली कमलमुखी भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार है । पद्मासना, पद्मिनी एवं वैष्णवी नाम से प्रसिद्ध भगवती महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है । सर्वसम्पत्स्वरूपिणी सर्वदात्री देवी को नमस्कार है। सुखदायिनी, मोक्षदायिनी और सिद्धिदायिनी देवी को बारंबार नमस्कार है। भगवान् श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करनेवाली तथा हर्ष प्रदान करने में परम कुशल देवी को बार-बार नमस्कार है । भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर विराजमान एवं उनकी हृदयेश्वरी देवी को बारंबार प्रणाम है। रत्नपद्मे ! शोभने ! तुम श्रीकृष्ण की शोभास्वरूपा हो, सम्पूर्ण सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी एवं महादेवी हो; तुम्हें मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ । शस्य की अधिष्ठात्री देवी एवं शस्यस्वरूपा हो, तुम्हें बारंबार नमस्कार है । बुद्धिस्वरूपा एवं बुद्धिप्रदा भगवती के लिये अनेकशः प्रणाम है। देवि! तुम वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, क्षीरसमुद्र में लक्ष्मी, राजाओं के भवन में राजलक्ष्मी, इन्द्र के स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, गृहस्थों के घरमें गृहलक्ष्मी, प्रत्येक घर में गृहदेवता, गोमाता सुरभि और यज्ञ की पत्नी दक्षिणा के रूप में विराजमान रहती हो। तुम देवताओं की माता अदिति हो । कमलालयवासिनी कमला भी तुम्हीं हो। हव्य प्रदान करते समय ‘स्वाहा’ और कव्य प्रदान करने के अवसर पर ‘स्वधा’ का जो उच्चारण होता है, वह तुम्हारा ही नाम है। सबको धारण करनेवाली विष्णुस्वरूपा पृथ्वी तुम्हीं हो। भगवान् नारायण की उपासना में सदा तत्पर रहने वाली देवि! तुम शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हो। तुममें क्रोध और हिंसा के लिये किञ्चिन्मात्र भी स्थान नहीं है। तुम्हें वरदा, शारदा, शुभा, परमार्थदा एवं हरिदास्यप्रदा कहते हैं । तुम्हारे बिना सारा जगत् भस्मीभूत एवं निःसार है। जीते-जी ही मृतक है, शव तुल्य है। तुम सम्पूर्ण प्राणियों की श्रेष्ठ माता हो। सबके बान्धवरूप में तुम्हारा ही पधारना हुआ ‘ है । तुम्हारे बिना भाई भी भाई-बन्धुओं के लिये बात करने योग्य भी नहीं रहता है। जो तुमसे हीन है, वह बन्धुजनों से हीन है तथा जो तुमसे युक्त है, वह बन्धुजनों से भी युक्त है। तुम्हारी ही कृपा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार बचपन में दुधमुँहे बच्चों के लिये माता है, वैसे ही तुम अखिल जगत् की जननी होकर सबकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण किया करती हो । स्तनपायी बालक माता के न रहने पर भाग्यवश जी भी सकता है; परंतु तुम्हारे बिना कोई भी नहीं जी सकता । यह बिलकुल निश्चित है। अम्बिके! सदा प्रसन्न रहना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है । अतः मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। सनातनी ! मेरा राज्य शत्रुओं के हाथ में चला गया है, तुम्हारी कृपा से वह मुझे पुनः प्राप्त हो जाय । हरिप्रिये ! मुझे जब तक तुम्हारा दर्शन नहीं मिला था, तभी तक मैं बन्धुहीन, भिक्षुक तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों से शून्य था । सुरेश्वरि ! अब तो मुझे राज्य दो, श्री दो, बल दो, कीर्ति दो, धन दो और यश भी प्रदान करो। हरिप्रिये ! मनोवाञ्छित वस्तुएँ दो, बुद्धि दो, भोग दो, ज्ञान दो, धर्म दो तथा सम्पूर्ण अभिलषित सौभाग्य दो । इसके सिवा मुझे प्रभाव, प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, युद्ध में विजय, पराक्रम तथा परम ऐश्वर्य की प्राप्ति भी कराओ।

नारद ! इस प्रकार कहकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ देवराज इन्द्र ने मस्तक झुकाकर भगवती महालक्ष्मी को बार-बार प्रणाम किया । उस समय उनकी आँखों में प्रेमानन्द के आँसू भर आये थे । देवताओं के कल्याणार्थ ब्रह्मा, शंकर, शेषनाग, धर्म तथा केशव – इन सभी महानुभावों ने भगवती महालक्ष्मी से प्रार्थना की। तब उस देवसभा में शोभा पानेवाली भगवती प्रसन्न हो गयीं। उन्होंने देवताओं को वर दिया और भगवान् श्रीकृष्ण को मनोहर पुष्पमाला समर्पण की। सभी देवता अपने-अपने स्थान पर चले गये । स्वयं भगवती महालक्ष्मी क्षीरशायी भगवान् श्रीहरि के वक्षःस्थल पर प्रसन्नतापूर्वक पधार गयीं । मुने! ब्रह्मा और शंकर भी देवताओं को शुभ आशीर्वाद देकर प्रसन्नता प्रकट करते हुए अपने-अपने धाम को चले गये ।

इदं स्तोत्रं महापुण्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
कुबेरतुल्यः स भवेद्राजराजेश्वरो महान् ॥ ७८ ॥
सिद्धस्तोत्रं यदि पठेत्सोऽपि कल्पतरुर्नरः ।
पञ्चलक्ष जपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ ७९ ॥
सिद्धिःस्तोत्रं यदि पठेन्मासमेकं च संयतः ।
महासुखी च राजेन्द्रो भविष्यति न संशयः ॥ ८० ॥

यह स्तोत्र महान् पवित्र है । इसका त्रिकाल पाठ करनेवाला बड़भागी पुरुष कुबेर के समान राजाधिराज हो सकता है । पाँच लाख जप करने पर मनुष्यों के लिये यह स्तोत्र सिद्ध होता है । यदि इस सिद्ध स्तोत्र का कोई निरन्तर एक महीने तक पाठ करे तो वह महान् सुखी एवं राजेन्द्र हो जायगा- इसमें कोई संशय नहीं है। (अध्याय ३९ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे लक्ष्मीपूजाविधानं नामैकोनचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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