January 26, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 08 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ आठवाँ अध्याय पृथ्वी की उत्पत्ति का प्रसङ्ग, ध्यान और पूजन का प्रकार तथा स्तुति नारदजी ने कहा — भगवन् ! आपने बतलाया है कि श्रीकृष्ण के निमेषमात्र में ब्रह्मा की आयु पूरी हो जाती है। उन का सत्ता-शून्य हो जाना ही ‘प्राकृतिक प्रलय’ कहा जाता है। उस समय पृथ्वी अदृश्य हो जाती है । सम्पूर्ण विश्व जल में डूब जाता है । सब-के-सब परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं। तब उस समय पृथ्वी छिपकर कहाँ रहती है और सृष्टि के समय वह पुनः कैसे प्रकट हो जाती है ? धन्या, मान्या, सबकी आश्रयरूपा एवं विजयशालिनी होने का सौभाग्य उसे पुनः कैसे प्राप्त होता है ? प्रभो ! अब आप पृथ्वी की उत्पत्ति के मङ्गलमय चरित्र को सुनाने की कृपा कीजिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् नारायण बोले — नारद! श्रुति कहती है कि सम्पूर्ण सृष्टियों के आरम्भ में श्रीकृष्ण से ही सबकी उत्पत्ति होती है और समस्त प्रलयों के अवसर पर प्राणी उन्हीं में लीन भी हो जाते हैं । अब पृथ्वी के जन्म का प्रसङ्ग सुनो । कुछ लोग कहते हैं, यह आदरणीया पृथ्वी मधु और कैटभ के मेद से उत्पन्न हुई है । इस का भाव यह है कि उन दैत्यों के जीवन काल में पृथ्वी स्पष्ट दिखलायी नहीं पड़ती थी। वे जब मर गये, तब उन के शरीर से मेद निकला — वही सूर्य के तेज से सूख गया। अतः ‘मेदिनी’ इस नाम से पृथ्वी विख्यात हुई। इस मत का स्पष्टीकरण सुनो। पहले सर्वत्र जल-ही-जल दृष्टिगोचर हो रहा था । पृथ्वी जल से ढकी थी। मेद से केवल उसका स्पर्श हुआ। अतः लोग उसे ‘मेदिनी’ कहने लगे। मुने ! अब पृथ्वी के सार्थक जन्म का प्रसङ्ग कहता हूँ । यह चरित्र सम्पूर्ण मङ्गल प्रदान करनेवाला है । मैं पुष्करक्षेत्र में था। महाभाग धर्म के मुख से जो कुछ सुन चुका हूँ, वही तुम से कहूँगा । महाविराट् पुरुष अनन्त काल से जल में विराजमान रहते हैं – यह स्पष्ट है । समयानुसार उनके भीतर सर्वव्यापी समष्टि (सर्वाङ्गव्यापी) मल प्रकट होता है । महाविराट् पुरुष के सभी रोमकूप उसके आश्रय बन जाते हैं । मुने ! उन्हीं रोमकूपों से पृथ्वी निकल आती है । जितने रोमकूप हैं, उन सबमें से एक-एक से जलसहित पृथ्वी बार-बार प्रकट होती और छिपती रहती है। सृष्टि के समय प्रकट होकर के ऊपर स्थिर रहना और प्रलय काल उपस्थित होने पर छिपकर जल के भीतर चले जाना – यही इसका नियम है। अखिल ब्रह्माण्ड में यह विराजती है। वन और पर्वत इसकी शोभा बढ़ाये रहते हैं । यह सात समुद्रों से घिरी रहती है। सात द्वीप इसके अङ्ग हैं। हिमालय और सुमेरु आदि पर्वत तथा सूर्य एवं चन्द्रमा प्रभृति ग्रह इसे सदा सुशोभित करते हैं। महाविराट् की आज्ञा के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवता प्रकट होते एवं समस्त प्राणी इस पर रहते हैं । पुण्यतीर्थ तथा पवित्र भारतवर्ष – जैसे देशों से सम्पन्न होने का इसे सुअवसर मिलता है। यह पृथ्वी स्वर्णमय भूमि है । इस पर सात स्वर्ग हैं। इस के नीचे सात पाताल हैं। ऊपर ब्रह्मलोक है । ब्रह्मलोक से भी ऊपर ध्रुवलोक है। नारद ! इस प्रकार इस पृथ्वी पर अखिल विश्व का निर्माण हुआ है। ये निर्मित सभी विश्व नश्वर हैं । यहाँ तक कि ‘प्राकृत प्रलय’ का अवसर आने पर ब्रह्मा भी चले जाते हैं । उस समय केवल महाविराट् पुरुष विद्यमान रहते हैं । कारण, सृष्टि के आरम्भ में ही परब्रह्म श्रीकृष्ण ने इन्हें प्रकट करके इस कार्य में नियुक्त कर दिया है। सृष्टि और प्रलय प्रवाहरूप से नित्य हैं – इनका क्रम निरन्तर चालू रहता है। ये समय पर नियन्त्रण रखने वाली अदृष्ट शक्ति के अधीन होकर रहते हैं । प्रवाहक्रम से पृथ्वी भी नित्य है । वाराहकल्प में यह मूर्तिमान् रूप से विराजमान हुई थी और देवताओं ने इसका पूजन किया था। मुनि, मनु, गन्धर्व और ब्राह्मण – प्रायः सभी इसकी पूजा में सम्मिलित हुए थे। उस समय भगवान् का वाराहावतार हुआ था । श्रुति मत से यह पृथ्वी उनकी पत्नी के रूप में विराजमान हुई । इससे मङ्गल का जन्म हुआ और मङ्गल से घटेश (सुयशा )की उत्पत्ति हुई । नारद ने पूछा — प्रभो ! देवताओं ने वाराहकल्प में पृथ्वी की किस रूप से पूजा की थी ? सबको आश्रय प्रदान करने वाली इस साध्वी देवी की उस कल्प में स्वयं भगवान् वाराह ने तथा अन्य सबने भी पूजा की थी। भगवन्! इसके पूजन का विधान, जल के नीचे से इस के ऊपर उठने का क्रम एवं मङ्गल के जन्म का कल्याणमय प्रसङ्ग विस्तारपूर्वक बताने की कृपा कीजिये । भगवान् नारायण बोले — नारद! बहुत पहले की बात है । उस समय वाराहकल्प चल रहा था। ब्रह्मा स्तुति करने पर भगवान् श्रीहरि हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी को रसातल से निकाल ले आये । उसे जल पर इस प्रकार रख दिया, मानो तालाब में कमल का पत्ता हो। उसी पर ब्रह्मा ने सम्पूर्ण मनोहर विश्व की रचना की । पृथ्वी की अधिष्ठात्री एक परम सुन्दरी देवी के रूप में थी । उसे देखकर भगवान् श्रीहरि के मन में प्रेम हो गया। भगवान् वाराह की कान्ति ऐसी थी, मानो करोड़ों सूर्य हों। उन्होंने अपना रूप परम मनोहर बना लिया तथा रति के योग्य एक शय्या तैयार की। फिर उस देवी के साथ एक दिव्य वर्ष तक वे एकान्त में रहे। इस के बाद उन्होंने उस सुन्दरी देवी का संग छोड़ दिया और खेल-ही-खेल में वे अपने पूर्व वाराहरूप से विराजमान हो गये। उन्होंने परम साध्वी देवी पृथ्वी का ध्यान और पूजन किया । धूप, दीप, नैवेद्य, सिन्दूर, चन्दन, वस्त्र, फूल और बलि आदि सामग्रियों से पूजा कर के भगवान् ने उससे कहा । श्रीभगवान् बोले — शुभे ! तुम सब को आश्रय प्रदान करने वाली बनो। मुनि, मनु, देवता, सिद्ध और दानव आदि सब से सुपूजित होकर तुम सुख पाओगी। अम्बुवाची सौरमान से आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में पृथ्वी ऋतुमती रहती है। इतने समय का नाम अम्बुवाची है ।के अतिरिक्त दिन में गृहप्रवेश, गृहारम्भ, वापी एवं तड़ाग के निर्माण अथवा अन्य गृह कार्य के अवसर पर देवता आदि सभी लोग मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारी पूजा करेंगे। जो मूर्ख तुम्हारी पूजा नहीं करना चाहेंगे, उन्हें नरक में जाना पड़ेगा । उस समय पृथ्वी गर्भवती हो चुकी थी । उसी गर्भ से तेजस्वी मङ्गल नामक ग्रह की उत्पत्ति हुई । भगवान् की आज्ञा के अनुसार उपस्थित सम्पूर्ण व्यक्ति पृथ्वी की उपासना करने लगे । कण्वशाखा में कहे हुए मन्त्रों को पढ़कर उन्होंने ध्यान किया और स्तुति की। मूलमन्त्र पढ़कर नैवेद्य अर्पण किया। यों त्रिलोकी-भर में पृथ्वी की पूजा और स्तुति होने लगी । नारदजी ने कहा — भगवन् ! पृथ्वी का किस प्रकार ध्यान किया जाता है, इस की पूजा का प्रकार क्या है और कौन मूलमन्त्र है ? सम्पूर्ण पुराणों में छिपे हुए इस प्रसङ्ग को सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है । अतः बताने की कृपा कीजिये । भगवान् नारायण कहते हैं — मुने! सर्वप्रथम भगवान् वाराह ने इस पृथ्वी की पूजा की। उनके पश्चात् ब्रह्मा उसके पूजन में संलग्न हुए। तदनन्तर सम्पूर्ण प्रधान मुनियों, मनुओं और मानवों द्वारा इसका सम्मान हुआ । नारद! अब मैं इसका ध्यान, पूजन और मन्त्र बतलाता हूँ, सुनो। ‘ॐ ह्रीं श्रीं वसुधायै स्वाहा’ इसी मन्त्र से भगवान् विष्णु ने इस का पूजन किया था। ध्यान का प्रकार यह है- श्वेतचम्पकवर्णाभां शतचन्द्रसमप्रभाम् । चन्दनोक्षितसर्वाङ्गीं सर्वभूषणभूषिताम् ॥ ५० ॥ रत्नाधारां रत्नगर्भां रत्नाकरसमन्विताम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां सस्मितां वन्दितां भजे ॥ ५१ ॥ ‘पृथ्वी देवी के श्रीविग्रह का वर्ण स्वच्छ कमल के समान उज्ज्वल है। मुख ऐसा जान पड़ता है, मानो शरत्पूर्णिमा का चन्द्रमा हो । सम्पूर्ण अङ्गों में ये चन्दन लगाये रहती हैं। रत्नमय अलंकारों से इनकी अनुपम शोभा होती है। ये समस्त रत्नों की आधारभूता और रत्नगर्भा हैं। रत्नों की खानें इनको गौरवान्वित किये हुए हैं। ये विशुद्ध चिन्मय वस्त्र धारण किये रहती हैं। इनके मुख पर मुस्कान छायी रहती है। सभी लोग इनकी वन्दना करते हैं। ऐसी भगवती पृथ्वी की मैं आराधना करता हूँ ।’ इसी प्रकार ध्यान करने से सब लोगों द्वारा पृथ्वी की पूजा सम्पन्न होती है । विप्रेन्द्र ! अब कण्वशाखा में प्रतिपादित इनकी स्तुति सुनो। ॥ विष्णुरुवाच ॥ यज्ञसूकरजाया त्वं जयं देहि जयावहे । जयेऽजये जयाधारे जयशीले जयप्रदे ॥ ५३ ॥ सर्वाधारे सर्वबीजे सर्वशक्तिसमन्विते । सर्वकामप्रदे देवि सर्वेष्टं देहि मे स्थिरे ॥ ९४ ॥ सर्वसस्यालये सर्वसस्याड्ये सर्वसस्यदे । सर्वसस्यहरे काले सर्वसस्यात्मिके क्षिते ॥ ५५ ॥ मङ्गले मङ्गलाधारे माङ्गल्ये मङ्गलप्रदे । मङ्गलार्थे मङ्गलांशे मंगलं देहि मे परम् ॥ ५६ ॥ भूमे भूमिपसर्वस्वे भूमिपालपरायणे । भूमिपाहङ्काररूपे भूमिं देहि वसुन्धरे ॥ ५७ ॥ भगवान् विष्णु बोले — विजय की प्राप्ति करानेवाली वसुधे ! मुझे विजय दो। तुम भगवान् यज्ञवराह की पत्नी हो । जये ! तुम्हारी कभी पराजय नहीं होती है। तुम विजय का आधार, विजयशील और विजयदायिनी हो । देवि! तुम्हीं सबकी आधारभूमि हो । सर्वबीज-स्वरूपिणी तथा सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न हो। समस्त कामनाओं को देने वाली देवि! तुम इस संसार में मुझे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु प्रदान करो। तुम सब प्रकार के शस्यों का घर हो । सब तरह के शस्यों से सम्पन्न हो । सभी शस्यों को देने वाली हो तथा समय विशेष में समस्त शस्यों का अपहरण भी कर लेती हो। इस संसार में तुम सर्वशस्य-स्वरूपिणी हो । मङ्गलमयी देवि! तुम मङ्गल का आधार हो । मङ्गल के योग्य हो । मङ्गलदायिनी हो । मङ्गलमय पदार्थ तुम्हारे स्वरूप हैं । मङ्गलेश्वरि ! तुम जगत् में मुझे मङ्गल प्रदान करो । भूमे ! तुम भूमिपालों का सर्वस्व हो, भूमिपाल-परायणा हो तथा भूपालों के अहंकार का मूर्तरूप हो । भूमिदायिनी देवि ! मुझे भूमि दो । इदं स्तोत्रं महापुण्यं तां संपूज्य च यः पठेत् । कोट्यन्तरे जन्मनि स संभवेद्भूमिपेश्वरः ॥ ५८ ॥ भूमिदानकृतं पुण्यं लभते पठनाज्जनः । दत्तापहारजात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ५९ ॥ अम्बुवीचीभूखननात्पापान्मुच्येत स ध्रुवम् । अन्यकूपे कुपदजात्पापान्मुच्येत स ध्रुवम् ॥ ६० ॥ परभूश्राद्धजात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः । भूमौ वीर्य्यत्यागपापाद्दीपादिस्थापनात्तथा ॥ ६१ ॥ पापेन मुच्यते प्राज्ञः स्तोत्रस्य पठनान्मुने । अश्वमेधशतं पुण्यं लभते नात्र संशयः॥ ६२ ॥ नारद ! यह स्तोत्र परम पवित्र है । जो पुरुष पृथ्वी का पूजन करके इसका पाठ करता है, उसे अनेक जन्मों तक भूपाल-सम्राट् होने का सौभाग्य प्राप्त होता है । इसे पढ़ने से मनुष्य पृथ्वी के दान से उत्पन्न पुण्य के अधिकारी बन जाते हैं । पृथ्वी-दान के अपहरण से, दूसरे के कुएँ को बिना उसकी आज्ञा लिये खोदने से, अम्बुवाची योग में पृथ्वी को खोदने से और दूसरे की भूमि का अपहरण करने से जो पाप होते हैं, उन पापों से इस स्तोत्र का पाठ करने पर मनुष्य छुटकारा पा जाता है, इस में संशय नहीं है। मुने! पृथ्वी पर वीर्य त्यागने तथा दीपक रखने से जो पाप होता है, उस से भी पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करने से मुक्त हो जाता है। (अध्याय ८) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे पृथिव्युपाख्याने पृथिवीस्तोत्रं नामाष्टमोऽध्यायः॥ ८ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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