ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 11
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
ग्यारहवाँ अध्याय
सूर्य के अनुरोध से सुतपा का अश्विनी कुमारों को शाप मुक्त करना तथा संध्या-निरत वैष्णव ब्राह्मण की प्रशंसा

शौनक जी ने पूछा — महाभाग सूतनन्दन! उस ब्राह्मण ने अपनी पत्नी का त्याग करके शेष जीवन में कौन-सा कार्य किया? अश्विनी कुमारों के नाम क्या हैं? वे दोनों किसके वंशज हैं?

सौति बोले – ब्रह्मन! उन ब्राह्मण देवता का नाम सुतपा था। वे भरद्वाज कुल में उत्पन्न बहुत बड़े मुनि थे। उन्होंने पहले हिमालय पर रहकर भगवान् श्रीकृष्ण (विष्णु) की प्रसन्नता के लिये दीर्घकाल तक तपस्या की थी। उस समय वे महातपस्वी और तेजस्वी मुनि ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान दिखायी देते थे। एक दिन उन्हें सहसा आकाश में क्षण भर के लिये श्रीकृष्ण-ज्योति का दर्शन हुआ। उस बेला में उन्होंने भगवान् से यह वर माँगा — ‘प्रभो! मैं आत्मनिष्ठ हो प्रकृति से परे सर्वथा निर्लिप्त रहूँ।’ उन्होंने मोक्ष नहीं माँगा, भगवान् से उनकी अविचल दास्य-भक्ति के लिये याचना की। तब आकाशवाणी हुई — ‘ब्रह्मन! पहले स्त्री-परिग्रह (विवाह) करो। उसके बाद भोग-सम्बन्धी प्रारब्ध के क्षीण हो जाने पर मैं तुम्हें अपनी दास्य-भक्ति दूँगा।’

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पितॄणां मानसीं कन्यां ददौ तस्मै विधिः स्वयम् ।
तस्यां कल्याणमित्रश्च बभूव मुनिपुङ्गव ॥ ६ ॥
यस्य स्मरणमात्रेण न भवेत्कुलिशाद्भयम् ।
न द्रष्टव्यं बन्धुमात्रं नूनं तत्स्मरणाल्लभेत् ॥ ७ ॥

तदनन्तर स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें पितरों की मानसी कन्या प्रदान की । मुनिप्रवर शौनक ! उसके गर्भ से ‘कल्याणमित्र’ नामक पुत्र का जन्म हुआ । उस बालक के स्मरणमात्र से किसी को अपने ऊपर वज्र या बिजली गिरने का भय नहीं रहता । इतना ही नहीं, कल्याणमित्र के स्मरण से निश्चय ही उन बन्धुजनों की भी प्राप्ति हो जाती है, जिनका दर्शन असम्भव होता है ।

तदनन्तर महामुनि सुतपा ने किसी कारणवश कल्याणमित्र की माता का परित्याग करके उसी समय सहसा पूर्वापराध का स्मरण हो आने से सूर्यपुत्र अश्विनी कुमार को भी शाप दिया — ‘देवाधम! तू अपने भाई के साथ यज्ञ भाग से वंचित और अपूज्य हो जा । तेरा अंग व्याधिग्रस्त और जड हो जाय। तू अकीर्तिमान् (कलंकयुक्त) हो जा ।’ यों कहकर सुतपा अपने पुत्र कल्याण मित्र के साथ घर चले गये। तब सूर्य देवता दोनों अश्विनी कुमारों के साथ उनके निकट गये ।

शौनक! त्रिलोकीनाथ सूर्य ने अपने रोगग्रस्त पुत्रों के साथ मुनिवर सुतपा का दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए कहा।

॥ सूर्य्य उवाच ॥
क्षमस्व भगवन्विप्र विष्णुरूप युगे युगे ।
मम पुत्रापराधं च भारद्वाज मुनीश्वर ॥ १२ ॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाद्याः सुराः सर्वे च सन्ततम् ।
भुञ्जते विप्रदत्तं तु फलपुष्पजलादिकम् ॥ १३ ॥
ब्राह्मणावाहिता देवाः शश्वद्विश्वेषु पूजिताः ।
न च विप्रात्परो देवो विप्ररूपी स्वयं हरिः ॥ १४ ॥
ब्राह्मणे परितुष्टे च तुष्टो नारायणः स्वयम् ।
नारायणे च सन्तुष्टे सन्तुष्टाः सर्वदेवताः ॥ १५ ॥
नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः ।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा ॥ १६ ॥
न च सत्यात्परो धर्मो न साध्वी पार्वतीपरा ।
न दैवाद्बलवान्कश्चिन्न च पुत्रात्परः प्रियः ॥ १७ ॥
न च व्याधिसमः शत्रुर्न च पूज्यो गुरोः परः ।
नास्ति मातृसमो बन्धुर्न च मित्रं पितुः परम् ॥ १८ ॥
एकादशीव्रतान्नान्यत्तपो नानशनात्परम् ।
परं सर्वधनं रत्नं विद्या रत्नं परं ततः ॥ १९ ॥
सर्वाश्रमैः परो विप्रो नास्ति विप्रसमो गुरुः।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञ इत्याह कमलोद्भवः ॥ २० ॥

एतत्सूर्यकृतं विप्रस्तोत्रं यो मानवः पठेत् ।
विप्रपादप्रसादेन सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ २४ ॥

सूर्य बोले — भगवन् ! युग-युग में प्रकट होने वाले विष्णु स्वरूप ब्राह्मण देवता ! मुनीश्वर भारद्वाज ! आप मेरे पुत्रों का अपराध क्षमा करें । ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर आदि सब देवता सदा ब्राह्मण के ही दिये हुए फल, फूल और जल आदि का उपभोग करते हैं । ब्राह्मणों द्वारा ही आवाहित हुए देवता सदा सब लोकों में पूजित होते हैं। ब्राह्मण से बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है। ब्राह्मण के रूप में साक्षात श्रीहरि ही प्रकट होते हैं। ब्राह्मण के संतुष्ट होने पर साक्षात नारायण देव संतुष्ट होते हैं तथा नारायण देव के संतुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हो जाते हैं। गंगा जी के समान कोई तीर्थ नहीं है। भगवान् श्रीकृष्ण (विष्णु) से बढ़कर कोई देवता नहीं है। शंकर जी से बड़ा वैष्णव नहीं है और पृथ्वी से बढ़कर कोई सहनशील नहीं है। सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है। पार्वती जी से बढ़कर सती-साध्वी स्त्री नहीं है। दैव से बड़ा कोई बलवान् नहीं है तथा पुत्र से अधिक दूसरा कोई प्रिय नहीं है। रोग के समान शत्रु, गुरु से बढ़कर पूजनीय, माता के तुल्य बन्धु तथा पिता से बढ़कर दूसरा कोई मित्र नहीं है।

सूर्य का यह वचन सुनकर भारद्वाज सुतपा मुनि ने उनको प्रणाम किया और अपनी तपस्या के फल से उनके दोनों पुत्रों को रोगमुक्त कर दिया।

फिर कहा — ‘देवेश्वर! आगे चलकर आपके दोनों पुत्र यज्ञ भाग के अधिकारी होंगे।’ यों कह सुतपा मुनि ने भगवान् सूर्य को प्रणाम किया और तपस्या के क्षीण होने के भय से भयभीत हो श्रीहरि की सेवा में मन लगाकर गंगा तट को प्रस्थान किया। तत्पश्चात् भगवान् सूर्य दोनों पुत्रों के साथ अपने धाम को चले गये। विद्वान् हो या विद्याहीन, जो ब्राह्मण प्रतिदिन संध्यावन्दन करके पवित्र होता है, वही भगवान् विष्णु के समान वन्दनीय है। यदि वह भगवान् से विमुख हो तो आदर का पात्र नहीं है।

विप्र ! जो मनुष्य सूर्यरचित इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह विप्रचरण के प्रसाद से सर्वत्र विजयी होता है । जो एकादशी को भोजन नहीं करता और प्रतिदिन श्रीकृष्ण की आराधना करता है, उस ब्राह्मण का चरणोदक पाकर कोई भी स्थान निश्चय ही तीर्थ बन जाता है। जो नित्यप्रति भगवान् को भोग लगाकर उनका उच्छिष्ट भोजन करता है तथा उनके नैवेद्य को मुख में ग्रहण करता है, वह इस भूतल पर परम पवित्र एवं जीवन्मुक्त है। कुलीन द्विजों का जो अन्न-जल भगवान् विष्णु को अर्पित नहीं किया गया, वह मल-मूत्र के समान है — ऐसा ब्रह्मा जी का कथन है।

 ब्रह्मा जी तथा उनके पुत्र सनकादि — सभी विष्णुपरायण हैं; फिर उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए ब्राह्मण श्रीहरि से विमुख कैसे हो सकता है? माता-पिता, नाना आदि अथवा गुरु के संसर्ग-दोष से भी जो ब्राह्मण श्रीहरि से विमुख हो जाते हैं, वे जीते-जी ही मुर्दे के समान हैं। वह कैसा गुरु, कैसा पिता, कैसा पुत्र, कैसा मित्र, कैसा राजा तथा कैसा बन्धु है, जो श्रीहरि के भजन की बुद्धि (सलाह) नहीं देता? विप्रवर! अवैष्णव ब्राह्मण से वैष्णव चाण्डाल श्रेष्ठ है; क्योंकि वह वैष्णव चाण्डाल अपने बन्धुगणों सहित संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है और वह अवैष्णव ब्राह्मण नरक में पड़ता है।

स किं गुरुः स किं तातः स किं पुत्र स किं सखा ।
स किं राजा स किं बन्धुर्न दद्याद् यो हरौ मतिम् ॥
अवैष्णवाद् द्विजाद् विप्र चण्डालो वैष्णवो वरः ।
सगणः श्वपचो मुक्तो ब्राह्मणो नरकं व्रजेत् ॥
(ब्रह्मखण्ड ११ । ३८-३९)

ब्रह्मन ! जो प्रतिदिन संध्या-वन्दन नहीं करता अथवा भगवान् विष्णु से विमुख रहता है, वह सदा अपवित्र माना गया है। जैसे विषहीन सर्प को सर्पाभास मात्र कहा गया है, उसी तरह संध्या कर्म तथा भगवद्भक्ति से हीन ब्राह्मण ब्राह्मणाभास मात्र है। वैष्णव पुरुष अपने कुल की करोड़ों और नाना आदि की सैकड़ों पीढ़ियों के साथ भगवान् विष्णु के धाम में जाता है। वैष्णव जन सदा गोविन्द के चरणारविन्दों का ध्यान करते हैं और भगवान् गोविन्द सदा उन वैष्णवों के निकट रहकर उन्हीं का ध्यान किया करते हैं।

ध्यायन्ते वैष्णवाः शश्वत् गोविन्दपदपङकजम् ।
ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत् तेषां च संनिधौ ॥

(ब्रह्मखण्ड ११ । ४४)

भक्तों की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र को नियुक्त करके श्रीहरि निश्चिन्त नहीं होते हैं; इसलिये स्वयं भी उनके पास मौजूद रहते हैं। (अध्याय ११)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे विष्णुवैष्णवब्राह्मणप्रशंसा नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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