ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 15
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
पन्द्रहवाँ अध्याय
ब्राह्मण द्वारा अपनी शक्ति का परिचय, मृतक को जीवित करने का आश्वासन, मालावती का पति के महत्त्व को बताना और काल, यम, मृत्युकन्या आदि को ब्राह्मण द्वारा बुलवाकर उनसे बात करना, यम आदि का अपने को ईश्वर की आज्ञा का पालक बताना और उसे ‘श्रीकृष्णचिन्तन’ के लिये प्रेरित करना

ब्राह्मण बोले पतिव्रते! इस समय तुम्हारे प्रियतम किस रोग से मरे हैं? मैं चिकित्सक भी हूँ। अतः समस्त रोगों की चिकित्सा भी जानता हूँ। सती मालावति! कोई रोग से मृतकतुल्य हो गया हो अथवा मर गया हो, किंतु यदि एक सप्ताह के भीतर की ही घटना हो तो मैं उस जीव को चिकित्सा-सम्बन्धी महान ज्ञान के द्वारा चुटकी बजाते हुए जीवित कर सकता हूँ। जैसे व्याध पशु को बाँधकर सामने ला देता है, उसी प्रकार मैं जरा, मृत्यु, यम, काल तथा व्याधियों को बाँधकर तुम्हारे सामने लाने और तुम्हें सौंप देने की शक्ति रखता हूँ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

सुन्दरि! जिस उपाय से रोग देहधारियों के शरीरों में न फैले, वह तथा रोगों का जो-जो कारण है, वह सब मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं शास्त्र के तत्त्वज्ञान के अनुसार उस उपाय को भी जानता हूँ, जिससे व्याधियों का दुष्ट एवं अमंगलकारी बीज अंकुरित ही न हो। जो योग से अथवा रोगजनित कष्ट से देह-त्याग करता है, उसके जीवित होने का उपाय क्या है? इसे भी मैं योगधर्म के प्रभाव से जानता हूँ।

ब्राह्मण की यह बात सनकर सती मालावती के मन में उत्साह हुआ। वह मुस्करायी। उसके चित्त में स्नेह उमड़ आया और वह हर्ष से भरकर बोली।

मालावती ने कहा — अहो! इस बालक के मुख से कैसी आश्चर्यजनक बात सुनी गयी है? यह अवस्था में तो बहुत छोटा दिखायी देता है; परंतु इसका ज्ञान योगवेत्ताओं के समान उच्च कोटि का है। ब्रह्मन ! आपने मेरे प्रियतम पति को जीवित कर देने की प्रतिज्ञा की है। सत्पुरुषों का वचन कभी मिथ्या नहीं होता। अतः उसी क्षण मुझे विश्वास हो गया कि मेरे पति जीवित हो गये। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण! आप मेरे प्राणवल्लभ को पीछे जीवित कीजिये। पहले मैं सन्देहवश जो-जो पूछती हूँ, उसी-उसी बात को आप बताने की कृपा करें। इस सभा में जब मेरे प्राणनाथ जीवित हो जायेंगे और जीवित होकर यहाँ मौजूद रहेंगे, तब मैं उनके निकट आपसे कोई बात पूछ नहीं सकूँगी; क्योंकि उनका स्वभाव बड़ा तीखा है। इस सभा में ये ब्रह्मा आदि देवता विद्यमान हैं।

वेद-वेत्ताओं में श्रेष्ठ आप भी यहाँ उपस्थित हैं। परंतु आप सब लोगों में से कोई भी मेरा स्वामी नहीं है। यदि स्वामी अपनी पत्नी की रक्षा करता है तो कोई भी उसका खण्डन नहीं कर सकता तथा यदि वह उसका शासन करता या उसे दण्ड देता है तो इस भूतल पर दूसरा कोई स्वामी से उसकी रक्षा करने वाला नहीं है। इसी प्रकार देवताओं में, इन्द्र में अथवा ब्रह्मा और रुद्र में भी ऐसी शक्ति नहीं है।

स्वामी और स्त्री में पति-पत्नी-भाव-सम्बन्ध जानना चाहिये। स्वामी ही स्त्रियों का कर्ता, हर्ता, शासक, पोषक, रक्षक, इष्टदेव तथा पूज्य है। नारी के लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई गुरु नहीं है। जो उत्तम कुल में उत्पन्न हुई कन्या है, वह सदा अपने प्राणवल्लभ के वश में रहती है। जो स्वतन्त्र होती है वह स्वभाव से ही दुष्टा है। उसे निश्चय ही ‘कुलटा’ कहा गया है। जो दुष्टा है, मनुष्यों में अधम है तथा पर-पुरुष का सेवन करती है, वही सदा अपने पति की निन्दा करती है। अवश्य ही वह किसी नीच कुल की कन्या होती है। ब्रह्मन! मैं उपबर्हण की पत्नी, चित्ररथ की पुत्री और गन्धर्वराज की पुत्रवधू हूँ। मैंने सदा अपने प्रियतम पति में भक्ति-भाव रखा है। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण! आप सबको यहाँ बुलाने में समर्थ हैं, अतः काल, यम तथा मृत्युकन्या को मेरे पास ले आइये।

मालावती की यह बात सुनकर वेद-वेत्ताओं में उत्तम ब्राह्मण ने उस सभा में उन सबको बुलाकर प्रत्यक्ष खड़ा कर दिया। सती मालावती ने सबसे पहले मृत्युकन्या को देखा। उसका रूप-रंग काला था, वह देखने में भयंकर थी। उसने लाल रंग के कपड़े पहन रखे थे। वह मन्द-मन्द मुसकरा रही थी। उसके छः भुजाएँ थीं। वह शान्त, दयालु और महासती थी तथा अपने स्वामी काल के वाम-भाग में चौंसठ पुत्रों के साथ खड़ी थी।

तत्पश्चात सती मालावती ने नारायण के अंशभूत काल को भी सामने खड़ा देखा। उसका रूप बड़ा ही उग्र, विकट तथा ग्रीष्म-ऋतु के सूर्य की भाँति प्रचण्ड तेज से युक्त था। उसके छः मुख, सोलह भुजाएँ और चौबीस नेत्र थे। पैरों की संख्या भी छः ही थी। शरीर का रंग काला था। उसने भी लाल वस्त्र पहन रखे थे। वह देवताओं का भी देवता है। उसकी विकराल आकृति है। वह सर्व-संहाररूपी, काल का अधिदेवता, सर्वेश्वर एवं सनातन भगवान् है। उसके मुख पर मन्द मुस्कान-जनित प्रसन्नता दृष्टिगोचर होती थी, उसने हाथ में अक्षमाला धारण कर रखी थी और वह अपने स्वामी तथा आत्मा परम ब्रह्म श्रीकृष्ण का नाम जप रहा था।

इसके बाद सती ने अपने सामने अत्यन्त दुर्जय व्याधि-समूहों को देखा, जो अवस्था में अत्यन्त बड़े-बूढ़े होने पर भी अपनी माता के निकट दूध पीते बच्चों के समान दिखायी देते थे। तदनन्तर उसने यम को सामने देखा, जो धर्माधर्म के विचार को जानने वाले परम धर्मस्वरूप तथा पापियों के भी शासक हैं। उनके पैर स्थूल थे। शरीर की कान्ति श्याम थी। धर्मनिष्ठ सूर्यनन्दन यम परब्रह्मस्वरूप सनातन भगवान् श्रीकृष्ण का मन्त्र जप रहे थे।

उन सबको देख महासाध्वी मालावती के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उसने निःशंक होकर पहले यम से पूछा।

मालावती बोली — धर्म-शास्त्र-विशारद! धर्म-निष्ठ धर्मराज! प्रभो! आप समय का उल्लंघन करके मेरे प्राणनाथ को कैसे लिये जाते हैं?

यमराज ने कहा — पतिव्रते! समय पूरा हुए बिना तथा ईश्वर की आज्ञा मिले बिना इस भूतल पर किसी की मृत्यु नहीं होती। जो मरा नहीं है, ऐसे पुरुष को मैं नहीं ले जाता। मैं, काल, मृत्युकन्या तथा अत्यन्त दुर्जय व्याधिसमूह – ये आयु पूर्ण होने पर, जिसके मरण का समय आ पहुँचता है, उसी को ईश्वर की आज्ञा से ले जाते हैं। मृत्युकन्या विचारशील है। यह आयु निःशेष होने पर जिसको प्राप्त होती है, उसी को मैं ले जाता हूँ। तुम उसी से पूछो। वह किस कारण से जीव को प्राप्त होती है ?

मालावती बोली — मृत्युकन्ये ! स्वामी के वियोग से होने वाली वेदना को जानती हो। अतः प्यारी सखी! बताओ, मेरे जीते-जी तुम मेरे प्राणवल्लभ को क्यों हर ले जाती हो?

मृत्युकन्या बोली — पूर्वकाल में विश्वस्रष्टा ब्रह्मा जी ने इस कर्म के लिये मेरी ही सृष्टि की। पतिव्रते! मैं बड़ी भारी तपस्या करके भी इस कार्य को त्यागने में असमर्थ हूँ। सुन्दरि! इस संसार में यदि कोई सतियों में सबसे श्रेष्ठ और तेजस्विनी सती हो तथा वह मुझे ही अपने तेज से भस्म कर डालने में समर्थ हो जाये, तब तो यहाँ सारी ही आपत्तियों की शान्ति हो जायेंगी। फिर मेरे पुत्रों और स्वामी की जो दशा होनी होगी सो हो जायेंगी। काल से प्रेरित होकर ही मैं और मेरे पुत्र व्याधि-गण किसी प्राणी का स्पर्श करते हैं। अतः इसमें मेरा तथा मेरे पुत्रों का कोई दोष नहीं है। अब तुम मेरा निश्चित विचार सुनो। भद्रे! धर्मसभा में बैठने वाले जो धर्मज्ञ महात्मा काल हैं, उनसे इस विषय में पूछो। फिर जो उचित हो वह अवश्य करना।

मालावती ने कहा — हे काल! आप कर्मों के साक्षी हैं, कर्मस्वरूप हैं तथा नारायण के सनातन अंश हैं। भगवन् ! आप परमेश्वर को नमस्कार है। प्रभो! मैं जीवित हूँ। फिर मेरे प्रियतम को आप क्यों हर ले जाते हैं? कृपानिधे! आप सर्वज्ञ हैं। अतः सबके दुःख को भी जानते हैं।

कालपुरुष बोले — पतिव्रते! मैं अथवा यमराज किस गिनती में हैं। मृत्युकन्या और व्याधियों की क्या बिसात है। हम सब लोग सदा ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिये भ्रमण करते हैं। जिन्होंने प्रकृति की सृष्टि की है; ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को प्रकट किया है; मुनीन्द्र, मनु और मानव आदि समस्त जन्तु जिनसे उत्पन्न हुए हैं, योगिजन जिनके चरणारविन्द का चिन्तन करते हैं, बुद्धिमान् मनुष्य जिन परमात्मा के पवित्र नामों का सदा जप करते हैं, जिनके भय से हवा चलती है और सूर्य तपता है, जिनकी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि और विष्णु पालन करते हैं, जिनके आदेश से शंकर सम्पूर्ण जगत् का संहार करते हैं, कर्मों के साक्षी धर्म जिनकी आज्ञा के परिपालक हैं, राशि-चक्र और समस्त ग्रह जिनका शासन शिरोधार्य करके आकाश में चक्कर लगाते हैं, दिशाओं के स्वामी दिक्पाल जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं।

सती मालावति! जिनकी आज्ञा से वृक्ष समय पर फूल और फल धारण करते और देते हैं, जिनके आदेश से पृथ्वी जल का तथा समस्त चराचर प्राणियों का आधार बनी हुई है, क्षमाशील वसुधा जिनके भय से कभी-कभी सहसा कम्पित हो उठती है, जिनकी माया से माया भी सदा मोहित रहती है, सबको जन्म देने वाली प्रकृति जिनके भय से भीत रहती है, वस्तुओं की सत्ता को बताने वाले वेद भी जिनका अन्त नहीं जानते, समस्त पुराण जिनकी ही स्तुति का पाठ करते हैं, जिन तेजोमय सर्वव्यापी भगवान् की सोलहवीं कलास्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महाविराट पुरुष उन्हीं के नाम का जप करते हैं, वे ही सबके ईश्वर, काल-के-काल, मृत्यु-की-मृत्यु तथा परात्पर परमात्मा हैं। उन्हीं श्रीकृष्ण का तुम चिन्तन करो। वे कृपानिधान श्रीकृष्ण तुम्हें सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु तथा पति भी प्रदान करेंगे। ये सब देवता जिनकी आज्ञा के अधीन हैं, वे सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता हैं।

शौनक! ऐसा कहकर कालपुरुष चुप हो गये। तत्पश्चात ब्राह्मण ने पुनः वार्ता आरम्भ की।   (अध्याय १५)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे मालावतीकालपुरुषसंवादे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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