February 21, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 14 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ चौदहवाँ अध्याय यशोदा के यमुनास्नान के लिये जाने पर श्रीकृष्ण द्वारा दही-दूध-माखन आदि का भक्षण तथा बर्तनों को फोड़ना, यशोदा का उन्हें पकड़कर वृक्ष से बाँधना, वृक्ष का गिरना, गोप-गोपियों तथा नन्दजी का यशोदा को उपालम्भ देना, नल- कूबर और रम्भा को शाप प्राप्त होने तथा उससे मुक्त होने की कथा भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! एक दिन नन्दरानी यशोदा स्नान करने के लिये यमुनातट पर गयीं। इधर मधुसूदन श्रीकृष्ण दही-माखन आदि से भरे-पूरे घर को देखकर बड़े प्रसन्न हुए । घर में जो दही, दूध, घी, तक्र और मनोहर मक्खन रखा हुआ था, वह सब आप भोग लगा गये । छकड़े पर जो मधु, मक्खन और स्वस्तिक ( मिष्टान्नविशेष) लदा था, उसे भी खा-पीकर आप कपड़ों से मुँह पोंछने की तैयारी कर रहे थे। इतने में ही गोपी यशोदा नहाकर अपने घर लौट आयीं । उन्होंने बालकृष्ण को देखा । घर में दही, दूध आदिके जितने मटके थे, वे सब फूटे और खाली दिखायी दिये । मधु आदि के जो बर्तन थे, वे भी एकदम खाली हो गये थे । यह सब देखकर यशोदा मैया ने बालकों से पूछा – ‘अरे! यह तो बड़ा अद्भुत कर्म है। बच्चो ! तुम सच सच बताओ, किसने यह अत्यन्त दारुण कर्म किया है ?’ यशोदा की बात सुनकर सब बालक एक साथ बोल उठे – ‘मैया ! हम सच कहते हैं, तुम्हारा लाला ही सब खा गया, हम लोगों को तनिक भी नहीं दिया है।’ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय बालकों का यह वचन सुनकर नन्दरानी कुपित हो उठीं और लाल-लाल आँखें किये बेंत लेकर दौड़ीं। इधर गोविन्द भाग निकले। मैया उन्हें पकड़ न सकीं। भला, जो शिव आदि के ध्यान में भी नहीं आते, योगियों के लिये भी जिन्हें पकड़ पाना अत्यन्त कठिन है; उन्हें यशोदाजी कैसे पकड़ पातीं ? यशोदाजी पीछा करके थक गयीं। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। वे मन में ही क्रोध भरकर खड़ी हो गयीं । उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे । माता को यों थकी हुई देख कृपालु पुरुषोत्तम जगदीश्वर श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए उनके सामने खड़े हो गये। नन्दरानी उनका हाथ पकड़कर अपने घर ले आयीं। उन्होंने मधुसूदन को वस्त्र से वृक्ष में बाँध दिया। श्रीकृष्ण को बाँधकर यशोदा अपने घर में चली गयीं तथा जगत्पति परमेश्वर श्रीहरि वृक्ष की जड़ के पास खड़े रहे । नारद! श्रीकृष्ण के स्पर्शमात्र से वह पर्वताकार वृक्ष सहसा भयानक शब्द करके वहाँ गिर पड़ा। उस वृक्ष से सुन्दर वेषधारी एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। वह रत्नमय अलंकारों से विभूषित, गौरवर्ण तथा किशोर अवस्था का था। सुवर्णमय शृङ्गार से विभूषित जगदीश्वर श्रीकृष्ण को प्रणाम करके वह दिव्य पुरुष मुस्कराता हुआ दिव्य रथ पर आरूढ़ हुआ और अपने घर को चला गया । वृक्ष को गिरते देख व्रजेश्वरी यशोदा भय से त्रस्त हो उठीं । उन्होंने रोते हुए बालक श्यामसुन्दर को उठाकर छाती से लगा लिया। इतने में ही गोकुल के गोप और गोपियाँ उनके घर में आ पहुँचीं । वे सब-की-सब यशोदा को फटकारने लगीं। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक शिशु की रक्षा के लिये शान्तिकर्म किया । सब गोपियाँ यशोदा से कहने लगी — नन्दरानी ! अत्यन्त वृद्धावस्था में तुम्हें यह पुत्र प्राप्त हुआ है। संसार में जो भी धन, धान्य तथा रत्न है, वह सब पुत्र के लिये ही है । आज हमने सचमुच यह जान लिया कि तुम्हारे भीतर सुबुद्धि नहीं है । जो खाद्यपदार्थ पुत्र ने नहीं खाया, वह सब इस भूतल पर निष्फल ही है। ओ निष्ठुरे ! तुमने दही-दूध के लिये अपने लाला को वृक्ष की जड़ में बाँध दिया और स्वयं घर के काम-काज में लग गयीं । दैववश वृक्ष गिर पड़ा; किंतु हम गोपियों के सौभाग्य से वृक्ष के गिरने पर भी बालक जीवित बच गया । अरी मूढ़े ! यदि बालक नष्ट हो जाता तो इन वस्तुओं का क्या प्रयोजन था ? श्रीनन्दजी ने भी यशोदाको उलाहना दिया । ब्राह्मणों और बन्दीजनों ने बालक को शुभ आशीर्वाद दिये । सबने मिलकर ब्राह्मणों से श्रीहरि का नाम-कीर्तन करवाया । नारदजी ने पूछा — भगवन् ! वह सुन्दर वेषधारी पुरुष कौन था, जो गोकुल में वृक्ष होकर रहता था? किस कारण से उसे वृक्ष होना पड़ा था ? भगवान् नारायण बोले — एक बार कुबेरपुत्र नलकूबर अप्सरा रम्भा के साथ नन्दनवन में चला गया। वहाँ उसने भाँति-भाँति विहार किये। इसी समय महर्षि देवल उधर से निकले। उनकी दृष्टि नलकूबर और रम्भा पर पड़ गयी। इधर मुनि को देखकर भी नलकूबर – रम्भा ने उठकर उनका सम्मान नहीं किया। मुनिवर देवल उन दोनों की ऐसी दुर्वृत्ति देखकर कुपित हो गये और उन्हें शाप देते हुए बोले- ‘ नलकूबर ! तुम गोकुल में जाकर वृक्षरूप धारण करो। फिर श्रीकृष्ण का स्पर्श पाने पर अपने भवन में लौट आओगे और रम्भा ! तुम भी मनुष्ययोनि में जन्म लेकर राजा जनमेजय की सौभाग्यशालिनी पत्नी बनो । अश्वमेधयज्ञ में इन्द्र का स्पर्श पाकर तुम पुनः स्वर्ग में चली जाओगी।’ वह नलकूबर ही यह वृक्ष बना और रम्भा ने भारत में राजा सुचन्द्र की कन्यारूप से जन्म लेकर जनमेजय की महारानी बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। जनमेजय के अश्वमेधयज्ञ में इन्द्र ने महारानी को स्पर्श कर लिया। इससे उसने योगावलम्बन करके देह को त्याग दिया और वह स्वर्गधाम को चली गयी । महामुने! इस प्रकार मैंने अर्जुन-वृक्ष के भङ्ग होने तथा नलकूबर एवं रम्भा के शापमुक्त होने का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। श्रीकृष्ण का पुण्यदायक चरित्र जन्म, मृत्यु एवं जरा का नाश करनेवाला है। उसका इस रूप में वर्णन किया गया। अब उनकी दूसरी लीलाओं का वर्णन करता हूँ। (अध्याय १४) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे वृक्षार्जुनभञ्जनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related