February 26, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 36 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ छत्तीसवाँ अध्याय भगवान् शिव के दर्पभङ्ग की कथा, वृकासुर से उनकी रक्षा, श्रीराधिका के पूछने पर श्रीकृष्ण के द्वारा शिव के तत्त्व-रहस्य का निरूपण भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — प्रिये ! ब्रह्माण्डों में जिन-जिन लोगों को अपनी शक्ति पर गर्व होता है, उनके उस गर्व या अभिमान को जानकर मैं ही उन पर शासन करता हूँ- उनके घमंड को चूर कर देता हूँ; क्योंकि मैं सबका आत्मा और परात्पर परमेश्वर हूँ; पहले ब्रह्मा के गर्व को जो मैंने चूर्ण किया था, वह प्रसङ्ग तो तुमने सुन लिया। अब शंकर, पार्वती, इन्द्र, सूर्य, अग्नि, दुर्वासा तथा धन्वन्तरि के अभिमान-भञ्जन का प्रसङ्ग क्रमशः सुनाता हूँ, सुनो। प्रिये ! छोटे-बड़े जो भी लोग हैं, उनके इस तरह के गर्व को मैं अवश्य चूर्ण कर देता हूँ । स्वयं शिव मेरे अंश हैं, जगत् के संहारक हैं और मेरे समान ही तेज, ज्ञान तथा गुण से परिपूर्ण हैं । प्रिये ! योगी लोग उनका ध्यान करते हैं। वे योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु हैं तथा ज्ञानानन्दस्वरूप हैं। उनकी कथा कहता हूँ, सुनो। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय साठ सहस्र युगों तक दिन-रात तपस्या करके मेरी कला से पूर्ण भगवान् शिव तप और तेज में मेरे समान हो गये । सनातन तेज की राशि हो गये । उनमें करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश प्रकट हुआ । वे भक्तों की मनोवाञ्छा पूर्ण करने के लिये कल्पवृक्ष रूप हो गये। योगीन्द्रगण दीर्घकाल तक उनके तेज का ध्यान करते-करते उसके भीतर अत्यन्त सुन्दर स्वरूप का साक्षात्कार करने लगते हैं। उनकी अङ्गकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान उज्वल है। वे पाँच मुखों से सुशोभित होते हैं और उनके प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र शोभा पाते हैं। हाथों में त्रिशूल और पट्टिश हैं । कटिभाग में व्याघ्रचर्ममय वस्त्र शोभा पाता है । वे श्वेत कमल के बीज की माला से स्वयं ही अपने-आपका-अपने मन्त्रों का जप करते हैं। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की छटा छायी रहती है। वे परात्पर शिव मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट तथा सुनहरे रंग की जटाओं का भार धारण करते हैं। उनका स्वरूप शान्त है । वे तीनों लोकों के स्वामी तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर रहनेवाले हैं। अपने-आपको परमेश्वर मानकर समस्त सम्पत्तियों के दाता होकर कल्पवृक्ष के समान सबको सारी मनोवाञ्छित वस्तुएँ देते हैं । जो जिस वस्तु की इच्छा करता है, उसे वही वर देकर वे समस्त वरों के स्वामी हो गये हैं । इस प्रकार स्वात्माराम शिव अपनी ही लीला से अभिमान को अपनाकर गर्वयुक्त हो गये । एक समय की बात है । वृक नामक दैत्य ने शिव के केदारतीर्थ में एक वर्ष तक दिन-रात कठोर तपस्या की। कृपानिधान शिव प्रतिदिन कृपापूर्वक अभीष्ट वर देने के लिये उसके पास जाते थे; परंतु वह असुर किसी दिन भी वर नहीं ग्रहण करता था; वर्ष पूर्ण होने पर भगवान् शंकर निरन्तर उसके सामने उपस्थित रहने लगे। वे भक्ति-पाश से बँधकर वर देने के लिये उद्यत हो क्षण भर भी वहाँ से अन्यत्र न जा सके। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, समस्त सिद्धि, भोग, मोक्ष तथा श्रीहरि का पद- यह सब कुछ भगवान् शूलपाणि देना चाहते थे; परंतु उस दैत्य ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया । वह केवल उनके चरणकमलों का ध्यान करता रहा। जब ध्यान टूटा, तब उस दैत्यराज ने अपने सामने साक्षात् शिव को देखा, जो सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता हैं। उनकी ही माया से प्रेरित हो वृक ने भक्तिपूर्वक यह वर माँगा कि ‘प्रभो ! मैं जिसके माथे पर हाथ रख दूँ, वह जलकर भस्म हो जाय ।’ तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर जाते हुए भगवान् शिव के पीछे वह दैत्यराज दौड़ा। फिर तो मृत्युञ्जय शंकर मृत्यु के भय से त्रस्त होकर भागे। उनका डमरू गिर पड़ा। मनोहर व्याघ्रचर्म की भी यही दशा हुई । वे दिगम्बर होकर भय से दसों दिशाओं में भागने लगे। वे चाहते तो दानव के उसे मार डालते; परंतु भक्तवत्सल जो ठहरे। अतः भक्तपर कृपा करके उसे मारते नहीं थे । साधु पुरुष दुष्ट के अनुसार बर्ताव कदापि नहीं करते हैं। भगवान् शिव उसे समझा भी न सके। उन्होंने कृपापूर्वक उसे अपना स्वरूप ही माना; क्योंकि उनकी सर्वत्र समान दृष्टि थी । शिव उसे अपनी मृत्यु मानकर भयभीत हो उठे। उनका अहंकार गल गया । भद्रे ! मुझे याद करते हुए उन्होंने मेरी ही शरण ली। उस समय मुझे अपने आश्रम पर आते देख उन्हें कुछ धैर्य मिला। उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे और वे भयसे विह्वल हो ‘ हे हरे ! रक्षा करो, रक्षा करो’- इसका जप कर रहे थे। तब मैंने उस दैत्य को अपने पास बिठाकर समझाया और सब समाचार पूछा। पूछने पर उसने सब बातें क्रमशः बतायीं । उस समय मेरी आज्ञा से वह असुर तुरंत माया द्वारा ठगा गया। (मैंने उसको यह कहकर मोह में डाल दिया कि तुम अपने सिर पर हाथ रखकर परीक्षा तो करो कि यह बात सत्य है या नहीं ।) उसने अपने मस्तक पर हाथ रखा और तत्काल जलकर भस्म हो गया। तब सिद्ध, सुरेन्द्र, मुनीन्द्र और मनु प्रसन्नतापूर्वक उत्तम भक्तिभाव से मेरी स्तुति करने लगे और शिवजी लज्जित हो गये । उनका गर्व चूर्ण हो गया। फिर मैंने उन्हें समझाया और वे अपने स्थान को गये । इसी तरह गर्व में भरे हुए रुद्र भयानक असुर त्रिपुर का वध करने के लिये गये। वे मन-ही-मन यह समझकर कि ‘मैं तो समस्त लोकों का संहारक हूँ, फिर मेरे सामने इस पतिंगे के समान दैत्य की क्या बिसात है ?’ युद्धक्षेत्र में गये । उस समय उन्होंने मेरे दिये हुए त्रिशूल तथा श्रेष्ठ कवच को साथ नहीं लिया था। उनका त्रिपुर के साथ एक वर्ष तक दिन-रात युद्ध होता रहा; किंतु कोई भी किसी पर विजय नहीं पा सका । समराङ्गण में दोनों समान सिद्ध हुए। प्रिये ! पृथ्वी पर युद्ध करके दैत्यराज माया से बहुत ऊँचाई पर पचास करोड़ योजन ऊपर उठ गया। साथ ही विश्वनाथ शंकर भी उस दैत्य का वध करने के लिये तत्काल ऊपर को उठे। वहाँ निराधार स्थान पर एक मास तक युद्ध चलता रहा । भयानक संग्राम हुआ। अन्त में शिव को उठाकर उस दैत्य ने भूतल पर दे मारा। रथसहित रुद्र के धराशायी हो जाने पर देवर्षिगण भयभीत हो मेरी स्तुति करने लगे और बार-बार बोले – ‘ श्रीकृष्ण ! रक्षा करो, रक्षा करो।’ भय का कारण उपस्थित हुआ जान शिव ने निर्भयतापूर्वक मेरा ही स्मरण किया । उन्होंने संकटकाल में मेरे ही दिये हुए स्तोत्र से भक्तिपूर्वक मेरा स्तवन किया। उस समय अपनी कला द्वारा शीघ्र ही वृषभरूप धारण करके मैंने सोते शंकर को सींगों से उठाया और उन्हें अपना कवच तथा शत्रुमर्दन शूल दिया। उसे पाकर उन्होंने दानवों के उस अत्यन्त ऊँचे स्थान त्रिपुर को, जो आकाश में निराधार टिका हुआ था, मेरे दिये हुए शूल से नष्ट कर दिया। इसके बाद शिव ने मुझ दर्पहन्ता का ही बारंबार लज्जापूर्वक स्तवन किया । दैत्यराज त्रिपुर उसी क्षण चूर-चूर होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह देख सब देवता और मुनि प्रसन्नतापूर्वक शिवजी की स्तुति करने लगे। तबसे भगवान् शंकर ने विघ्न के बीजस्वरूप दर्प को त्याग दिया। वे ज्ञानानन्दस्वरूप से स्थित हो सब कर्मों में निर्लिप्तभाव से संलग्न रहने लगे । तदनन्तर मैं अपने प्रिय भक्त शंकर को वृषरूप से पीठ पर वहन करने लगा; क्योंकि तीनों लोकों में शिव से बढ़कर प्रियतम मेरे लिये दूसरा कोई नहीं है’। ब्रह्मा मेरे मनस्वरूप, महेश्वर मेरे ज्ञानरूप और मूलप्रकृति ईश्वरी भगवती दुर्गा मेरी बुद्धिरूपा हैं । निद्रा आदि जो-जो शक्तियाँ हैं, वे सब की सब प्रकृति की कलाएँ हैं । साक्षात् सरस्वती मेरी वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं। कल्याण के अधिदेवता गणेशजी मेरे हर्ष हैं। स्वयं धर्म परमार्थ है तथा अग्रिदेव मेरे भक्त हैं; गोलोक के सम्पूर्ण निवासी मेरे समस्त ऐश्वर्य के अधिदेवता हैं । तुम सदा मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री देवी एवं प्राणों से भी अधिक प्यारी हो । गोपाङ्गनाएँ तुम्हारी कलाएँ हैं; अतएव मुझे प्यारी हैं । गोलोकनिवासी समस्त गोप मेरे रोमकूप से उत्पन्न हुए हैं। सूर्य मेरे तेज और वायु मेरे प्राण हैं। वरुण जल के अधिदेवता तथा पृथ्वी मेरे मल से प्रकट हुई है। मेरे शरीर का शून्य भाग ही महाकाश कहा गया है। काम की उत्पत्ति मेरे मन से हुई है । इन्द्र आदि सब देवता मेरी कला के अंशांश से प्रकट हुए हैं। सृष्टि के बीजरूप जो महत् आदि तत्त्व हैं, उन सबका बीजरूप आश्रयहीन आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। कर्मभोग का अधिकारी जीव मेरा प्रतिबिम्ब है। मैं साक्षी और निरीह हूँ। किसी कर्म का भोगी नहीं हूँ । मुझ स्वेच्छामय परमेश्वर का यह शरीर भक्तों के ध्यान के लिये है । एकमात्र परात्पर परमेश्वर मैं ही प्रकृति हूँ और मैं ही पुरुष हूँ । श्रीराधिका ने पूछा — भगवन्! आप सब तत्त्वों के ज्ञाता, सबके बीज और सनातन पुरुष हैं । समस्त संदेहों का निवारण करने वाले प्रभो ! मेरे अभीष्ट प्रश्न का समाधान कीजिये । भगवान् शंकर सम्पूर्ण ज्ञानों के अधिदेवता, समस्त तत्त्वों के ज्ञाता, मृत्युञ्जय, काल के भी काल तथा आपके ही तुल्य महान् हैं । फिर वे अपने सारे अङ्गों में विभूति क्यों लगाते हैं ? पञ्चमुख और त्रिलोचन क्यों कहलाते हैं ? दिगम्बर और जटाधारी क्यों हैं ? सर्प-समुदाय से क्यों विभूषित होते हैं ? वे देवेन्द्र श्रेष्ठ वाहन छोड़कर वृषभ के द्वारा क्यों भ्रमण करते हैं ? रत्नसारनिर्मित आभूषण क्यों नहीं धारण करते हैं ? अग्रिशुद्ध दिव्य वस्त्र को त्यागकर व्याघ्रचर्म क्यों पहनते हैं ? पारिजात छोड़कर धतूर के फूल क्यों धारण करते हैं? उन्हें मस्तक पर रत्नमय किरीट धारण करने की इच्छा क्यों नहीं होती ? जटा पर ही उनकी अधिक प्रीति क्यों है ? दिव्यलोक छोड़कर उन प्रभु को श्मशान में रहने की अभिलाषा क्यों होती है ? चन्दन, अगुरु, कस्तूरी तथा सुगन्धित पुष्पों को छोड़कर वे बिल्वपत्र तथा बिल्व-काष्ठ के अनुलेपन की स्पृहा क्यों रखते हैं? मैं यह सब जानना चाहती हूँ । प्रभो! आप विस्तार के साथ इसका वर्णन करें । नाथ ! इसे सुनने के लिये मेरे मन में कौतूहल बढ़ रहा है। इच्छा जाग उठी है। राधिका की यह बात सुनकर मधुसूदन ने हँसते हुए उन्हें अपने समीप बिठा लिया और कथा कहना आरम्भ किया । श्रीकृष्ण बोले — प्रिये ! पूर्णतम महेश्वर ने साठ हजार युगों तक तप करते हुए मन के द्वारा सानन्द मेरा ध्यान किया। तत्पश्चात् वे तपस्या से विरत हो गये। इसी बीच उन्होंने मुझे अपने सामने खड़ा देखा। अत्यन्त कमनीय अङ्ग, किशोर अवस्था और परम उत्तम श्यामसुन्दर रूप – सब कुछ अनिर्वचनीय था। मेरे उस रूप को देखकर त्रिलोचन के लोचन तृप्त न हो सके। वे एकटक नेत्रों से देखते रहे तथा भक्ति के उद्रेक से प्रेम – विह्वल हो महाभक्त शिव रोने लगे। उन्होंने सोचा, सहस्रमुख शेषनाग तथा चतुर्मुख ब्रह्मा बड़े भाग्यवान् हैं, जिन्होंने बहुसंख्यक नेत्रों से भगवान् के मनोहर रूप का दर्शन करके अनेक मुखों से उनकी स्तुति की है। मैं ऐसे स्वामी को पाकर दो ही नेत्रों से इनके रूप को क्या देखूँ और एक ही मुख से इनकी क्या स्तुति करूँ ? इस बात को उन्होंने चार बार दोहराया । तपस्वी शंकर के मन-ही-मन इस प्रकार संकल्प करने पर उनके चार मुख और प्रकट हो गये तथा पहले के मुख को लेकर पञ्चम संख्या की ही पूर्ति हो गयी। उनका एक-एक मुख तीन-तीन नेत्रों से सुशोभित होने लगा; इसलिये वे पञ्चमुख और त्रिलोचन नाम से प्रसिद्ध हुए। शिव की स्तुति की अपेक्षा मेरे रूप के दर्शन में ही अधिक प्रेम है; इसलिये उनके नेत्र ही अधिक प्रकट हुए। उन ब्रह्मस्वरूप शिव के वे तीन नेत्र सत्त्व, रज तथा तम नामक तीन गुणरूप हैं; इसका कारण सुनो। भगवान् शिव सात्त्विक अंशवाली दृष्टि से देखते हुए सात्त्विक जनों की, राजस दृष्टि से राजसिक लोगों की तथा तामस दृष्टि से तमोगुणी लोगों की रक्षा करते हैं। संहारकर्ता हर के ललाटवर्ती तामस नेत्र से पीछे चलकर संहारकाल में क्रोधपूर्वक संवर्तक अग्नि का आविर्भाव होता है। वे अग्निदेव करोड़ों ताड़ों के बराबर ऊँचे, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान तथा विशाल लपटों से युक्त हो अपनी जीभ लपलपाते हुए तीनों लोकों को दग्ध कर देने में समर्थ हैं । भगवान् शंकर सती के दाह-संस्कारजनित भस्म को लेकर अपने अङ्गों में मलते हैं। इसलिये ‘विभूतिधारी’ कहे जाते हैं । सती के प्रति प्रेमभाव के कारण ही वे उनकी हड्डियों की माला और भस्म धारण करते हैं । यद्यपि शिव स्वात्माराम हैं, तथापि उन्होंने पूरे एक साल तक सती के शव को लेकर चारों ओर घूमते हुए रोदन किया था । सती का एक-एक अङ्ग जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ- वहाँ सिद्धपीठ हो गया, जो मन्त्रों की सिद्धि प्रदान करनेवाला है । राधिके ! तदनन्तर अवशिष्ट शव को छाती से लगाकर वे मूर्च्छित हो सिद्धिक्षेत्र में गिर पड़े। तब मैंने महेश्वर के पास जा उन्हें गोद में ले सचेत किया और शोक को हर लेने वाले परम उत्तम दिव्य तत्त्व का उपदेश दिया। उस समय शिव संतुष्ट हो अपने लोक को पधारे और अपनी ही दूसरी मूर्ति काल के द्वारा उन्होंने अपनी प्रिया सती को प्राप्त कर लिया। वे योगस्थ होने के कारण दिगम्बर हैं । उन नित्य परमेश्वर में इच्छा का सर्वथा अभाव है। उनके सिर पर जो जटाएँ हैं, वे तपस्या – काल की हैं, जिन्हें वे आज भी विवेकपूर्वक धारण करते हैं। योगी को केशों का संस्कार करने (बालों को सँवारने) तथा शरीर को वेश-भूषा से विभूषित करने की इच्छा नहीं होती । उसका चन्दन और कीचड़ में तथा मिट्टी के ढेले और श्रेष्ठ मणिरत्न में भी समभाव होता है। गरुड़ से द्वेष रखने वाले सर्प भगवान् शंकर की शरण में गये । उन्हीं शरणागतों को वे कृपापूर्वक अपने शरीर में धारण करते हैं। उनका वृषभरूप वाहन तो मैं स्वयं हूँ। दूसरा कोई भी उनका भार वहन करने में समर्थ नहीं है । पूर्वकाल में त्रिपुर के वध के समय मेरे कलांश से उस वृषभ की उत्पत्ति हुई । पारिजात आदि पुष्प तथा चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ वे शिव मुझको अर्पित कर चुके हैं; इसलिये उनमें उनकी कभी प्रीति नहीं होती । धतूर, बिल्वपत्र, बिल्व-काष्ठ का अनुलेपन, गन्धहीन पुष्प तथा व्याघ्रचर्म योगियों को अभीष्ट हैं। इसलिये उनमें उनकी सदा प्रीति रहती है। दिव्य लोक में, दिव्य शय्या में और जनसमुदाय में उनका मन नहीं लगता है; इसलिये वे अत्यन्त एकान्त श्मशान में रहकर दिन-रात मेरा ध्यान किया करते हैं। ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त प्रत्येक प्राणी को भगवान् शिव समान समझते हैं। केवल मेरे इस अनिर्वचनीय रूप में ही उनका मन निरन्तर लगा रहता है । ब्रह्माजी का पतन हो जाने पर भी शूलपाणि शंकर का क्षय नहीं होता। उनकी आयु का प्रमाण मैं भी नहीं जानता, फिर श्रुति क्या जानेगी? मृत्युञ्जय शिव ज्ञानस्वरूप हैं । वे मेरे तेज के समान शूल धारण करते हैं । मेरे बिना कोई भी शंकर को जीत नहीं सकता। शंकर मेरे परम आत्मा हैं। शिव मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर हैं। उन त्रिलोचन में मेरा मन सदा लगा रहता है। भगवान् भव से बढ़कर मेरा प्रिय और कोई नहीं है। शंकरः परमात्मा मे प्राणेभ्योऽपि परः शिवः । त्र्यम्बके मन्मनः शश्वन्न प्रियो मे भवात्परः ॥ १०८ ॥ न संवसामि गोलोके वैकुण्ठे तव वक्षसि । सदा शिवस्य हृदये निबद्धः प्रेमपाशतः ॥ ११० ॥ राधे ! मैं गोलोक और वैकुण्ठ में नहीं रहता । तुम्हारे वक्ष में भी वास नहीं करता । मैं तो सदाशिव के प्रेमपाश में बँधकर उन्हीं के हृदय में निरन्तर निवास करता हूँ । शंकर अपने पाँच मुखों द्वारा मीठी तान के साथ सदा मेरी गाथा का स्वरसिद्ध गान किया करते हैं। इसलिये मैं उनके समीप रहता हूँ। वे योग द्वारा भ्रूभङ्ग की लीलामात्र से ब्रह्माण्ड-समुदाय की सृष्टि और संहार करने में समर्थ हैं । शंकर से बढ़कर दूसरा कोई योगी नहीं है। जो अपने दिव्य ज्ञान से भ्रूभङ्ग – लीला द्वारा नष्ट हुए मृत्यु और काल आदि की पुनः सृष्टि करने में समर्थ हैं; उन शंकर से बढ़कर कोई ज्ञानी नहीं है। वे मेरी भक्ति, दास्यभाव, मुक्ति, समस्त सम्पत्ति तथा सम्पूर्ण सिद्धि को भी देने में समर्थ हैं; अतः शंकर से बढ़कर कोई दाता नहीं है । वे पाँच मुखों से दिन-रात मेरे नाम और यश का गान करते हैं और निरन्तर मेरे स्वरूप का ध्यान करते रहते हैं; अतः शंकर से बढ़कर कोई भक्त नहीं है । मैं, सुदर्शनचक्र तथा शिव – ये तीनों समान तेजस्वी हैं। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा भी योग और तेज में हम लोगों की समानता नहीं करते हैं। प्रिये ! इस प्रकार मैंने शंकर के निर्मल यश का पूर्णतः वर्णन किया, तथापि उनका भी दर्प दलित हुआ । अब तुम और क्या सुनना चाहती हो ? (अध्याय ३६ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे श्रीकृष्णकृतशंकरप्रशंसा नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related