March 1, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 54 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ चौवनवाँ अध्याय श्रीकृष्ण के मथुरागमन से लेकर परम-धाम-गमन तक की लीलाओं का संक्षिप्त परिचय नारदजी ने पूछा — मुनिश्रेष्ठ ! इसके बाद कौन-सी रहस्य – लीला हुई ? भगवान् श्रीकृष्ण किस प्रकार नन्दभवन से मथुरा को गये ? श्रीहरि के वियोग से पीड़ित हुए नन्द ने कैसे अपने प्राण धारण किये ? जिनका चित्त सदा श्रीकृष्ण के चिन्तन में ही लगा रहता था, वे गोपाङ्गनाएँ और यशोदाजी भी कैसे जीवन धारण कर सकीं ? जो आँखों की पलक गिरने तक का भी वियोग होने पर जीवित नहीं रह सकती थीं; वे ही देवी श्रीराधा अपने प्राणेश्वर के बिना किस तरह प्राणों को रख सकीं ? जो-जो गोप शयन, भोजन तथा अन्यान्य सुखों के उपभोग-काल में सदा श्रीकृष्ण के साथ रहे; वे अपने वैसे प्रेमी बान्धव को व्रज में रहते हुए कैसे भूल सके ? श्रीकृष्ण ने मथुरा में जाकर कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं ? परमधाम गमनपर्यन्त उन्होंने जो कुछ किया हो, उसे आप बताने की कृपा करें। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीनारायण ने कहा — महामुने ! कंस ने धनुष-यज्ञ नामक यज्ञ का आयोजन किया था । उसमें उस राजा का निमन्त्रण पाकर भगवान् श्रीकृष्ण भी गये थे। राजा कंस ने श्रीकृष्ण को बुलाने के लिये भगवद्भक्त अक्रूर को उनके पास भेजा था । अक्रूरजी राजा कंस की आज्ञा पाकर नन्दभवन में गये और श्रीकृष्ण को उनके साथियों सहित साथ ले मथुरा में लौट आये। मुने! मथुरा जाकर श्रीकृष्ण ने राजा कंस को मार डाला। एक धोबी को, चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल को तथा कुवलयापीड़ नामक हाथी को वे पहले ही काल के गाल में भेज चुके थे । कंस वध के अनन्तर बान्धव श्रीकृष्ण ने माता-पिता तथा भाई-बन्धुओं का उद्धार किया । श्रीहरि ने कृपापूर्वक एक माली को भी मोक्ष प्रदान किया । फिर गोपियों पर दया आने से उद्धव को व्रज में भेजकर उन्हीं के द्वारा उन्हें समझाया- बुझाया और धीरज बँधाया । तदनन्तर उपनयन- संस्कार के पश्चात् भगवान् अवन्तीनगर (उज्जैन) -में गये और वहाँ गुरु सान्दीपनि मुनि से विद्या जीतकर ग्रहण की। उसके बाद जरासंध को यवनराज का वध किया और विधिपूर्वक उग्रसेन को राजा के पद पर बिठाया । समुद्र के निकट जा वहाँ द्वारकापुरी का निर्माण कराया और राजाओं के समूह को जीतकर वे रुक्मिणीदेवी को हर लाये । फिर कालिन्दी, लक्ष्मणा, शैव्या, सत्या, सती जाम्बवती, मित्रविन्दा तथा नाग्नजिती के साथ विवाह किया। तत्पश्चात् भयानक संग्राम के द्वारा प्राग्ज्योतिषपुर के नरेश नरक का वध करके उन्होंने सोलह हजार राजकुमारियों का उद्धार किया और उन्हें पत्नीरूप में अपनाकर उनके साथ विहार किया । इन्द्रदेव को लीलापूर्वक परास्त करके पारिजात का अपहरण किया और भगवान् शंकर को जीतकर बाणासुर के हाथ काट दिये तथा अपने पौत्र अनिरुद्ध को छुड़ाया और फिर द्वारका में आकर अपने-आपको अपनी प्रत्येक रानी के महल में उपस्थित दिखाया । वसुदेवजी के यज्ञ में तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग से आयी हुई अपने प्राणों की अधिष्ठात्री देवी श्रीराधा के दर्शन किये। फिर वे उनके साथ पुण्यमय वृन्दावन में गये । भारत के उस पुण्यक्षेत्र में उन जगदीश्वर ने श्रीराधा के साथ पुनः चौदह वर्षों तक रासमण्डल में रास किया। उन्होंने नन्द – भवन में पूरे ग्यारह वर्ष की अवस्था तक निवास किया था। फिर मथुरा और द्वारका में उन भगवान् के पूरे सौ वर्ष व्यतीत हुए। उन दिनों महापराक्रमी श्रीहरि ने वहाँ रहकर भूतल का भार उतारा था। मुने! इस तरह वे एक सौ पचीस वर्षों तक भूतलपर रहकर गोलोक में गये । वहाँ उन्होंने मैया यशोदा और नन्दबाबा को तथा बुद्धिमान् वृषभानु एवं राधा-माता कलावती को सामीप्य मुक्ति प्रदान की। श्रीकृष्ण और गोपियों के साथ राधा ने कौतूहलवश प्रत्येक युग में वेदवर्णित धर्म का सेतु बाँधा । महामुने! इस प्रकार मैंने थोड़े में श्रीकृष्ण का सारा रम्य चरित्र कह सुनाया जो धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सारा जगत् नश्वर ही है; अत: तुम परमानन्दमय नन्दनन्दन का सानन्द भजन करो। वे स्वेच्छामय परब्रह्म परमात्मा परमेश्वर, अविनाशी, अव्यक्त, भक्तोंपर कृपा करने के लिये ही शरीर धारण करने वाले, सत्य, नित्य, स्वतन्त्र, सर्वेश्वर, प्रकृति से परे, निर्गुण, निरीह, निराकार और निरञ्जन हैं । (अध्याय ५४) ॥ इति श्रीब्रह्मैववर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे श्रीकृष्णराधिकासंवादो नाम चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related