January 10, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ११८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय ११८ महर्षि अगस्त्य की कथा और उनके अर्घ्य-दान की विधि राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! अब आप सभी पापों को दूर करनेवाले अगस्त्य मुनि के चरित्र, अर्घ्यदान की विधि और अगस्त्योदय-काल का वर्णन कीजिये । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज़ ! एक बार देवश्रेष्ठ मित्र और वरुण दोनों मन्दराचल पर कठिन तपस्या कर रहे थे । उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिये इन्द्र ने उर्वशी अप्सरा को भेजा । उसे देखकर दोनों क्षुब्ध हो उठे । अपने मन के विकार को जानकर उन्होंने अपना तेज एक कुम्भ में स्थापित कर दिया । राजा निमि के शाप से उसी कुम्भ से प्रथम महर्षि वसिष्ठ का अनन्तर दिव्य तपोधन महात्मा अगस्य का प्रादुर्भाव हुआ । अगस्त्य मुनि का विवाह लोपामुद्रा से हुआ । अनन्तर विघ्नों से घिरे हुए अगस्त्य मुनि अपनी पत्नी के साथ रहकर मलयपर्वत के एक प्रदेश में वैखानस-विधि के अनुसार अत्यन्त कठोर तप करने लगे । वे बहुत कालतक तपस्या करते रहे, उसी समय बड़े ही दुराचारी और ब्राह्मणों द्वारा किये जा रहे यज्ञों का विध्वंस करनेवाले दो दैत्य जिनका नाम इल्वल और वातापि था, वहाँ उपस्थित हुए । ये दोनों बड़े ही मायावी थे । इन दोनों का प्रतिदिन का कार्य यह था कि एक भाई मेष बनकर विविध प्रकार के भोजन का रूप धारण कर लेता और दूसरा भाई श्राद्ध में भोजन करने हेतु ब्राह्मण को निमन्त्रण देकर बुलाता और भोजन कराता । भोजन कर लेने के तुरंत बाद ही इल्वल अपने भाई का नाम लेकर पुकारता । दैत्य की पुकार सुनते ही उसका दूसरा भाई ब्राह्मणों के पेट को चीरता हुआ बाहर निकल जाता था । इस प्रकार उन दोनों दैत्यों ने अनेक ब्राह्मणों तथा मुनियों को मार डाला । एक दिन की बात है, इल्वल ने भृगुवंश में उत्पन्न ब्राह्मणों के साथ अगस्त्य मुनि को भोजन के लिये आमन्त्रित किया । भोजन के समय अगस्त्यमुनि ने इल्वल के द्वारा बनाया गया भोजन सारा-का-सारा खा डाला, पर मुनि निर्विकार होकर शुद्ध हो गये थे । इल्वल ने पूर्वरीति से अपने भाई वातापि को पुकारकर कहा — ‘भाई ! अब क्यों विलम्ब कर रहे हो, मुनि के शरीर को चीरकर बाहर आ जाओ ।’ इस पर अगस्त्य मुनि ने कहा — ‘अरे दुष्ट दैत्य ! तुम्हारा भाई वातापि तो उदर में ही भस्म होकर समाप्त हो गया, अब वह बाहर कहाँ से आयेगा ।’ यह सुनकर इल्वल बहुत ही क्रुद्ध हो उठा, परंतु अगस्त्य मुनि ने उसको भी अपनी क्रुद्ध दृष्टि से जलाकर भस्म कर डाला । उन दोनों दैत्यों के मारे जाने पर शेष दैत्य भी मुनि के वैर को स्मरण करते हुए भयभीत होकर समुद्र में जाकर छिप गये । वे रात्रि के समय समुद्र से बाहर निकलकर मुनियों का भक्षण करते, यज्ञपात्र फोड़ डालते और पुनः समुद्र में जाकर छिप जाते । दैत्यों के इस प्रकार के उत्पात को देखकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र आदि सभी देवता आपस में विचारकर महर्षि अगस्त्यजी के पास आकर बोले — ‘ब्रह्मर्षे ! आप समुद्र के जल को सोख लीजिये ।’ यह सुनकर अगस्त्यजी ने अपने में आग्नेयी धारणा का अवधान कर समुद्र के जल का पान कर लिया । समुद्र के सूख जाने पर देवताओं ने उन सभी दैत्यों का संहार कर डाला । इस प्रकार महर्षि अगस्त्य ने इस संसार को निष्कण्टक कर दिया । उसके बाद गङ्गाजी के जल से समुद्र पुनः भर गया । तब देवता और दैत्यों ने मिलकर मन्दराचल पर्वत को मथानी तथा नागराज वासुकि को रस्सी बनाकर समुद्र का मन्थन किया । उस समय समुद्र से चन्द्रमा, लक्ष्मी, अमृत, कौस्तुभमणि, ऐरावत हाथी आदि उत्तम-उत्तम रत्न निकले । समुद्र से ही अति भयंकर कालकूट विष भी निकला, जिसके गन्धमात्र से ही देवता और दैत्य सभी मूर्च्छित होने लगे । इस कालकूट विष का कुछ भाग भगवान् शंकर ने पान कर लिया । जिससे वे नीलकण्ठ कहलाये, तब ब्रह्माजी ने कहा कि भगवान् शंकर के अतिरिक्त संसार में ऐसा किसी में सामर्थ्य नहीं है, जो इस शेष विष का पान करे, अतः देवगणो ! आप सब दक्षिण दिशा में लंका के समीप निवास करनेवाले अगस्त्य मुनि के पास जायें, वे हमलोगों के शरणदाता है । ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर सभी देवता अगस्त्यमुनि के पास गये । मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ने सबको भयभीत पाकर उन्हें यह आश्वासन दिया कि मैं उस विष को अपने तपोबल के प्रभाव से हिमालय पर्वत में प्रविष्ट कर दूँगा । तब महर्षि अगस्त्यजी के तपोबल के प्रभाव से वही विष हिमालय शिखरों, निकुञ्जों तथा वृक्षों में बिखर गया और शेष बचे हुए विष को धतूर, अर्क आदि वृक्षों में उन्होंने बाँट दिया । उसी हिमालय पर्वत के विष से युक्त वायु के प्रभाव से प्राणियों में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे प्राणियों को कष्ट सहन करना पड़ता है । उस विषयुक्त वायु का प्रभाव वृष की संक्रान्ति से लेकर सिंह-संक्रान्ति तक बना रहता है । बाद में उसका वेग शान्त हो जाता है । इस प्रकार कालकूट विष के विनाशकारी प्रभाव से अगस्त्यमुनि ने समस्त प्राणियों की रक्षा की । पूर्वकाल में प्रजा की बहुत वृद्धि हुई । उस समय ब्रह्माजी ने अपने शरीर से मृत्यु को उत्पन्न किया और मृत्यु ने प्रजा का भयंकर विनाश किया । एक दिन वह मृत्यु अगस्त्यमुनि के समीप भी आयी । अगस्त्यजी ने क्रोधभरी दृष्टि से मृत्यु को तत्काल भस्म कर दिया । पुनः ब्रह्माजी को दूसरी व्याधिरूप मृत्यु की उत्पत्ति करनी पड़ी । दण्डकारण्य में श्वेत नामक एक राजा रहता था, स्वर्ग जाने पर भी वह प्रतिदिन क्षुधा के कारण अपने मांस को ही खाकर कष्ट भोग रहा था । एक दिन दुःखी हो राजा ने अगस्त्यमुनि से कहा — ‘महाराज ! सभी वस्तुओं का दान तो मैंने किया है, परंतु अन्न और जल का दान में नहीं कर सका और न मैंने श्राद्ध हीं किया । इसलिये मुझे इस रूप में प्रतिदिन अपना ही मांस खाना पड़ रहा है । प्रभो ! आप दया करके कोई उपाय कीजिये, जिससे कि मुझे इस विपत्ति से छुटकारा प्राप्त हो ।’ राजा द्वारा इस प्रकार दीन वचन सुनकर अगस्त्यमुनि दयार्द्र हो उठे और उन्होंने रत्नों द्वारा श्राद्ध कराया । श्राद्ध के फलस्वरूप सहसा वह दिव्य देह धारणकर स्वर्गलोक में दिव्य भोग भोगने लगा । एक बार विन्ध्याचल पर्वत के हृदय में यह प्रश्न उठा कि सूर्यनारायण मेरुपर्वत की परिक्रमा तो करते हैं, पर मेरी नहीं करते । क्यों न मैं उनका मार्ग रोक दूँ । मन में यह निश्चय कर विन्ध्यगिरि प्रतिदिन बढ़ने लगा । विन्ध्याचल को बढ़ते हुए देखकर सभी देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने अगस्त्यमुनि के पास जाकर निवेदन किया — ‘प्रभो ! आप कृपाकर सूर्य के मार्ग को अवरुद्ध करनेवाले उस विन्ध्यगिरि को रोकें और उसे स्थिर कर दें ।’ देवताओं का विनययुक्त वचन सुनकर अगस्त्यजी ने विन्ध्याचल पर्वत के पास पहुँचकर कहा — ‘पर्वतोत्तम ! मैं तीर्थयात्रा करने जा रहा हूँ, तुम थोड़ा नीचे हो जाओ, तो उस पार चला जाऊँ ।’ मुनि की आज्ञा से विन्ध्याचल नीचा हो गया । अगस्त्यमुनि ने पर्वत को लाँघकर कहा — ‘जब तक मैं तीर्थयात्रा से वापस नहीं आ जाता, तबतक तुम इसी स्थिति में रहना ।’ इतना कहकर अगस्त्यमुनि दक्षिण दिशा को चले गये और फिर वापस नहीं लौटे । आज भी आकाश में दक्षिण दिशा में देदीप्यमान हो रहे हैं और लोपामुद्रा के साथ महर्षि अगस्त्य को यह त्रिलोकी वन्दना करता है । एक समय की बात हैं, अपनी पत्नी लोपामुद्रा की इच्छा पर अगस्त्यजी ने कुबेर को बुलाकर आनन्द के सभी ऐश्वर्य महल, शय्या, वस्त्राभूषण आदि उन्हें उपलब्ध करा दिये और लोपामुद्रा के साथ अगस्त्यजी बहुत समय तक आनन्दित होते रहे । राजन् ! इस प्रकार अगस्त्यमुनि के अनेक अद्भुत दिव्य चरित्र हैं । आप भी भगवान् अगस्त्य के लिये अर्घ्य प्रदान करें, इससे आपको महान् पुण्य प्राप्त होगा । उनके अर्घ्यदान की विधि इस प्रकार है — जब कन्या राशि में सूर्य के सात अंश (५ । २२) शेष रहते हैं, उसी दिन महर्षि अगस्त्य का पूर्व में उदय होता है, उसी समय उनके निमित्त अर्घ्य देना चाहिये । व्रती को चाहिये कि प्रातः श्वेत तिलों से स्नान कर श्वेत वस्त्र, श्वेत पुष्पों की माला आदि से विभूषित होकर पञ्चरत्नसहित एक सुवर्ण कलश स्थापित करे । उसके ऊपर अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ और सप्तधान्यसहित घी का पात्र रखे । उसके ऊपर जटाधारी, हाथ में कमण्डलु धारण किये हुए, शिष्यों के साथ अगस्त्यमुनि की स्वर्ण-प्रतिमा बनाकर स्थापित करना चाहिये । तत्पश्चात् श्वेत चन्दन, चमेली के पुष्प, उत्तम धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उनकी पूजा करने के बाद अर्घ्य देना चाहिये । खजूर, नारियल, कूष्माण्ड, खीरा, ककड़ी, कर्कोटक, आरवेल्ल, बीजपूर (बिजौरा), बैगन, अनार, नारंगी, केला, कुशा, काश, दूर्वा के अंकुर, नीलकमल तथा अंकुरित अन्न — यह सभी सामग्री एक बाँस के पात्र में रखकर सुवर्ण, चाँदी अथवा ताँबे का अर्घ्यपात्र नम्र हो सिर से लगाकर प्रसन्न-चित्त से जानुओं को पृथ्वी पर टेककर दक्षिणाभिमुख हो इन मन्त्रों से भक्तिपूर्वक भगवान् अगस्त्य को अर्घ्य प्रदान करना चाहिये — “काशपुष्पप्रतीकाश अग्निमारूतसम्भव । मित्रावरुणयोः पुत्र कुम्भयोने नमोऽस्तु ते ॥ विन्ध्यवृद्धिक्षयकर मेघतोयविषापह । रत्नवल्लभ देवर्षे लंकावास नमोऽस्तु ते ॥ वातापिर्भक्षितो येन समुद्राः शोषिताः पुरा । लोपामुद्रापतिः श्रीमान् योऽसौ तस्मै नमो नमः ॥ येनोदितेन पापानि प्रलयं यान्ति व्याधयः । तस्मै नमोऽस्त्वगस्त्याय सशिष्याय सुपुत्रिणे ॥” (उत्तरपर्व ११८ । ६९—७२) ‘देवर्षे ! आपका वर्ण काश-पुष्प के समान है, आप अग्नि और मरुत् से उद्भूत हैं । मित्रावरुण के पुत्र कुम्भयोने ! आपको नमस्कार है । आप वृष्टि में अमृत का संचार करनेवाले हैं, आपने बढ़ते हुए विन्ध्यगिरि को निवृत्त किया था और आप दक्षिण दिशा में निवास करते हैं, आपको नमस्कार है । आपने वातापि राक्षस को भस्म कर दिया तथा समुद्र को सोख लिया, लोपामुद्रा के पति भगवान् अगस्त्य ! आपको बार-बार नमस्कार है । आपके उदय होने पर सारी व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं, शिष्यों और पुत्रों के साथ भगवन् ! आपको नमस्कार है ।’ इस प्रकार अर्घ्य प्रदान कर वह प्रतिमा विद्वान् श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान में दे दें । किसी एक फल अथवा धान्य आदि का एक वर्ष तक त्याग करे । इस विधि से यदि ब्राह्मण सात वर्ष तक अर्घ्य दे तो चारों वेदों का ज्ञाता और सभी शास्त्रों का मर्मज्ञ हो जाता है । क्षत्रिय समस्त पृथ्वी को जीतकर राजा बनता है । वैश्य धनधान्य तथा पशुओं एवं समृद्धि को प्राप्त करता है तथा शूद्र धन, सम्मान, आरोग्य प्राप्त करता है और स्त्रियों को सौभाग्य, ऋद्धि-वृद्धि तथा पुत्र की प्राप्ति होती है । विधवा को अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है, क्न्या को श्रेष्ठ पति प्राप्त होता है तथा रोगी अगस्त्यमुनि को अर्घ्य देकर रोग से छुटकारा पा जाता है । जिस देश में भगवान् अगस्त्य का इस विधि से पूजन होता है और अर्घ्य दिया जाता है, वहाँ कभी दुर्भिक्ष, अकाल आदि का भय नहीं होता । अगस्त्य ऋषि के आख्यान को सुननेवाले सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं । (अध्याय ११८) इस व्रत का उल्लेख मत्स्यपुराण अध्याय ६१ में तथा इनकी कथा, इनका अनेक आश्रमों में निवास और अगगस्त्यार्घ्य पर ऋग्वेद १ । १७९ । ६ से लेकर अग्नि, गरुड, बृहद्धर्म आदि पुराणों तक में अपार सामग्री भरी पड़ी है । हेमाद्रि, गोपाल तथा रत्नाकर आदि भी इन्हें अपने व्रत-निबन्धों में कई पृष्ठों में संगृहीत किया है । Related